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Written By WD

'आत्मा' के बारे में 10 जानकारी

''आत्मा'' के बारे में 10 जानकारी -
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तुम्हें और मुझे ही आत्मा कहा जाता है। तुम्हारे और हमारे ही नाम रखे जाते हैं। जब हम शरीर छोड़ देते हैं तो कुछ लोग तुम्हें या मुझे भूतात्मा मान लेते हैं और कुछ लोग कहते हैं कि उक्त आत्मा का स्वर्गवास हो गया। 'मैं हूँ' यह बोध ही हमें आत्मवान बनाता है ऐसा वेद, गीता और पुराणों में लिखा है।

'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- गीता

वेद-पुराण और गीता अनुसार आत्मा अजर-अमर है। आत्मा एक शरीर धारण कर जन्म और मृत्यु के बीच नए जीवन का उपभोग करता है और पुन: शरीर के जीर्ण होने पर शरीर छोड़कर चली जाती है। आत्मा का यह जीवन चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि वह मुक्त नहीं हो जाती या उसे मोक्ष नहीं मिलता।

प्रत्येक व्यक्ति, पशु, पक्षी, जीव, जंतु आदि सभी आत्मा हैं। खुद को यह समझना कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। यह आत्मज्ञान के मार्ग पर रखा गया पहला कदम है।

आगे पढ़ें, कितने प्रकार की होती हैं आत्माएं...


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आत्मा के तीन स्वरूप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, उस उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।

84 लाख योनियां : पशु योनि, पक्षी योनि, मनुष्य योनि में जीवन-यापन करने वाली आत्माएं मरने के बाद अदृश्य भूत-प्रेत योनि में चली जाती हैं। आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं। ऐसी 84 लाख योनियां हैं, जिसमें कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव आदि सभी शामिल हैं।

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं- पेड़-पौधे- 30 लाख, कीड़े-मकौड़े- 27 लाख, पक्षी- 14 लाख, पानी के जीव-जंतु- 9 लाख, देवता, मनुष्य, पशु- 4 लाख, कुल योनियां- 84 लाख।

आत्मा शरीर किस तरह छोड़ती है...आगे पढ़ें...


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शरीर साधारणत: वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है, परंतु बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए तब अल्पायु में ही शरीर त्यागना पड़ता है। जब मनुष्य मरने को होता है, तो उसकी समस्त बाहरी शक्तियां एकत्रित होकर अंतरमुखी हो जाती हैं और फिर आत्मा स्थूल शरीर से बाहर निकल पड़ती है।

मुख, नाक, आंख, कान प्राण उत्सर्जन के प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट-वृत्ति के लोगों के प्राण मल-मूत्रों के मार्ग से निकलते देखे गए हैं। योगी और सत्कर्म में रत आत्मा ब्रह्म-रन्ध्र से प्राण त्याग करती है।

शरीर छोड़ने के बाद आत्मा क्या करती है...


मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट कर जाती है। यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है, जो दिखाई नहीं देता। खुद मृतात्मा को भी इस शरीर के होने की बस अनुभूति होती है लेकिन कुछ आत्माएं ही इस शरीर को देख पाती हैं।

इस दौरान मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है और मैं हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता हूं। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद आत्मा अपने मृत शरीर के आसपास ही मंडराता रहता है। उसके शरीर के आसपास एकत्रित लोगों के वह कुछ कहना चाहता है लेकिन कोई उसकी सुनता नहीं है।

मृत आत्मा खुद को मृत नहीं मानकर अजीब से व्यवहार भी करता है। वह अपने अंग-प्रत्यंगों को हिलाता-डुलाता है, हाथ-पैर को चलाता है, पर उसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि वह मर गया है। उसे लगता है कि शायद यह स्वप्न चल रहा है लेकिन उसका भ्रम मिट जाता है तब वह पुन: मृत शरीर में घुसने का प्रयास करता है लेकिन वह उसमें सफल नहीं हो पाता।

जब तक मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है, तब तक जीव बार-बार उसके शरीर के पास मंडराता रहता है। जला देने पर वह उसी समय निराश होकर दूसरी ओर मन को लगाने लग जाता है, किंतु गाड़ देने पर वह उस शरीर का मोह नहीं छोड़ पाता और बहुत दिनों तक उसके इधर-उधर फिरा करता है।

