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7 बड़े धर्मान्तरण और भारत बन गया बहुधर्मी देश

7 बड़े धर्मान्तरण और भारत बन गया बहुधर्मी देश - Conversion in India
धर्मांतरण किसी ऐसे नए धर्म को अपनाने का कार्य है, जो धर्मांतरित हो रहे व्यक्ति के पिछले धर्म से भिन्न हो। दुनिया में स्वेच्छा से धर्मांतरित होने के कम ही किस्से सुनने को मिलते हैं। इतिहास में ईसाई और मुस्लिमों के धर्मयुद्ध के बारे में तो पढ़ने को मिलता है। इसे क्रूसेड और जिहाद कहा जाता है। यह सब कुछ धर्म के विस्तार के लिए ही हुआ था।

पहला क्रूसेड 1096-99 के बीच हुआ। इसी दौर में जैंगी के नेतृत्व में मुसलमान दमिश्क में एकजुट हुए और पहली दफा अरबी भाषा के शब्द 'जिहाद' का इस्तेमाल किया गया जबकि उस दौर में इसका अर्थ संघर्ष हुआ करता था। इस्लाम के लिए संघर्ष नहीं, लेकिन इस शब्द को इस्लाम के लिए संघर्ष बना दिया गया। दूसरा क्रूसेड 1144 ईस्वी में फ्रांस के राजा लुई और जैंगी के गुलाम नूरुद्‍दीन के बीच हुआ। 1191 में तीसरे क्रूसेड की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था।

दुनिया में तीन ऐसे बड़े धर्म हैं जिनके कारण दुनिया में 'धर्मांतरण' जैसा शब्द अस्तित्व में आया। ये बड़े धर्म हैं- बौद्ध, ईसाई और इस्लाम। तीनों ही धर्मों ने दुनिया के पुराने धर्मों के लोगों को अपने धर्म में स्वेच्छा से दीक्षित किया और अस्वेच्छा से धर्मांतरित किया। उस काल में इन तीनों धर्मों के सामने थे हिन्दू, यहूदी धर्म के अलावा दुनिया के कई तमाम छोटे और बड़े धर्म।

भारत में प्राचीनकाल से ही दो धर्म अस्तित्व में रहे हैं- पहला जैन और दूसरा हिन्दू धर्म। यह आर्यों द्वारा स्थापित धर्म है। उक्त दोनों ही धर्म के लोगों को धर्मांतरण के लिए कहीं-कहीं स्वेच्छा से तो ‍अधिकतर जगह मजबूरी के चलते अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनाना पड़ा। प्राचीनकाल से लेकर आज तक भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण होते आए हैं। प्राचीनकाल में जैन और बौद्ध धर्मों में हिन्दुओं का धर्मांतरण हुआ, मध्यकाल में इस्लाम और सिख धर्म में और आधुनिक काल में हिन्दुओं का ईसाई, बौद्ध और इस्लाम में धर्मांतरण जारी है।

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आर्य धर्म : हिन्दू धर्म को दुनिया और भारत का प्राचीन धर्म माना गया है। ऋग्वेद विश्‍व की सबसे प्राचीन धार्मिक पुस्तक है। इस पुस्तक पर आधारित धर्म को पहले वैदिक धर्म कहा जाता था, जो आर्यों का धर्म है। आज इस धर्म के अनुयायियों को हिन्दू कहा जाता है।

ऋग्वेदकाल के पूर्व भारत में धर्म का स्वरूप कुछ और था। लोग कबीलों का जीवन जीते थे तथा प्रकृति में विद्यमान ताकतों की देवी और देवताओं के रूप में पूजा-करते थे। एकेश्‍वरवाद की कोई धारणा नहीं थी और समाज में किसी भी प्रकार की कोई नैतिकता और व्यवस्था नहीं थी। लेकिन आर्यों ने दुनिया को बदल दिया और उन्होंने आज से लगभग 15 हजार वर्ष पूर्व धर्म को एक व्यवस्था दी।

सर्वप्रथम स्वायंभुव मनु का धरती पर शासन था। उनके बाद उनके पुत्र प्रियव्रत धरती के राजा बने। राजा प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से कवि, महावीर तथा सवन ये 3 नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।

