माना जाता है कि महाभारत युद्ध में एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु था और 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे। लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। महाभारत युग में कौरवों का पूरे भारत में प्रभाव था। कौरव, पौरव और यादव तीनों ही चन्द्रवंशी थे।
कौरवों और पांडवों के बीच हस्तिनापुर की गद्दी के लिए कुरूक्षेत्र में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध हुआ था। कुरूक्षेत्र हरियाणा प्रांत का एक जिला है। यहीं भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। कृष्ण इस युद्ध में पांडवों के साथ थे। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। नवीनतम शोधानुसार यह युद्ध 3067 ई. पूर्व में हुआ था। युद्ध के बाद तभी से कलियुग का आरंभ माना जाता है।
कृष्ण जन्म और मृत्यु के समय ग्रह-नक्षत्रों की जो स्थिति थी उस आधार पर ज्योतिषियों ने कृष्ण की आयु 119-33 वर्ष आंकी है। उनकी मृत्यु एक बहेलिए का तीर लगने से हुई थी।
कौरव महाभारत में हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र थे। ये संख्या में 100 थे तथा कुरू के वंशज थे। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या सभी कौरव और पांडव कुरू के वंशज थे? यदि नहीं थे तो फिर वे किसके वंशज थे। दूसरा सवाल यदि धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव नहीं थे तो फिर कौरव कौन थे?
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पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पुरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरू हुए। कुरू के वंश में शांतनु का जन्म हुआ। कुरू से वंशजों को कौरव कहा जाता है। भारत में कुरू का वंश नहीं चला।महाराजा शांतनु की पत्नी का नाम था गंगा। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया। यह कुरूवंश का भारत में अंतिम राजा था। बाद में राजा शांतनु का एक शूद्र महिला सत्यवती से प्रेम हो गया। सत्यवती के कारण देवव्रत को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा लेना पड़ी। शांतनु को सत्यवती से दो पुत्र मिले चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद युद्ध में मारा गया जबकि विचित्रवीर्य का विवाह भीष्म ने काशीराज की पुत्री अंबिका और अंबालिका से कर दिया। लेकिन विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हो रही थी तब चिंतित सत्यवती ने कुंवारी अवस्था में पराशर मुनि से उत्पन्न अपने पुत्र वेद व्यास को बुलाया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी कि अंबिका और अंबालिका को कोई पुत्र मिले। अंबिका से धृतराष्ट्र और अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी से विदुर का। इस तरह देखा जाए तो पराशर मुनि का वंश चला।वेद व्यासजी ने महाभारत को लिखा था। वेद व्यास कौन थे? वेद व्यास सत्यवती के पुत्र थे और उनके पिता ऋषि पराशर थे। सत्यवती जब कुंवारी थी, तब वेद व्यास ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। बाद में सत्यवती ने हस्तिनापुर महाराजा शांतनु से विवाह किया था। माना जाता है कि वेद व्यास भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे इसलिए उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाता था।
धृतराष्ट्र और पांडु के पुत्र कौन थे, अगले पन्ने पर...
पांडु की पत्नी कुंती के पुत्र युधिष्ठिर के जन्म का समाचार मिलने के बाद धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के मन में भी पुत्रवती होने की इच्छा जाग्रत हुई, लेकिन धृतराष्ट्र के लाख प्रयासों के बावजूद कोई पुत्र जन्म नहीं ले पा रहा था तब एक बार फिर से वेद व्यास को बुलाया गया और वेद व्यास की कृपा से गांधारी ने गर्भ धारण किया।
गर्भ धारण के पश्चात 2 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब पुत्र का जन्म नहीं हुआ तो क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट में मुक्का मारकर अपना गर्भ गिरा दिया। योगबल से वेद व्यास को इस घटना को तत्काल जान लिया और उन्होंने गांधारी के पास आकर अपने क्रोध को प्रकट किया। फिर उन्होंने कहा कि तुरंत ही 100 कुंड तैयार कर उसमें घृत भरवा दो।
गांधारी ने उनकी आज्ञानुसार 100 कुंड बनवा दिए। तब वेद व्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांसपिंड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिसके चलते उस पिंड के अंगूठे के पोर बराबर 100 टुकड़े हो गए। वेद व्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए 100 कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को 2 वर्ष पश्चात खोलने का आदेश दे अपने आश्रम चले गए। 2 वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुंती के पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा।
ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, 'राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा।' फिर उन कुंडों से क्रमश: शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ। गांधारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गई थी अतएव उनकी सेवा के लिए एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्सु नामक एक पुत्र हुआ। युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।
पांडवों की जन्म कथा के बाद जानिए आखिर में कौरव कहां के थे...
एक बार राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुंती तथा माद्री के साथ वन में आखेट के लिए निकले। वहां उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दिखाई दिया। पांडु ने तत्काल उस मृग को एक बाण मार दिया। मरते हुए मृग ने पांडु को शाप दिया, 'राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी भी मृत्यु हो जाएगी।'
इस शाप से पांडु अत्यंत दुःखी हुए और अपनी रानियों से बोले, 'अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग करके इस वन में ही रहूंगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ।' दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, 'हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रहने दीजिए।' पांडु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
एक दिन पांडु अपनी पत्नी से बोले, 'हे कुंती! मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ हो रहा है, क्योंकि संतानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिए मेरी सहायता कर सकती हो?'
कुंती बोली, 'हे आर्य! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मंत्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूं। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊं?'
