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Written By WD

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

मुद्दत मेहमाँ चिराग़ाँ चाक गरेबाँ
SubratoND
- मिर्ज़ा गालि

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए,
जोशे-क़दह से बज़्म, चिराग़ाँ किए हुए।

फिर बज़्म-ए-एहतियात के रुकने लगा है दम,
बरसों हुए हैं, चाक गरेबाँ किए हुए।

दिल फिर तबाफ़े-कूए-मलामत को जाए है,
पिन्दार का सनम-कदा वीराँ किए हुए।

माँगे है फिर किसी को लबे-बाम पर हवस,
जुल्फ़ें-नियाह रुख पे परेशाँ किए हुए।

इक नौ-बहारे-नाज़ को ताके है फिर निगाह,
चेहरा फ़रोग़े मय से गुलिस्तां किए हुए।

फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें,
सर ज़ेरे-बारे-मिन्नतें-दरबाँ किए हुए।

जी ढ़ूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,
बैठे रहें तसव्‍वुर-ए-जानाँ किए हुए।

'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि हम जोशे-अश्क से,
बैठे हैं फिर तहैया-ए-तूफाँ किए हुए।