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Written By WD

उत्तर कुरुओं का कुरुक्षे‍त्र था 'उत्तरी ध्रुव'

उत्तर कुरु और दक्षिण कुरुओं का क्षेत्र

उत्तर कुरुओं का कुरुक्षे‍त्र था ''उत्तरी ध्रुव'' -
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कुरु और कुरुओं की उत्पत्ति के बारे में जानना जरूरी है। जिस तरह देश में भरत नाम से कई राजा हुए उसी तरह कुरु नाम से भी कई राजा हुए और उनका वंश चला। पुराणों में दो तरह के कुरुओं का उल्लेख मिलता है। पहले को उत्तर कुरु कहते हैं और दूसरे को दक्षिण कुरु।

मेरू पर्वत अर्थात हिमालय पर्वतमालाओं के उत्तर में रहने वालों को उत्तर कुरु और हिमालय के दक्षिण में रहने वालों को दक्षिण कुरु कहा गया। दोनों के बीच भी कुरुओं का एक क्षेत्र था जिसे मध्य कुरु क्षेत्र कहा गया।

यहां कुरुओं की चर्चा करना जरूरी है, क्योंकि कुरुओं से ही कुरोश, कुरैशी, कुषाण और कौरव है। कुरुओं से ही कश्मीर, कुनार, कंदहार, काबुल, हिन्दुकुश, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, कुनलुन, खुरासन, केर्मन, कुर्दिस्तान, कुत, कर्बला, खुर्रम, कुवैत, कस्र, कतर, कसरा, कासिम, खुर्माह, क़ुर्य्याह, करारा और अंत में काबा है। आओ जानते हैं कुरुओं का कुरुक्षे‍त्र....

उत्तर कुरु : लोकमान्य तिलक के अंग्रेजी ग्रंथ 'ओरियन' के अनुसार आर्यों का आदिदेश उत्तरी ध्रुव था। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश को ही प्राचीन साहित्य में विशेषत: रामायण और महाभारत में उत्तर कुरु कहा गया है और यही आर्यों की आदि भूमि थी।

ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर कुरु को हिमालय के पार माना गया है और उसे राज्यहीन देश बताया गया है- 'उत्तरकुरव: उत्तरमद्राइति वैराज्या यैव ते।' (7)

'वहां से आगे जाने पर उत्तम समुद्र मिलेगा जिसके बीच में सुवर्णमय सोमगिरि नामक पर्वत है। वह देश सूर्यहीन है किंतु सूर्य के न रहने पर भी उस पर्वत के प्रकाश से सूर्य के प्रकाश के समान ही वहां उजाला रहता है।' -(रामायण)। उत्तरी ध्रुव पर कुछ इसी तरह की छटा रहती है।

महाभारत सभा पर्व में भी उत्तर कुरु को अगम्य देश माना है। बाणभट्ट ने अपने ग्रंथ 'हर्षचरित' में भी इस स्थान का जिक्र किया है।

भीष्म पर्व के 7वें अध्याय में धृतराष्ट्र ने संजय से कहा कि मेरू के उत्तर तथा पूर्व के भाग में जो कुछ है, उसका वर्णन करो। संजय ने कहा कि नीलगिरि से दक्षिण और मेरू से उत्तर के भाग में उत्तर कुरुवर्ष है। उत्तर कुरु के लोग सदा निरोगी और प्रसन्नचित्त रहते हैं। वे कलाब्ज वृक्ष का रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं। यहां रहने वाले कुरुओं को भारत में उत्तर कुरु कहा गया।

असल में उत्तर कुरू कौन थे, जानिए अगले पन्ने पर...


उत्तर कुरु वंश : ब्रह्माजी से उत्पन्न स्वायंभुव मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत थे। प्रियव्रत से अग्नीघ्र हुए। अग्नीघ्र जम्बू द्वीप के सम्राट थे। अग्नीघ्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया।

उक्त 9 पुत्रों में से एक कुरु को अग्नीघ्र ने अंटार्कटिका से लगा इलाका दिया था। पुराणों के अनुसार चतुर्द्वीपी भूगोल के अनुसार धरती के मध्य मेरू पर्वत के उत्तर की समस्त भूमि उत्तर कुरु कहलाती है। मेरू के दक्षिण में भारत है और उत्तर में रशिया। उत्तर कुरु अर्थात पामीर के पठार से उत्तरी ध्रुव तक का सारा भू-भाग अग्नीघ्र के पुत्र कुरु का था। पामीर के उत्तर में चीनी तुर्किस्तान का भूखंड है। वह सब और उसके उत्तर में साइबेरिया की जो विस्तृत भूमि है वह सब कुरु के अधीन थी। उनकी भूमि के पास अंटार्कटिका का महासागर है।

अगले पन्ने पर दक्षिण कुरू कौन थे, जानिए...