अधिक माया-मोह के बंधन में अधिक दृढ़ता से बंधे हुए मृतक प्राय: श्मशानों में बहुत दिनों तक चक्कर काटते रहते हैं। शरीर की ममता बार-बार उधर खींचती है और वे अपने को सम्भालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस-पास रुदन करते रहते हैं। कई ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों के स्थान पर प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं।

इस मामले में उनकी धारणा कार्य करती है कि वह किस तरह की धारणा और विश्वास लेकर मरे हैं।

मरने या शरीर छोड़ने के बाद कहां जाती है आत्मा...


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पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग।

अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।

यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।

सामान्यजनों ने देह त्यागी है तो इस मामले में उनकी धारणा कार्य करती है कि वे किस तरह की धारणा और विश्वास लेकर मरे हैं तब वे उसी अनुसार गति करते हैं। जैसे बचपन से यह धारणा मजबूत है कि मरने के बाद कोई यमदूत लेने आएंगे तो उसे सच में ही यमदूत नजर आते हैं, लेकिन जिनको यह विश्वास दिलाया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति गहरी नींद में चला जाता है तो ऐसे लोग सच में ही नींद में चले जाते हैं।

अगले पन्ने पर जानिए कैसा है आत्मा का रंग...


शास्त्र अनुसार हमारे शरीर में स्थित है सात प्रकार के चक्र। ये सातों चक्र हमारे सात प्रकार के शरीर से जुड़े हुए हैं। सात शरीर में से प्रमुख हैं तीन शरीर- भौतिक, सूक्ष्म और कारण। भौतिक शरीर लाल रक्त से सना है जिसमें लाल रंग की अधिकता है। सूक्ष्म शरीर सूर्य के पीले प्रकाश की तरह है और कारण शरीर नीला रंग लिए हुए है।

कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं आत्मा का रंग है। नीले रंग के प्रकाश के रूप में आत्मा ही दिखाई पड़ती है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा की उपस्थिति को सूचित करता है। आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार 'पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र ज्योतिस्वरूप सफेद मानते हैं।'

आत्मा के लिए कौन-सा दिन है महत्वपूर्ण, जानिए


भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। पितृ पक्ष में पितरों की मरण-तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता हैं जिन्हें नहीं जानते हैं।

इसके अलावा, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन में पितरों को याद किया जाता है। पितरों और पितृलोक के संबंध में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़िए... पितृयज्ञ: पितरों की तृप्ति

अगले पन्ने पर, क्या इच्छा अनुसार जन्म और मृत्यु ले सकते हैं...


अपनी इच्छा से शरीर त्यागना आसान है लेकिन इच्छा से शरीर धारण करना मुश्किल। फिर भी जो व्यक्ति इच्छा से शरीर छोड़ना सीख जाता है वह इच्छानुसार जन्म भी ले सकता है।

इच्छा-मृत्यु शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख महाभारत में मिलता है जिसका अर्थ अपनी मर्जी से मृत्यु का वरण यानी शरीर का त्याग कर देना। भीष्म पितामह ने तीरों की सेज पर लेटकर अपनी इच्छा से मौत को बुलाया था।

शास्त्र अनुसार जीव स्वयं अपनी इच्छा, भाव और कर्म से संस्कारों के वशीभूत होकर जन्म ग्रहण करता है। लेकिन यह इच्‍छाभाव उसके जीवनपर्यंत किए गए कर्म और भोगे गए दुख- सुख से उपजते हैं जिसका उसे भी ज्ञान नहीं होता। ये बीज रूप में मृत्य के साथ चले जाते हैं और व्यक्ति फिर वहीं जन्म लेता है जैसे कि उसका पिछला जन्म निर्धारित करता है। इसे समझना बहुत आसान है यह बिल्कुल गणित के प्रश्न जैसा है जिसे हल किया जा सकता है। अधिकतर लोग प्रकृति के इसी नियम से बंधे रहकर जन्म लेते हैं।