इस पर पांडु ने धर्म को आमंत्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुंती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालांतर में पांडु ने कुंती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमंत्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। बाद में कुंती ने माद्री को उक्त मंत्र की दीक्षा दे दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमंत्रित किया किया और इस तरह नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पांडु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन में प्रवृत्त हुए ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। बाद में माद्री उनके साथ सती हो गई। ऐसे में सभी पुत्रों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी कुंती पर आ गई और इस तरह कुंती ने हस्तिनापुर लौटकर अपने पुत्रों के हक की लड़ाई लड़ी।
जब धृतराष्ट्र और पांडु के पुत्र कौरव नहीं थे, तो कौरव कौन थे...अगले पन्ने पर...
पहले कुरू : कौरव चन्द्रवंशी थे और कौरव अपने आदि पुरुष के रूप में चन्द्रमा को मानते थे। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पुरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरू हुए।
दूसरे कुरू : ब्रह्माजी से उत्पन्न स्वायंभुव मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत थे। प्रियव्रत से अग्नीघ्र हुए। अग्नीघ्र जम्बू द्वीप के सम्राट थे। अग्नीघ्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरू, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया।
कुरू का क्षेत्र भारत नहीं था ? : उक्त 9 पुत्रों में से एक कुरू को अग्नीघ्र ने अंटार्कटिका से लगा इलाका दिया था। पुराणों के अनुसार चतुर्द्वीपी भूगोल के अनुसार धरती के मद्यवर्ती मेरू पर्वत के उत्तर की समस्त भूमि उत्तर कुरू कहलाती है। मेरू के दक्षिण में भारत है और उत्तर में रशिया। उत्तर कुरू अर्थात पामीर के पठार से उत्तरी ध्रुव तक का सारा भू-भाग अग्नीघ्र के पुत्र कुरू का था। पामीर के उत्तर में चीनी तुर्किस्तान का भूखंड है। वह सब और उसके उत्तर में साइबेरिया की जो विस्तृत भूमि है वह सब कुरू के अधीन थी। उनकी भूमि के पास अंटार्कटिक का महासागर है।
भीष्म पर्व के 7वें अध्याय में धृतराष्ट्र ने संजय से कहा कि मेरू के उत्तर तथा पूर्व के भाग में जो कुछ है, उसका वर्णन करो। संजय ने कहा कि नीलगिरि से दक्षिण और मेरू से उत्तर के भाग में उत्तर कुरूवर्ष है। उत्तर कुरू के लोग सदा निरोगी और प्रसन्नचित्त रहते हैं। वे कलाब्ज वृक्ष का रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं। यहां रहने वाले कुरुओं को भारत में उत्तर कुरू कहा गया।
चन्द्रवंशी ययाति के पुरु और पुरू के वंश में हुए कुरू कहां रहते थे... अगले पन्ने पर...
* ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है।ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिंध प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। 1.
पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। भीष्म के बाद पुरु या कुरू वंश की दूसरी शाखा थी, जो भारत के बाहर फैली।प्राचीनकाल में विदेही (अयोध्या) के पश्चिम में कोसल, कोसल के पश्चिम में पांचाल और पांचाल के उत्तर-पश्चिम में कुरुओं का राज्य था।कुरू प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका क्षेत्र आधुनिक हरियाणा (कुरुक्षेत्र) के इर्द-गिर्द था। इसकी राजधानी संभवतः हस्तिनापुर थी। हस्तिनापुर उत्तरप्रदेश में मेरठ के निकट स्थित महाराज हस्ती का बसाया हुआ एक प्राचीन नगर था, जो कौरवों और पांडवों की राजधानी था।महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरू की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरूजांगल, कुरू और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के 3 मुख्य भाग थे। कुरूजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जलाकर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था, इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास का क्षेत्र था।लेकिन इस सबसे पहले कुरुओं का प्राचीन क्षेत्र था हिन्दुकुश के आसपास का क्षेत्र। उक्त क्षेत्र के पूर्व में पांचाल देश था, लेकिन पौरववंशी कुरुओं ने महाभारत काल में लगभग संपूर्ण उत्तर भारत पर अपना आधिपत्य जमा लिया था।राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरू ने शक्ति बढ़ाकर पांचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरू-पंचाल' कहलाया। राजा कुरू के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दसराज्य युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था।इलावंशी हैं कुरू और पुरु : 'पपंचसूदनी' नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरू) के रहने वाले थे। कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवास स्थान भी कुरू देश ही कहलाने लगा।ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में ज्येष्ठ मरीचि थे। मरीचि से कश्यप, कश्यप से विवस्वान, विवस्वान से वैवस्वत मनु और वैवस्वत मनु की पुत्री का नाम था इला। वैवस्वत मनु की संतानें थीं- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। इल उनकी पुत्री थी, जिसे इला भी कहते हैं।इला ने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह किया था जिससे पुरुरवा नामक पुत्र का जन्म हुआ। इसके बाद इला पुरुष बन गई थी। सुद्युम्न बनकर उसने अत्यंत धर्मात्मा 3 पुत्रों से मनु के वंश की वृद्धि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व। इसी कुल में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए।माना जाता है कि उत्तर कुरू लोग ही हिन्दुकुश के दर्रे से आकर भारत में बस गए और वे दक्षिण कुरू के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं के वंश में शांतनु और भीष्म हुए थे। विश्व इतिहास में इन कुरुओं की एक शाखा ने ईरान की ओर और दूसरी शाखा ने भारत की ओर अपनी जड़ें जमाना शुरू कीं।