राजा प्रियव्रत ने धरती का विभाजन कर अपने 7 पुत्रों को अलग-अलग द्वीप का शासक बना दिया। आग्नीध्र को जम्बूद्वीप मिला। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने 9 पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न 9 स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। जम्बूद्वीप के 9 देश थे- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, नाभि (भारत), हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय।

भारतवर्ष का शासक : इन 9 पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के 100 पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। भरत को जैन धर्म में भरतबाहु कहते हैं। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखंड को भारतवर्ष कहने लगे। इस भारतवर्ष में बसे लोगों को ही 'भारतीय' कहा जाता है। हम इस क्षेत्र में भारतीयों के साथ हुए धर्मांतरणों का ही उल्लेख करेंगे।

प्राचीनकाल में यह अखंड भारतवर्ष हिन्दूकुश पर्वत माला से अरुणाचल और अरुणाचल से बर्मा, इंडोनेशिया तक फैला था। दूसरी ओर यह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और हिन्दूकुश से नीचे सिंधु के अरब सागर में मिलने तक फैला था। यहां की प्रमुख नदियां सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना, कुम्भा, ब्रह्मा, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, महानदी, शिप्रा आदि हैं। 16 जनपदों में बंटे इस क्षेत्र को भारतवर्ष कहते हैं।

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जैन धर्म : ब्राह्मण और श्रमण। भारतभूमि पर ये दो धाराएं शुरुआत से ही प्रचलन में रहीं। कहीं-कहीं इनका संगम हुआ तो कहीं-कहीं ये एक-दूसरे से बहुत दूर चली गईं, लेकिन दोनों का लक्ष्य एक ही रहा और वह है- मोक्ष। एक विचारधारा ईश्वर को मानती हैं तो दूसरी के लिए आत्मा ही सत्य है।

जो एकेश्‍वरवादी हैं उनको वैदिक विचारधारा का माना जाता था और जो अनीश्‍वरवादी थे उनको अवैदिक विचारधारा का माना जाता था। भारत में मत भिन्नता की शुरुआत इसी तरह हुई। यही दो विचारधाराएं भारत से बाहर गईं और बदले हुए रूप में फिर से भारत में प्रवेश कर गईं। पहले इन विचारधाराओं की कोई व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि सभी को स्वतंत्रता थी कि कोई किसी भी मार्ग से जाकर मोक्ष प्राप्त कर ले।

अरिष्टनेमि और कृष्ण के काल तक तो यह परंपरा इस तरह साथ-साथ चली कि इनके फर्क को समझना आमजन के लिए कठिन ही था लेकिन बस यहीं से धर्म के व्य‍वस्थीकरण की शुरुआत हुई तो फिर सब कुछ अलग-अलग होता गया। जैन परंपरा को पहले विदेहियों की परंपरा कहा जाता था। राजा जनक इसी परंपरा के अनुयायी थे। अष्टावक्र भी उसी परंपरा के अनुयायी थे। इसी परंपरा से चार्वाकवादी विचारधारा का जन्म हुआ, लेकिन यह विचारधारा भारत में पनप नहीं पाई। भारत में अधिकतर दार्शनिक नास्तिक विचारधारा के ही पोषक रहे हैं।

भारत उक्त दो तरह की विचारधाराओं में आदिकाल से ही बंटा हुआ था, लेकिन वैदिक विचारधारा ही भारत में प्रधान रूप से हावी रही। गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र ने ही मिलकर भारत में वैदिक धर्म को एक व्यवस्था दी। हालांकि इन दोनों की लड़ाई के चलते भारत में मत भिन्नता का जन्म भी हुआ। बाद में भगवान कृष्ण के काल में धर्म को फिर से व्यवस्थित किया गया। इसके चलते जैन धर्म लगभग लुप्त होने के कगार पर हो चला था। तब शुरू हुआ धर्म प्रचार या कहें कि धर्मान्तरण...

