दादा धूनीवाले (जिन्हें श्री दादाजी धूनीवाले के नाम से भी जाना जाता है) भारत के एक अत्यंत पूजनीय संत और आध्यात्मिक गुरु थे। उनकी जीवन-कथा चमत्कारों और जनश्रुतियों से भरी हुई है। दादाजी धूनीवाले को उनके भक्तों द्वारा भगवान शिव का अवतार माना जाता है। वह एक अघोरी/परमहंस संत थे जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन धूनी (अग्नि की निरंतर जलती हुई वेदी) के सामने बैठकर बिताया, इसीलिए उन्हें 'धूनीवाले' कहा गया। आओ जानते हैं उनकी पुण्यतिथि पर उनके जन्म और मृत्यु की कहानी।
प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष की त्रयोदशी के दिन धूनीवाले दादाजी का निर्वाण दिवस मनाया जाता है। इस दिन दादाजी ने समाधि ली थी। देशभर में दादाजी के भक्तों की संख्या लाखों में हैं।
दादा धूनीवाले: जन्म, जीवन और महासमाधि की कहानी
1. जन्म और प्रारंभिक जीवन (जनश्रुतियाँ)
दादा धूनीवाले के जन्म और बाल्यकाल के बारे में कोई प्रामाणिक या लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है। उनका जीवन रहस्यमय और चमत्कारी घटनाओं से भरा रहा है।
जन्म: जनश्रुतियों के अनुसार, उनका जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) जिले के श्रीखेड़ा नामक स्थान पर एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था।
बाल्यकाल: कहा जाता है कि बचपन में उनका नाम केशवानंद था। बहुत कम उम्र में ही, उन्होंने सांसारिक जीवन त्याग दिया और सत्य की खोज में निकल पड़े।
पहला प्रकट होना: पहली बार उन्हें लगभग 1890-95 के आसपास खामगाँव, महाराष्ट्र में देखा गया था, जब उनकी आयु लगभग 25 वर्ष की थी।
नामकरण: उन्होंने कभी किसी को अपना नाम नहीं बताया, लेकिन क्योंकि वह हमेशा एक धूनी जलाए रखते थे और उसका भस्म (राख) भक्तों को प्रसाद के रूप में देते थे, इसलिए उन्हें 'धूनीवाले बाबा' या 'दादाजी धूनीवाले' के नाम से जाना जाने लगा।
पहचान: उनका व्यक्तित्व अत्यंत तेजस्वी और प्रभावशाली था। वह हमेशा कमंडल और चिमटा साथ रखते थे, और उनके माथे पर चंदन का टीका लगा होता था।
2. चमत्कारी जीवन और यात्रा
दादाजी ने अपने जीवनकाल में संपूर्ण भारत की पैदल यात्रा की। उनके जीवन के कई चमत्कारी किस्से भक्तों के बीच प्रचलित हैं:
सेवा और भस्म: दादाजी स्वयं कोई सेवा नहीं लेते थे, बल्कि भक्तों को धूनी की भस्म (राख) देते थे, जिससे कई लोगों के रोग और कष्ट दूर हुए।
जल का चमत्कार: कहा जाता है कि उन्होंने एक बार अपनी धूनी की अग्नि को पानी में भी जलाकर दिखाया था, यह दर्शाते हुए कि वह तत्वों पर नियंत्रण रखते थे।
भोजन की शक्ति: वह अक्सर बिना किसी भौतिक भोजन के कई-कई दिनों तक ध्यान में लीन रहते थे, और केवल भक्तों द्वारा लाई गई एक चुटकी भस्म ग्रहण करते थे।
गुरु परंपरा: दादाजी ने अपने बाद अपनी आध्यात्मिक गद्दी को जारी रखने के लिए किसी शिष्य को नामित नहीं किया, लेकिन उनके द्वारा माखनलाल (जिन्हें 'छोटे दादाजी' के नाम से जाना जाता है) को आशीर्वाद दिया गया था।
3. महासमाधि (मृत्यु) की कहानी
दादाजी धूनीवाले ने अपना शरीर अपनी इच्छा से त्याग किया, जिसे उनके भक्तों द्वारा महासमाधि कहा जाता है।
स्थान: मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में।
समय: मार्गशीर्ष माह (अगहन) की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि, संवत 1989 (दिसंबर 1930)। मार्गशीर्ष माह में (मार्गशीर्ष सुदी 13) के दिन सन् 1930 में दादाजी ने खंडवा शहर में समाधि ली। यह समाधि रेलवे स्टेशन से 3 किमी की दूरी पर स्थित है।
घटना: खंडवा में एक भक्त के घर पर, दादाजी ने अपने कुछ प्रिय भक्तों को बुलाया। उन्होंने सबको बताया कि वह अब इस शरीर को त्यागने जा रहे हैं। उन्होंने भक्तों से कहा कि उनके जाने के बाद उनके पार्थिव शरीर को धूनी के पास ही दफनाया जाए।
महासमाधि: इसके बाद उन्होंने सबको शांति से बैठने को कहा और स्वयं पद्मासन लगाकर ध्यान में लीन हो गए। कुछ देर बाद, उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
समाधि स्थल: खंडवा में उनके महासमाधि स्थल पर आज श्री दादाजी धूनीवाले दरबार नामक एक विशाल और प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ उनकी धूनी आज भी निरंतर जल रही है।
दादाजी धूनीवाले का जीवन यह संदेश देता है कि ईश्वर को पाने के लिए बाह्य आडंबरों से अधिक निस्वार्थ प्रेम, सेवा और आत्म-तपस्या आवश्यक है।
कैसे पहुंचे:
सड़क मार्ग- साथ ही इंदौर से 135 किमी, भोपाल 175 किमी के साथ-साथ रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग से आप खंडवा पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग- यहां पहुंचने के लिए रेल मार्ग से खंडवा मध्य एवं पश्चिम रेलवे का एक प्रमुख स्टेशन है तथा भारत के हर भाग से यहां पहुंचने के लिए ट्रेन उपलब्ध है।
हवाई अड्डा- यहां से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 140 किमी की दूरी पर स्थित है।