लेकिन बहुत कम ही लोग हैं, जो जन्म लेने का स्थान चयन करके ही जन्म लेते हैं। शंकराचार्य को परकाय प्रवेश सिद्धि प्राप्त थी। ऐसे व्यक्ति ही अपनी इच्‍छा से कहीं पर भी जन्म ले सकता है। किसी के भी गर्भ में प्रवेश कर सकता है।

अगले पन्ने पर, मौत का अनुभव और शरीर में कहां रहती है आत्मा


मृत्यु का करीबी अनुभव करने वाले लोगों के अनुभवों पर आधार पर दो प्रख्यात वैज्ञानिकों ने मृत्यु के अनुभव पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। प्राणी की तंत्रिका प्रणाली से जब आत्मा को बनाने वाला क्वांटम पदार्थ निकलकर व्यापक ब्रह्मांड में विलीन होता है तो मृत्यु जैसा अनुभव होता है।

इस सिद्धांत के पीछे विचार यह है कि मस्तिष्क में क्वांटम कंप्यूटर के लिए चेतना एक प्रोग्राम की तरह काम करती है। यह चेतना मृत्यु के बाद भी ब्रह्मांड में परिव्याप्त रहती है।

'डेली मेल' की खबर के अनुसार एरिजोना विश्वविद्यालय में एनेस्थिसियोलॉजी एवं मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर एमरेटस एवं चेतना अध्ययन केंद्र के निदेशक डॉ. स्टुवर्ट हेमेराफ ने इस अर्ध धार्मिक सिद्धांत को आगे बढ़ाया है। यह परिकल्पना चेतनता के उस क्वांटम सिद्धांत पर आधारित है, जो उन्होंने एवं ब्रिटिश मनोविज्ञानी सर रोजर पेनरोस ने विकसित की है।

इस सिद्धांत के अनुसार हमारी आत्मा का मूल स्थान मस्तिष्क की कोशिकाओं के अंदर बने ढांचों में होता है जिसे माइक्रोटयूबुल्स कहते हैं। दोनों वैज्ञानिकों का तर्क है कि इन माइक्रोटयूबुल्स पर पड़ने वाले क्वांटम गुरुतत्वाकर्षण प्रभाव के परिणामस्वरूप हमें चेतनता का अनुभव होता है।

वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को आर्वेक्स्ट्रेड ऑब्जेक्टिव रिडक्शन (आर्च-ओर) का नाम दिया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी आत्मा मस्तिष्क में न्यूरॉन के बीच होने वाले संबंध से कहीं व्यापक है। दरअसल, इसका निर्माण उन्हीं तंतुओं से हुआ जिससे ब्रह्मांड बना था। यह आत्मा काल के जन्म से ही व्याप्त थी।

अखबार के अनुसार यह परिकल्पना बौद्ध एवं हिन्दुओं की इस मान्यता से काफी कुछ मिलती-जुलती है कि चेतनता ब्रह्मांड का अभिन्न अंग है। इन परिकल्पना के साथ हेमराफ कहते हैं मृत्यु जैसे अनुभव में माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं। लेकिन इसके अंदर के अनुभव नष्ट नहीं होते। आत्मा केवल शरीर छोड़ती है और ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है।

हेमराफ कहना है कि हम कह सकते हैं कि दिल धड़कना बंद हो जाता है। रक्त का प्रवाह रुक जाता है। माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं। माइक्रोटयूबुल्स में क्वांटम सूचना नष्ट नहीं होती। यह नष्ट नहीं हो सकती। यह महज व्यापक ब्रह्मांड में वितरित एवं विलीन हो जाती हैं।

उन्होंने कहा कि यदि रोगी बच जाता है तो यह क्वांटम सूचना माइक्रोटयूबुल्स में वापस चली जाती है तथा रोगी कहता है कि उसे मृत्यु जैसा अनुभव हुआ है। हेमराफ यह भी कहते हैं कि यदि रोगी ठीक नहीं हो पाता और उसकी मृत्यु हो जाती है तो यह संभव है कि यह क्वांटम सूचना शरीर के बाहर व्याप्त है।

अंत में कैसे याद कर सकते हैं पिछले जन्म की बातों को...


जाति स्मरण का प्रयोग : जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखें बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।

दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मेमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाएं। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मेमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।

इस प्रयोग के पूर्व ध्यान का अभ्यास करना जरूरी है।