पार्श्वनाथ जैनों के 23वें तीर्थंकर थे। इनका जन्म अरिष्टनेमि के 1,000 वर्ष बाद इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी में हुआ था। इन्होंने ही जिन परंपरा को सर्वप्रथम एक व्यवस्‍था देकर इसका प्रचार-प्रसार किया। माना जाता है कि जिन परंपरा का यह पहला ऐसा संप्रदाय था जिसने जिन परंपरा को एक संप्रदाय में ढाला और इस विचारधारा के मानने वालों को एक ही छत के नीचे ला खड़ा किया।

भगवान पार्श्वनाथ तक यह परंपरा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ संप्रदाय की शुरुआत हुई और इस परंपरा को एक संगठित रूप मिला। यहीं से जैन धर्म ने अपना अलग अस्तित्व गढ़ना शुरू कर दिया था। लेकिन इसको मजबूत आधार मिला 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर के काल में।

ईसा पूर्व छठी शताब्‍दी में भगवान महावीर ने जैन धर्म का प्रचार किया जिसके कारण बहुत से क्षत्रिय और ब्राह्मण जैन होते गए। चाणक्य का नाम कौन नहीं जानता। माना जाता है कि वे खुद जैन धर्म से प्रभावित होकर जैन हो गए थे। भगवान महावीर ने तप, संयम और अहिंसा का संदेश दिया था। इस काल तक धर्मान्तरण का मतलब स्वेच्छा से धर्म का मार्ग चुनना था न कि किसी संप्रदाय की जन शक्ति को बढ़ाना।

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बौद्ध धर्म : जब भारत में आर्य या कहें कि वैदिक धर्म का पतन हो चला था। तरह-तरह की जातियों में बंटकर लोग मनमानी पूजा, पाठ और कर्मकांड में विश्वास करने लगे थे। लगभग इसी दौर में 563 ईसा पूर्व भगवान बुद्ध का अवतरण हुआ।

बुद्ध हैं अंतिम सत्य

गौतम बुद्ध एक क्षत्रिय राजकुमार थे। बुद्ध से प्रभावित होकर भारत में भिक्षु होने की होड़ लग गई थी। बुद्ध के उपदेशों का चीन और कुछ अन्‍य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भी प्रचार हुआ। बुद्ध पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को दुनिया की सबसे बेहतर आध्यात्मिक व्यवस्था दी और संपूर्ण ज्ञान को श्रे‍णीबद्ध किया। भगवान बुद्ध का धर्म भारत के सभी प्राचीन धर्मों का नवीनतम और अंतिम संस्करण है। बुद्ध दुनिया के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने समाज में व्याप्त भेदभाव को मिटाकर समाज को धार्मिक आधार पर एक करने का कार्य किया।

सारनाथ (वाराणसी के समीप) वह स्थान है, जहां भगवान बुद्धदेव ने 5 भिक्षुओं के सामने धम्मचक्कपवनत्तनसुत (प्रथम उपदेश) दिया। इसके बाद आनंद, अनिरुद्ध, महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, उपाली, अंगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो आदि ने भारत और भारत के बाहर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उस काल में दुनिया की आधी आबादी लगभग बौद्ध हो चुकी थी। अफगानिस्तान का बामियान और भारत का कश्मीर-वैशाली बौद्धों का गढ़ बन चुका था। प्रथम संगीति के बाद बौद्ध धर्म भी संप्रदायों में विभक्त हो गया। पहली चतुर्थ बौद्ध संगीति कश्मीर में हुई थी।

हालांकि बौद्ध धर्म का विस्तार भारत में प्रारंभिक काल में बौद्ध भिक्षुओं के प्रचार-प्रसार के चलते ही हुआ था लेकिन बाद में जब कुछ राजाओं ने बौद्ध धर्म अपना लिया तब यह कुछ राज्यों का राजधर्म बन गया। फिर सम्राट अशोक के काल में बौद्ध धर्म दुनिया के कोने-कोने में फैल गया। सम्राट अशोक ने अपने शासन तंत्र को बौद्ध धर्म का विस्तार करने में लगा दिया था।

संप्रदाय : भगवान बुद्ध के समय किसी भी प्रकार का कोई पंथ या संप्रदाय नहीं था किंतु बुद्ध के निर्वाण के बाद द्वितीय बौद्ध संगीति में भिक्षुओं में मतभेद के चलते दो भाग हो गए। पहले को महायान और दूसरे को कहते हैं। हीनयान को ही थेरवाद भी कहते हैं। महायान के अंतर्गत बौद्ध धर्म की एक तीसरी शाखा थी वज्रयान। झेन, ताओ, शिंतो आदि अनेक बौद्ध संप्रदाय भी उक्त दो संप्रदाय के अंतर्गत ही माने जाते हैं। भरत से बाहर बौद्ध धर्म को भिक्षु बोधिसत्व, महाकश्यप, सम्राट मिलिंद, सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो आदि ने फैलाया। चीन, जापान, बर्मा, थाइलैंड, कोरिया सहित आदि सभी पूर्व के देश बौद्ध धर्म अंगिकार कर चुके थे।

