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Written By अनिरुद्ध जोशी

जम्बूद्वीप के महान सम्राट कुरु

जम्बूद्वीप के महान सम्राट कुरु - जम्बूद्वीप के महान सम्राट कुरु
धरती के महान सम्राट कुरु के वंशजों को भारत में कौरव कहा जाता है जबकि अन्य देशों में इनके वंशजों को अलग-अलग नाम से पुकारा गया है, लेकिन यह इतिहासकारों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि क्या ईरान की प्राचीन जाति कुरोश और अरब के कुरैश भी कुरु के वंशज हैं?
 
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हालांकि भारतीय पुराणों के अनुसार ययाति के 5 पुत्रों में से दो अनु और द्रुह्मु का राज्य अफगानिस्तान से अरब और मिस्र तक था, जबकि पुरु, यदु और तुर्वस का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में था। सम्राट कुरु से कुरु वंश चला। इस वंश से एक से एक प्रतापी राजा हुए और उन्होंने धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर भिन्न-भिन्न संस्कृतियों, धर्म और राज्य की व्यवस्था का विकास किया। यहां उस सम्राट कुरु का जीवन परिचय दिया जा रहा है जिसकी वंशावली नीचे दी गई है। इससे पहले भी कुरु हुए, जो स्वायंभुव मनु के कुल में थे।

ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।

पंचाल : सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक इतिहास की लेखकर शनिशबाला अनुसार ययाति की दो पत्नियां थीं : देवयानी और शर्मिष्ठा। ययाति प्रजापिता ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रहुयु (द्रुहु), अनु और पुरु हुए। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।

 

सम्राट कुरु के जन्म की कथा...


महाभारत के अनुसार हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा था जिसका नाम संवरण था। संवरण वेदों को मानने वाला और सूर्यदेव का उपासक था। संवरण जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था।

एक दिन संवरण एक हिम पर्वत पर हाथ में धनुष-बाण लेकर आखेट के लिए भ्रमण कर रहा था, तो उसे एक अत्यंत ही सुंदर युवती दिखाई दी। वह युवती इतनी सुंदर थी कि संवरण उस पर आसक्त हो गया और वह उसके पास जाकर बोला, 'तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित्त चंचल और व्याकुल हो उठा। क्या तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करोगी... मैं सम्राट हूं, तुम्हें हर तरह से सुखी रखूंगा।'

युवती ने एक क्षण संवरण को देखा और फिर वह अदृश्य हो गई। युवती के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गया। वह धनुष-बाण फेंककर उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा। उसके विलाप के बाद युवती पुन: प्रकट हुई।

वह संवरण की ओर देखती हुई बोली, 'राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूं, पर मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूं। मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूं। मेरा नाम ताप्ती है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।'

युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: विलाप करने लगा। वह बेसुध होकर ताप्ती को पुकारते-पुकारते धरती पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। होश में आने पर उसे ताप्ती के द्वारा कही गई बातें याद आईं और वह मन ही मन सोचता रहा कि वह ताप्ती को पाने के लिए सूर्यदेव की आराधना करेगा। वहीं पर संवरण सूर्यदेव की आराधना करने लगा। धीरे-धीरे सालों बीत गए, संवरण तप करता रहा। आखिर सूर्यदेव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ।

रात के समय संवरण आंखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। तभी उसके कानों में किसी की आवाज सुनाई दी, 'संवरण, तू यहां तप में संलग्न है। तेरी राजधानी आग में जल रही है।'

संवरण फिर भी चुपचाप अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके मन में रंचमात्र भी दुख पैदा नहीं हुआ। उसके कानों में पुन: दूसरी आवाज पड़ी, 'संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग आग में जलकर मर गए।'

किंतु फिर भी वह हिमालय-सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा, उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा, 'संवरण, तेरी प्रजा अकाल की आग में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं।' फिर भी वह दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूं। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?'

संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला, 'देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे ताप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।' सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, 'तथास्तु।'

संवरण अपनी पत्नी ताप्ती के साथ उसी दूसरे राज्य के सुंदर क्षेत्र में रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा और राज्य को भी भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा।

संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और उन्हें राज्य का संपूर्ण हाल बताया। मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से संवरण को स्वप्नलोक से बाहर निकाला और अपने राज्य के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया।

मंत्री की बातें सुनकर संवरण का हृदय कांप गया और उसे इस बात का बोध होने लगा की मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया।

संवरण ने कहा, 'मंत्रीजी। मैं आपका कृतज्ञ हूं, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।' संवरण ताप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुंचा। उसके राजधानी में पहुंचते ही जोरों की वर्षा हुई। सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढंक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी। संवरण और ताप्ती से ही कुरु का जन्म हुआ था।

सम्राट कुरु की वंश परंपरा...


