* यजुर्वेद संहिता का मंत्र शिवसंकल्पमस्तु
यजुर्वेद संहिता का मंत्र 'तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु' अर्थात मेरे मन का संकल्प शिव हो, शुभ हो, कल्याणकारी हो अर्थात शिव मन के शुभ विचारों, एकाग्रता, प्रसन्नता के अधिष्ठाता हैं, संकल्पों के प्रतीक हैं। शिव के तत्व दर्शन को जो समझ जाता है, जो उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतार लेता है, वह आत्मोन्नति कर लक्ष्य पर पहुंच जाता है।
शंकर सृजन से संहार तक, जीवन से मृत्यु तक जीवन का विस्तारित प्रकाश हैं। शिव प्रकृति को प्राण देने वाली ऊर्जा है। शिव ने स्वयं को छोड़कर सबको चाहा है। शिव आत्मबलिदानी हैं। अपने भक्तों की एक छोटी-सी इच्छा पूरी करने के लिए बड़े से बड़ा संकट लेने के लिए तैयार रहते हैं। शिव सत्य की किरण है, जो अनादि अंधकारों की चीरती हुई हमारे हृदयस्थल को ज्ञान के आलोकों से प्रकाशित करती है।
सभी देवता किसी न किसी परिधि में बंधे हुए हैं। कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ, तो कुछ लिप्सा, कुछ अधिकारों तथा कुछ अहंकारों में। लेकिन शिव ही सर्वमुक्त हैं, अकिंचन हैं। अमृत छोड़कर विष का पान शिव-सामर्थ्य ही कर सकता है। रत्नों को छोड़कर विषधारी नागों को सिर्फ शिव ही धारण कर सकते हैं। शिव राम के भी पूज्य हैं और रावण के भी।
शिव देवताओं से सम्मानित हैं, तो असुरों के अधिष्ठाता भी हैं। शिव अनादिकाल से अच्छाइयों एवं बुराइयों के बीच के सेतु रहे हैं। जहां एक तरफ परम शांति एवं शीतलता के प्रतीक चन्द्र को धारण करते हैं, तो दूसरी ओर महाविनाशक विष को भी अपने कंठ में छुपाए हुए हैं ताकि मानवता का विनाश न हो। वे सौम्य से सौम्यतर, भयंकर से भी महाभयंकर रौद्र रूपधारी हैं।
आज के परिवेश में जहां मनुष्य अपने चरित्र, वाणी, कर्म एवं संस्कारों को खो चुका है, अपनी शक्तियों का प्रयोग मानवता को विनिष्ट करने में कर रहा है तब शिव का चरित्र उसको सही दिशा दिखाने के लिए सर्वथा प्रासंगिक है। शिव का चरित्र निजी सुख एवं भोगों से दूर उत्तरदायित्व का चरित्र है, जो मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि देवताओं के लिए भी अनुकरणीय है।
शिव का परिग्रह रूप शिक्षा देता है कि शक्ति का प्रयोग धन, वैभव एवं भोग सामग्रियों को जुटाने में नहीं, वरन शोषित एवं दीनों की सेवा करने में होना चाहिए। शिव शुद्ध, पवित्र एवं निरपेक्ष हैं। उनके प्रतीकों से उनके चरित्र की बारीकियों को समझना पड़ेगा। उनके मस्तिष्क पर चन्द्रमा के धारण करने का आशय पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होना है।
विष को कंठ में धारण करने का आशय संसार के सारे दु:खों को खुद में समाहित कर लेना है। इस संसार में विचारों का विस्तृत मंथन होता है। इस मंथन से अमृत एवं विष दोनों निकलते हैं। अमृत को सभी पाना चाहते हैं, लेकिन विष को कोई नहीं। शिव का व्यक्तित्व ही उस विष से संसार की रक्षा कर सकता है।
शिव गंगाधरी हैं और गंगा समस्त पापनाशिनी कही जाती है। इसका आशय है कि अज्ञान से ही इस विश्व में समस्त पाप कर्म होते हैं तथा शिव उस अज्ञान को मिटाने वाली ज्ञान की गंगा के उत्सर्जक हैं।
शिव का तीसरा नेत्र आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। हमारी इन्द्रिय हमें आध्यात्मिक क्षेत्र की परिधि से बाहर रखती हैं। वो हमें लौकिक जगत के जाल में उलझाए रहती हैं। शिव का तीसरा नेत्र हमें इन ऐन्द्रिक जाल से निकालकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु एवं भीरु बना दिया है। मनुष्य साधनों के बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकता है। अगर कोई उसकी विचारधारा को चुनौती देता है तो वह हिंसक हो जाता है।
शिव संकल्प का संदेश है कि अगर मन में प्रेम है तो जानवर, विषधर, हिंसक पशु, दलित, शोषित सब आपसे प्रेम करने लगते हैं। शिव हमें वे भाव देते हैं जिनसे सेवा एवं संस्कार की भावनाएं उत्पन्न होती हैं जिनसे हमारा अहंकार गलता है एवं जिनसे हमारा आत्मिक सौंदर्य निखरता है।
शिव मानव जीवन के उन गुणों का प्रतीक हैं जिनके बिना मनुष्य अत्यंत क्षुद्र प्रतीत होता है औरवह पशुतुल्य हो जाता है। शिव का चरित्र मनुष्य में उस ऊर्जा का संचरण करता है, जो उसे पशु से मनुष्य, मनुष्य से देव एवं देव से महादेव बनने के लिए प्रेरित करता है। शिव संकल्प हमें भोग से योग, अज्ञान से ज्ञान एवं तिमिर से प्रकाश की ओर ले जाता है।
शिव हमें सौन्दर्य के उस उच्चतम शिखर पर ले जाते हैं, जो सच्चा है, मंगलमय है एवं कल्याणकारी है, जो हमें परिष्कृत चरित्र एवं चिंतन प्रदान करता है। शिव चरित्र मानवीय जीवन के उच्चतम आदर्शों की पराकाष्ठा है।
महाशिवरात्रि विचार-मंथन का पर्व है। यह पर्व हमें शून्य से अनंत की और ले जाने वाला पर्व है, जो हमारे व्यक्तित्व को क्षुद्रता से विराटता प्रदान करता है।