नवबौद्ध : इसके अलावा बौद्ध धर्म का एक और संप्रदाय है जिसकी उत्पत्ति भारत की आजादी के बाद हुई। इसे अम्बेडकरवादियों का नवबौद्ध संप्रदाय कहते हैं। हिन्दुओं में जातिवाद की भावना ईस्वी सन् की प्रारंभिक सदियों में ही पनपने लगी थी। वर्ण जब जाति बन गए तो कुछ उच्च वर्ग के लोगों के समाज बन गए जिन्होंने पिछड़े लोगों का शोषण करना शुरू किया। इस जाति व्यवस्था को मुगल और अंग्रेज काल में बढ़ावा मिला और फिर भारत की आजादी के बाद राजनीतिज्ञों ने इसका भरपूर दोहन किया जिसके चलते हिन्दू समाज में बिखराव और तनाव की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। इसी का परिणाम यह हुआ कि हिन्दू धर्म के प्रति कुछ लोगों ने नफरत को बढ़ावा देकर समाज में विभाजन पैदा कर दिया। उल्लेखनीय है कि भगवान बुद्ध ने नफरत के आधार पर कभी अपना धर्म खड़ा नहीं किया। बुद्ध के प्रभाव और ज्ञान के वशिभूत होकर ही प्राचीन काल में लोग बौद्ध मार्ग पर चले थे।

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ईसाई धर्म : ईसा मसीह की सूली के बाद ही ईसा की पहली सदी में ही ईसाई संदेश को लेकर उनके शिष्य हिन्दुस्तान आ गए थे। उनमें से एक 'थॉमस' ने ही भारत में ईसा के संदेश को फैलाया। उन्हीं की एक किताब है- 'ए गॉस्पेल ऑफ थॉमस'। चेन्नई शहर के सेंट थॉमस माउंट पर 72 ईस्वी में थॉमस एक आदिवासी के भाले से मारे गए।

दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देता है। कहा जाता है कि थॉमस ने एक हिन्दू राजा के धन के बल पर भारत के केरल में ईसाइयत का प्रचार किया और जब उस राजा को इसका पता चला तो थॉमस बर्मा भाग गए थे। लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते। माना जाता है कि सबसे पहले थॉमस से कुछ ब्राह्मणों को ईसाई धर्म में दीक्षित किया था।

इसके बाद सन् 1542 में सेंट फ्रांसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्‍थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिन्दू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर सेवा के नाम पर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। इसके बाद भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान इस कार्य को और गति मिली। ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों की अशिक्षा तथा गरीबी का लाभ उठाकर धर्म-परिवर्तन कराया। धर्मांतरित व्यक्ति अंग्रेजों का वफादार बन गया और उनकी देशभक्ति भारत के प्रति न होकर इंग्लैंड के प्रति हो गई। इस तरह अंग्रेजों ने सैकड़ों वर्षों तक भारत पर राज किया।

'अमेरिकन वेद' के लेखक फ़िलिप गोल्डबर्ग अनुसार भारत में गरीब, अशिक्षित और असहाय हिन्दुओं को नौकरी, औषधि और धन का लाचल देकर जिस तरह से ईसाई बनाया जाता है वह निंद‍नीय है। गरीब हिन्दुओं को कहा जाता है कि हिन्दू देवताओं की पूजा करने के कारण से दुर्भाग्य की प्राप्ति होती है, क्योंकि जो देवी देवताओं की मूर्तियां है वह वास्तव में शैतान का रूप है; गांव के बलवान व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि वे दूसरे गावों वालों को धर्मांतरण के बदले में उनको रकम दी जाती है; और महिलाओं के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्हें या तो अपने स्रोत या एक मील जाकर पानी लाने दिया जाए या चर्च के सामने जो नया कुआं सुविधापूर्वक खोदा गया है उससे लाए। इसकी कीमत क्या होगी ? वास्तव में 'धर्मांतरण।- हफिंगटन पोस्ट में छपे एक लेख से लिए गए अंश।