कुरु की वंश परंपरा : कौरव चन्द्रवंशी थे और कौरव अपने आदिपुरुष के रूप में चन्द्रमा को मानते थे। इनके आराध्य शिव और गुरु शुक्राचार्य थे। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ।

पुरुरवा के कौशल्या से जन्मेजय हुए, जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए, प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए, संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए, अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए, सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए, जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए, अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए, अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए, महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए, अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए, अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए, देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए, अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए, ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए, मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए, तंसु के कालिंदी से इलिन हुए, इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए।

दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए, भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए, भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए, सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए, हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए, विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए, अजमीढ़ से संवरण हुए, संवरण के ताप्ती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया।

कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए, विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए, अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए, परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए, भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए, प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए, प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ।

देवापि किशोरावस्था में ही संन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली। शांतनु की गंगा से देवव्रत हुए, जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

भीष्म का वंश आगे नहीं बढ़ा, क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की थी। शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। लेकिन इनका वंश भी आगे नहीं चला। इस तरह कुरु की यह शाखा डूब गई, लेकिन दूसरी शाखाओं ने मगध पर राज किया और तीसरी शाखा ने ईरान पर।

सम्राट कुरु के ईरानी वंशज...


'जाट प्राचीन शासक' (Aryan Tribes and the Rig Veda और Jats the Ancient Rulers (A clan study) के लेखक भीम सिंह दहिया के अनुसार महाराजा कुरु के पुत्र सुघनु के तीन पुत्र परीक्षित, जहानु और सुहोत्र थे। परीक्षित की सातवीं पीढ़ी में भीष्म हुए। जहानु नि:संतान था और तृतीय पुत्र सुहोत्र की आठवीं पीढ़ी में वृषभ हुए, जो कि कुरुवंशी ही कहलाए और पूर्वी भारत बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। इनका ही वंशज जंतु मगध का राजा हुआ। महाभारत के युद्ध में क्षत्रिय वंशों के महाविनाश के बाद उनके वंशज दूर-दूर तक विस्तृत हुए। संभवतः कुरुओं की कुछ शाखाएं उस दौरान भी मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, ईरान, यूरोप, ग्रीक पहुंच गई हों।

जाटों की उत्पत्ति एवं विस्तार (जर्त तरंगिणी) और प्राचीन जाट और खोखर इतिहास के लेखक अटल सिंह खोखर के अनुसार राजा कुरु के नाम से टर्की के प्रांत कुरु (Corch) तथा जांगल (Zonguldak) के मध्य का क्षेत्र कुरु कहलाया।

खोखर के अनुसार खेर एक जाट कबीले का नाम है। इस कुल के लोगों को खेर कहा जाता है तथा खान तो मध्य एशिया की एक विख्यात उपाधि है, जो एक राजा को प्रदान की जाती है, जैसे प्राचीन खाकान तथा मध्य प्राचीन खान। इस पूर्ण सूची में जिन नामों को दिया गया है इनमें खस, खत्ती, खादोबिलय, कन्नड़, कन्नवरण, द्रविड़, चीना, चोल, बब्बर, खेरखान आदि शामिल हैं।

इन कबीलों में खत्री, चीना, चोल (चहल, चाहर), बब्बर और खेरखस जाटों के कबीले हैं। चोल मध्य एशिया और दक्षिण भारत में भी हैं। मृच्छ्कटिका में इनके राजा का नाम खेरखान कहा गया है। यहां खेरसाओं और खेरखान का एक ही अर्थ है- 'खेर लोगों का राजा'।

भारत, मध्य एशिया, ईरान, यूरोप में कुरु, कुर, केर, कर्ब, कुरूश, कारा और खिर, खैर, खर, खैरबा, खरब का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कुरु और खैर दोनों वंश एक ही समय पर साथ-साथ पाए जाते हैं। हालांकि उच्चारण में मध्य एशिया और यूरोप में 'क' वर्ण 'ख' वर्ण में बदल सकता है, किंतु यह बदला नहीं है। दोनों वंशों की अपनी अलग पहचान के कारण संभवतः इतिहासकारों द्वारा भी यह सावधानी बरती गई है।

दिवोदास सुदास का पितामह था। सुदास का राज्य दक्षिण में चंबल तक, उत्तर में हिमालय तक, पूर्व में कोसल तक फैला था। पांचाल राज्य में सुदास के बाद सहदेव, सोमक और जंतु के नाम मिलते हैं, जंतु सुदास का प्रपौत्र था।

उसके बाद 14 पीढ़ी तक किसी शासक का नाम नहीं मिलता जबकि वैदिक साहित्य में मिलता है कि पंचाल राज के उत्तराधिकारी सोमव को संवरण ने जीता था। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था।

इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दशराज्य (7200 ईसा पूर्व) युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था। सुदास और दक्षिण के पंचाल राजा द्रुपत के बीच 11 पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। जंतु से 15वीं पीढ़ी में राजा पृषत का उल्लेख मिलता है। जंतु के बाद पंचाल पर कौरवों का आधिपत्य हो गया था।

संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल-राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया। राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। कुरु के पश्चात उनके पुत्र परीक्षित हुए। जारी...