दीपावली : दीपों की पंक्ति का पर्व
- दाती मदन महाराज
भारत वर्ष पर्वों का देश है। साल के 365 दिनों में शायद ही कोई मनहूस दिन होता है जिस दिन कोई पर्व-त्योहार नहीं मनाया जाता। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि है भी तो यह आर्यों की भूमि आर्यावर्त। इसीलिए देवताओं को भी कहना पड़ा है धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे। देवताओं की भी इच्छा होती है कि वे भारत में जन्म लें। किंतु अफसोस है कि उसी भारत भूमि की आधुनिक पीढ़ी कहलाने वाली संतानें, भारतीय सभ्यता ही नहीं संस्कृति को भी भूलकर पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति का दास बनने में अपना गौरव समझने लगी है।हमारी संस्कृति में जन्मदात्री माँ और मातृभूमि दोनों का समान स्थान माना गया है। किंतु आज के कुछ नवयुवक इस स्वतंत्र भारत में अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़ पाश्चात्य सभ्यता को अपनाने का कार्य धड़ल्ले से कर रहे हैं। ऐसा करके वे स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही कर रहे हैं न कि सदुपयोग।त्योहारों में कुछ ऐसे त्योहार हैं जो सार्वजनिक होते हैं या जिन्हें अधिकतर लोग मनाते हैं। जैसे होली, दिवाली, कृष्ण जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, विवाह पंचमी, बसंत पंचमी, नवरात्राएँ। इनके अलावा दक्षिण भारत के कुछ विशिष्ट पर्व होते हैं तथा कुछ क्षेत्रीय पर्व भी हैं। पर्वों में ही ईदुल जुहा, ईदुल फितर के अतिरिक्त देवताओं और महापुरुषों की जयंतियाँ भी मनाई जाती हैं। सामान्यतः सब पर्वों की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। जिस प्रकार ईदुल जुहा आदि मुसलमान समुदाय के त्योहार हैं, उसी प्रकार होली, दिवाली या अन्य पर्व केवल भारत ही नहीं, भारत से बाहर रहने वाले हिन्दू भी मनाते हैं। दीपावली का शाब्दिक अर्थ दीपों की पंक्ति या समूह है। उस दिन लोग बड़े उत्साह व उमंग के साथ घर, दुकान, गली, रास्ते, मकान, भवन आदि की सफाई कर सायंकाल सैकड़ों-हजारों दीप जलाकर सजावट करते हैं। इसीलिए यह त्योहार दीपावली के नाम से जाना जाता है। यों तो लोग दीपक प्रतिदिन घर, दुकान, देवालय और पूजन काल में जलाते हैं। किंतु वह दीपावली नहीं कहलाता। अतः दीपावली कोई विशेष उद्देश्य को लेकर है। यह उद्देश्य जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक है।युगों से चली आ रही पारंपरिक पर्वों के लिए कोई न कोई शास्त्रीय या पारंपरिक व्यवस्था ही आधार मानी जाती है। दीपावली प्रायः दोनों सिद्धांतों का आधार है। प्रथम यद्यपि भगवान ने गीता में कहा है कि महीनों में मार्गशीर्ष मैं ही हूँ। फिर भी उन्हीं भगवान के वचनानुसार बारह महीनों में कार्तिक मास धार्मिक दृष्टि से उत्कृष्टतम माना गया है। चातुर्मास्य जो भगवान का विश्राम या शयन समय माना जाता है, उसका अंत कार्तिक में ही होता है और देवोत्थान एकादशी को भगवान का जागरण दिन माना जाता है। इस महीने में धर्मनिष्ठ लोग गंगा, काशी, प्रयाग, हरिद्वार में गंगातट पर महीने भर निवास कर पवित्र स्नान का लाभ उठाते हुए अपने मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।दीपावली अमावस्या को ही मनाई जाती है। उसका भी कुछ विशेष तर्क है। सूर्य चंद्रमसौ सह परः सन्निकर्ष अमावस्या। सूर्य और चंद्रमा दोनों अत्यंत सन्निधि में जिस दिन आते हैं, वह अमावस्या तिथि है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चंद्रमा की कला क्रमशः क्षीण होती हुई अमावस्या को सूर्य और चंद्र दोनों अत्यंत समीप होने से चंद्रमा कलाहीन होकर पुनः सूर्य से पृथक होता हुआ नवीन कला को धारण करता है। इसी अमावस्या से चंद्रमा की नवीन किरणें प्राप्त होती हैं। अतः अमावस्या को अंधकार का अंत और प्रकाश का प्रारंभ दोनों का प्रतीक कहा जा सकता है।शास्त्रीय और लौकिक उपाख्यान है कि भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम राम लंका पर विजय प्राप्त कर जब अयोध्या आए तो खुशी में लोगों ने घर-घर, गलियों और मार्गों पर दीपक जलाकर विजयोगास का प्रदर्शन किया था। दीपक लक्ष्मी का प्रतीक है। लक्ष्मीजी प्रकाश, स्वच्छता और पवित्रता को अधिक पसंद करती हैं। अतः दीपावली के साथ ही लक्ष्मी पूजा भी प्रारंभ हुई जो आजकल दीपावली का दूसरा नाम लक्ष्मी पूजन का विशेष त्योहार भी कहा जाता है।उगा वर्गों में तथा पूर्व में राजाओं के यहाँ शारदीय पूर्णिमा को प्रदोष काल में लक्ष्मी पूजन किया जाता था। राजा लोग रात्रिभर पाशा खेलते थे। और रात्रि जागरण करते थे। उस रात्रि को कोजागरा भी कहते हैं। शास्त्रों में कोजागरा प्रदोषे लक्ष्मी पूजन का भी उगेख है। दीपावली की लक्ष्मी पूजा प्रारंभ में वणिक्वृत्ति वालों की थी किंतु धीरे-धीरे सभी ने दीपावली को ही लक्ष्मी पूजन करना प्रारंभ किया। आज सारा समाज ही दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन बड़े उत्साह के साथ करता है।दीपावली की तैयारी में लोग दस-पंद्रह दिन पूर्व से ही लग जाते हैं। लोग मकान, भवन की सफाई, लिपाई-पुताई व चिनाई करवाने लगते हैं। मकानों में नई चमक आ जाती है। लोग बरसात से कुप्रभावित घरों व भवनों का संस्कार कर उन्हें नवीन रूप देते हैं।यों तो गरीब से अमीर तक सबके सब दीपक जलाकर उत्साह मनाते हैं, लक्ष्मी पूजन करते हैं, धनवानों, सेठ-साहूकारों के महलों और दुकानों की सजावट निराली रहती है। लक्ष्मी माता मानों साक्षात विराजमान होकर उस अनोखी छटा को चार चाँद लगा देती है। लक्ष्मी पूजन के बाद एक-दूसरे का प्रेम मिलन, मिठाई वितरण आदि प्रक्रिया लोगों में आपसी सौहार्द तथा नए जीवन का संचार कर देती है।दीपावली त्योहार की शुरुआत व समापन की अवधि पाँच दिनों की होती है। पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है और भ्रातृ द्वितीया को उनका समापन होता है।