आरोप है कि अंग्रेजों के जाने के बाद मदर टेरेसा ने व्यापक रूप से लोगों को ईसाई बनाया। मदर टेरेसा का वास्तविक नाम एग्नेस गोनक्शा बोजाक्शिहउ था। मदर यूगोस्लाविया की रहने वाली एक रोमन कैथोलिक संगठन की सक्रिय सदस्य थीं। सिस्टर टेरेसा 3 अन्य सिस्टरों के साथ आयरलैंड से एक जहाज में बैठकर 6 जनवरी 1929 को कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ पंहुचीं। सन् 1949 में मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय व अस्वस्थ लोगों की मदद के लिए ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की जिसे 7 अक्टूबर 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी। मानवता की रखवाली की आड़ में उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था। हालांकि उन्हें उनके सेवा कार्यों के लिए पद्मश्री, नोबेल पुरस्कार, भारतरत्न, मेडल ऑफ फ्रीडम से नवाजा गया था।

ईसाई बनने के लिए बपतिस्मा नामक एक ‍रिवाज होता है। वर्तमान में ईसाई धर्मावलंबियों की संख्या लगभग 2  करोड़ 78 लाख से ज्यादा है। इनमें कैथोलिक, आर्थोडॉक्स व अनेक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय में विभक्त हैं। आज ईसाई मिशनरियों के कारण भारत के कई राज्यों के आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों में तनाव की स्थि‍ति हो चली है, क्योंकि ज्यादातर ईसाई संगठन ईसाई धर्म के प्रचार और सेवा के नाम पर गरीब हिन्दुओं का धर्मांतरण करने में लगे हैं। हालांकि ईसाई मिशनजरीज के लोग इन आरोपों से इनकार करते रहे हैं।

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इस्‍लाम : सर्वप्रथम अरब व्‍यापारियों के माध्‍यम से इस्‍लाम धर्म 7वीं शताब्‍दी में दक्षिण भारत में और सिंधु नदी के बंदरगाह पर आया। इसके पहले इस्लाम ने अफगानिस्तान (पहले जो भारत का हिस्सा था) के उत्तर में हिन्दू शाही वंश पर हमला किया और भारतीय ‍दीवार को तोड़ दिया था।

7वीं सदी में इस्लाम के केरल, बंगाल दो प्रमुख केंद्र थे, जबकि पश्चिम भारत में अफगानिस्तान। इसके बाद 7वीं सदी में ही मोहम्मद बिन कासिम ने बड़े पैमाने पर कत्लेआम कर भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया, जहां से हिन्दू जनता को पलायन करना पड़ा। जो हिन्दू पलायन नहीं कर सके वे मुसलमान बन गए या मारे गए। जिस भू-भाग पर कब्जा किया था, वह आज का आधा पाकिस्तान है, जो पहले कुरु-पांचाल जनपद के अंतर्गत आता था। इस दौर में ईरान में सूफीवाद का प्रारंभ हुआ और भारत में सूफियों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में इस्लाम के प्रचार व प्रसार में सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। माना जाता हैं कि उन सूफी संतों के कारण इस्लाम बदनाम हुआ जिन्होंने मुस्लिम सुल्तानों के लिए जासूसी की। उस काल में संतों के प्रति विनम्र और संस्कारी हिन्दू कभी इसे समझ नहीं पाया। भारतीय शहरों और गांवों की सीमाओं पर बनी दरगाहें इसका सबूत है।

इसके बाद मुकम्मल तौर पर 12वीं सदी में इस्लाम ने पूर्ण रूप से भारत में प्रवेश कर लिया था। तुर्क, ईरानी, अफगानी और मुगल साम्राज्य के दौर में भारत में इस्‍लाम धर्म दो तरीके से फला और फैला। पहला सूफी संतों के प्रचार-प्रसार से तथा दूसरा मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए दमन चक्र से। इस काल में मुगल शासन के अंतर्गत रहने वाले गैर-मुस्लिमों पर तरह-तरह के कर लगाए जाते थे। इस कर के चलते भी कई लोगों ने इस्लाम कबूल किया। बाद में इस जजिया कर को मुगल बादशाह अकबर ने समाप्त करवा दिया था।

