मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
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मिर्ज़ा गालिबमुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए,जोशे-क़दह से बज़्म, चिराग़ाँ किए हुए। फिर बज़्म-ए-एहतियात के रुकने लगा है दम, बरसों हुए हैं, चाक गरेबाँ किए हुए।दिल फिर तबाफ़े-कूए-मलामत को जाए है,पिन्दार का सनम-कदा वीराँ किए हुए।माँगे है फिर किसी को लबे-बाम पर हवस,जुल्फ़ें-नियाह रुख पे परेशाँ किए हुए। इक नौ-बहारे-नाज़ को ताके है फिर निगाह,चेहरा फ़रोग़े मय से गुलिस्तां किए हुए।फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें,सर ज़ेरे-बारे-मिन्नतें-दरबाँ किए हुए।जी ढ़ूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए।'
ग़ालिब' हमें न छेड़ कि हम जोशे-अश्क से, बैठे हैं फिर तहैया-ए-तूफाँ किए हुए।