दक्षिण कुरु वंश : कौरव चन्द्रवंशी थे और कौरव अपने आदि पुरुष के रूप में चन्द्रमा को मानते थे। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।

कुरु के वंश में आगे चलकर राजा प्रतीप हुए जिनके दूसरे पुत्र थे शांतनु। शांतनु का बड़ा भाई बचपन में ही शांत हो गया था। शांतनु के देवव्रत (भीष्म) हुए। भीष्म ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए यह वंश आगे नहीं चल सकता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कुरु का वंश नष्ट हो गया। कुरु और राजा प्रतीप के बीच जो राजा हुए उनके और भी कई पुत्र थे जिनसे कुरु का वंश चला।

दक्षिण कुरुओं का क्षेत्र कहां था...


उत्तर कुरुओं का दक्षिण के कुरुओं से क्या संबंध था, यह तो शोध का विषय हो सकता है। दक्षिण कुरुओं का प्रारंभिक राज्य हिन्दुकुश से कश्मीर तक था। बाद में उन्होंने पांचालों पर आक्रमण करके अपना राज्य विस्तार हरियाणा तक कर लिया और कुछ क्षेत्र यादवों और कोशलों का भी क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया।

महाभारतकाल में संपूर्ण अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत का कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, झारखंड, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का संपूण क्षेत्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उनके अधीन ही था।

हालांकि इन सभी क्षेत्रों में कुरुओं के अलावा पंचालों, कोशलों, विदेही, यादवों आदि का शासन था। इससे पूर्व कुरु के वंशज पुरु के दक्षिण में यदु, पूर्व में ‍तुर्वसु, उत्तर में अनु, पश्‍चिम में द्रुहुओं का राज्य था और दक्षिण भारत में अन्य राजाओं और उनके वंशजों का राज था।

पुरुओं से ही कुरुओं की उ‍त्पत्ति हुई। पुरु और यदुओं का राज सरस्वती के पश्चिम किनारे से सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे तक था। अनु और द्रुहुओं का राज्य सिन्धु के उस पार अर्थात पश्चिमी तट पर था। इधर तुर्वसुओं का राज गंगा और ब्रह्मपुत्र के किनारे था।

* ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।

राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल- राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया। राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दसराज्ञ (या दशराज्य) युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था।

कुरु की राजधानी : महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के 3 मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जलाकर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था, इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास का क्षेत्र था।

एक तीसरे कुरू कौन थे जानिए...


इलावंशी हैं कुरु और पुरु : ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में ज्येष्ठ मरीचि थे। मरीचि से कश्यप, कश्यप से विवस्वान, विवस्वान से वैवस्वत मनु और वैवस्वत मनु की पुत्री का नाम था इला। वैवस्वत मनु की संतानें थीं- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। इल उनकी पुत्री थी, जिसे इला भी कहते हैं। तीनों कुरुओं के कुल के बारे में विरोधाभाषिक वर्णन है।

'पपंचसूदनी' नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थे। कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवास स्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा।

इला ने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह किया था जिससे पुरुरवा नामक पुत्र का जन्म हुआ। माना जाता है कि इसके बाद इला पुरुष बन गई थी। पुरुष बनकर उसने अत्यंत धर्मात्मा 3 पुत्रों से मनु के वंश की वृद्धि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व। इसी कुल में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए।

माना जाता है कि उत्तर कुरु लोग ही हिन्दुकुश के दर्रे से आकर भारत में बस गए और वे दक्षिण कुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं के वंश में शांतनु और भीष्म हुए थे। विश्व इतिहास में इन कुरुओं की एक शाखा ने ईरान की ओर और दूसरी शाखा ने भारत की ओर अपनी जड़ें जमाना शुरू कीं।

हिन्दुकुश से कश्मीर तक कुरुओं की बसाहट कैसे हुई? क्या कुरुओं से पहले यहां कोई और रहता था या कि यह स्थान हिमालय से लगा होने के कारण निर्जन पड़ा था? दूसरी ओर क्या आज भी कुरुओं के वंशज अफगानिस्तान में रहते हैं? इन सवालों के जवाब अगले अंक में।