मुगल भारतीय नहीं थे, वे सभी तुर्क थे। अकबर, शाहजहां, औरंगजेब आदि सभी तुर्किस्तान के मंगोलवंशी थे। औरंगजेब के काल में उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ। उत्तर भारत के अधिकतर ब्राह्मणों को इस्लाम कबूल करना पड़ा जिन्होंने नहीं किया उन्होंने दूसरे राज्यों के गांवों में छुपकर अपनी जान बचाई। आज उत्तर प्रदेश के लगभग 70 प्रतिशत मुसलमान ब्राह्मण है इसका खुलासा एक डीएनए रिपोर्ट से हुआ।

 
औरंगजेब के काल में भारत में सबसे ज्यादा धर्मांतरण हुआ। उसने अपने राज्य में घोषणा करवा दी थी कि या तो इस्लाम कबूल करें या मरने के लिए तैयार रहें। इस दौर में हिन्दुओं ने सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर सिंह से अपनी रक्षा की गुहार लगाई थी। 'हिन्द की चादर' गुरु तेगबहादुर सिंहजी ने औरंगजेब की नीतियों का विरोध किया तथा इस्लाम धर्म स्वीकार करने का विरोध किया, जिसकी वजह से उन्हें दिल्ली में कैद कर दिसम्बर, 1765 ईस्वी में जान से मार दिया गया।

औरंगजेब के समय में ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया। काशी और मथुरा के कई मंदिर नष्ट किए गए, जजिया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का कार्य जोरों से शुरु किया था। 

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सिख धर्म : 15वीं शताब्‍दी में सिख धर्म के संस्‍थापक गुरुनानक ने एकेश्‍वर और भाईचारे पर बल दिया। भारत के पंजाब में इस धर्म की उत्पत्ति हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ रहे वैमनस्य के चलते हुई। सिखों ने कभी धर्मांतरण का कार्य नहीं किया। यह वह काल था जबकि पंजाब के हर हिन्दू घर में से एक व्यक्ति धर्म और देश की रक्षा करने के लिए एक सिख होता था।

क्रूर मुस्लिम शासकों के अत्याचार से कश्मीरी पंडितों और देश के अन्य भागों से भाग रहे हिन्दुओं को बचाने के लिए नौवें गुरु तेगबहादुरजी (1621-1675 ईस्वी) ने बलिदान दे दिया था। गुरु तेगबहादुरसिंह ने धर्म की रक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और सही अर्थों में 'हिन्द की चादर' कहलाए। बाद में 'खालसा पंथ' की स्थापना हुई। गुरु गोविंद सिंह और महाराजा रणजीत सिंह के काल में गैर मुस्लिमों ने स्वयं को सुरक्षित महसूस किया।

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संतों का संप्रदाय : इसके अलावा भारत में ऐसे बहुत से संत हुए हैं जिन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया और अपने तरीके से एक नए धर्म को गढ़ने का प्रयास किया, लेकिन वह महज एक संप्रदाय में ही सिमटकर रह गए। ऐसे सैकड़ों संप्रदाय हैं जिनके कारण हिन्दू आपस में बंटा हुआ है साथ ही हिन्दुओं में एक भ्रम ‍और भटकाव की स्थिति निर्मित कर दी गई है।

प्रारंभ में गुप्त और मध्यकाल में संत संप्रदायों का बहुत विकास हुआ। इस काल में वल्लभ, रामानंद, माधव, बैरागी, दास, निम्बार्क, गौड़ीय, श्री संप्रदाय, उदासीन, निर्मली, दसनामी, नाथ, दादू, लालदासी, चरणदासी, रामस्नेही, निरंजनी, रामनंदी, सखी, वारकरी, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी प्रभुपाद, आदि संप्रदायों की रचना हुई।

उसी तरह सूफी संप्रदाय में भी चिश्ती सम्प्रदाय, कादरी सम्प्रदाय, सुहरावर्दी सम्प्रदाय, नक्शबंदिया सम्प्रदाय का जन्म हुआ। बड़ी संख्या में कई गैर-मुस्लिमों ने भी इस मत में खुद को दीक्षित किया। इसके अलावा गुजरात में 1539 आसपास एक नए समाज की रचना हुई जिसे बोहरा मुस्लिम समाज कहा जाने लगा। इसके दो विभाजन हैं दाऊदी बोहरा और सुलेमानी बोहरा। इनमें भारतीयों की संख्या ही अधिक है, जिसमें गुजरात के ब्राह्मण, व्यापारी और किसान शामिल हैं। भारत में दाऊदी बोहरा संप्रदाय के लोग अधिक हैं।

इसके अलावा 1844 को अस्तित्व में आया बहाई धर्म भी भारत में सक्रिय रहा है। बहाई पंथ की शुरुआत ईरान में हुई थी। यह भी एकेश्वरवादी धर्म है। इसकी स्थापना बहाउल्लाह ने की थी और इसके मतों के मुताबिक दुनिया के सभी मानव धर्मों का एक ही मूल है। बहाउल्लाह (1817-1892) बहाई धर्म के ईश्वरीय अवतार हैं। इसके अलावा अहमदिया संप्रदाय के भी लाखों लोग भारत और पाकिस्तान में पाए जाते हैं।  मुस्लिम सुन्नी समाज के लोग इनको मुसलमान नहीं मानते हैं। सुन्नी तो शियाओं को भी मुसलमान नहीं मानते। हालांकि इसके कुछ कारण है जिसमें से एक है अल्लाह को छोड़कर अन्य की इबादत करना।

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आधुनिक संतों का संप्रदाय : आधुनिक युग के तथाकथित संप्रदायों का प्रचलन पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में अधिक रहा। जैसे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्‍ण मिशन, आर्य समाज, बाबा जयगुरुदेव का मत, ब्रह्मा कुमारी, राधास्वामी मत, डेरा सच्चा सौदा, संत रामपाल का मत आदि ऐसे भारत में कई मत प्रचलित हैं जिन्होंने हिन्दू धर्म की अपने अपने तरीके से व्याख्याकर धर्म का सत्यानाश कर दिया है।

अंतत: भारत एक ऐसा विशाल देश है, जहां धर्मान्तरण, नए समाज या धर्म की रचना के चलते सर्वाधिक विविधता का मिश्रण हो चला है। इसके बावजूद सभी भारतीय हैं, क्योंकि सभी के पूर्वज राम, कृष्ण और ऋषि-मुनि थे। हम सभी राजा सूर्य (विवस्वान्), चंद्र, ऋषि, मुनि, मनु और कश्यप ऋषि की संतानें हैं।

भारत में लगभग 15 प्रमुख भाषाएं हैं और 844 बोलियां हैं। आर्यों की संस्‍कृत भाषा के पूर्व द्रविड़ भाषा में विलय से भारत में कई नई भाषाओं की उत्‍पत्‍ति हुई। हिन्दी भारत की संपर्क भाषा है और हम सब भारतीय हैं। 3 से 5 हजार वर्ष पहले, गुजराती, मराठी, पंजाबी, तमिल या बंगाली भाषा नहीं थी। सभी जगह स्थानीय बोलियां थीं और सभी संस्कृत के माध्यम से संपर्क में रहते थे।

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यहूदी कबीला : माना जाता है कि ईसा से लगभग 3,000 वर्ष पूर्व अर्थात महाभारत के युद्ध के बाद अस्तित्व में आए यहूदी धर्म के 10 कबीलों में से एक ‍कबीला कश्मीर में आकर रहने लगा और धीरे-धीरे वह हिन्दू तथा बौद्ध संस्कृति में घुल-मिल गया। आज भी उस कबीले के वंशज हैं लेकिन अब वे मुसलमान बन गए हैं। हालांकि इस पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।

यहूदी धर्म : आज से 2,985 वर्ष पूर्व अर्थात 973 ईसा पूर्व में यहूदियों ने केरल के मालाबार तट पर प्रवेश किया। यहूदियों के पैगंबर थे मूसा, लेकिन उस दौर में उनका प्रमुख राजा था सोलोमन, जिसे सुलेमान भी कहते हैं।

नरेश सोलोमन का व्‍यापारी बेड़ा मसालों और प्रसिद्ध खजाने के लिए आया। आतिथ्य प्रिय हिन्दू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्‍बन को उपाधि और जागीर प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के तत्‍काल पश्‍चात कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे।

- वेबदुनिया संदर्भ ग्रंथालय