इटावा। रामायण के सबसे क्रूर पात्रों में से एक रावण के बारे में तरह तरह की किंवदंतियां प्रचलित हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के जसवंतनगर में रावण की न केवल पूजा की जाती है बल्कि शहर भर में रावण की आरती उतारी जाती है।
इतना ही नहीं बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता है बल्कि लोग पुतले की लकड़ियों को अपने-अपने घरों में ले जा इस श्रद्धा भाव से सहेज कर रखते हैं ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सकें।
यहां करीब 160 साल पुरानी रामलीला भी अपने बेहद खास अंदाज के कारण दुनिया भर में विलक्षण रामलीला मंचन के लिए विख्यात है। यही कारण है कि साल 2010 में यूनेस्को की ओर से अनूठी रामलीलाओं की फेहरिस्त के बारे में जारी की गई रिपोर्ट में भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है। इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखौटों को लगाकर खुले मैदान में किया जाता है।
त्रिनिडाड की शोधार्थी इंद्रानी बनर्जी करीब 400 से अधिक रामलीलाओं पर शोध कर चुकी हैं, लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कहीं पर भी देखने को नहीं मिली है। जसवंतनगर में जहां पर रामलीला होती है वह इलाका उत्तर प्रदेश के समाजवादियों का गढ़ माना जाता है। शिवपालसिंह यादव यहां से विधायक हैं और वह खुद दशहरा समारोह मे लंबे अर्से से शामिल होते आ रहे हैं, जहां मंच के बजाय खुले मैदान मे रामलीला होती है।
रामलीला के दौरान यहां बाकायदा रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालांकि ये परम्परा दक्षिण भारत की है, लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है।
जानकार बताते हैं कि यहां रामलीला की शुरुआत 1857 में आजादी के आंदोलन से पहले हुई थी। यहां रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण तांबे, पीतल और लौह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिवजी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है।
जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिए जाते हैं और फिर वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं। जसवंतनगर मे रावण की तेरहवीं भी की जाती है।
दशहरे पर जब रावण अपनी सेना के साथ युद्ध करने को निकलता है तब यहां उसकी धूप-कपूर से आरती होती है और जय-जयकार भी होती है। दशहरे के दिन शाम से ही राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हो जाता है जो कि डोलों पर सवार होकर लड़ा जाता है। रात दस बजे के आसपास पंचक मुहूर्त में रावण के स्वरूप का वध होता है, पुतला नीचे गिर जाता है। एक और खास बात यहां देखने को मिलती है जब लोग पुतले की बांस की खपच्ची, कपड़े और उसके अंदर के अन्य सामान नोंच-नोंच कर घर ले जाते है। उन लोगों का मानना है कि घर में इन लकड़ियों और सामान को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता।
लोगों की मान्यता है कि इस लकड़ी को घर में रखने से विद्वता आती है और धन में बरकत होती है। इस लोक मान्यता का असर यह है कि रावण वध के बाद पुतले की लकड़ी के नाम पर मैदान में कुछ नहीं बचता है। दूसरी खास बात यह है कि यहां रावण की तेरहवीं भी मनाई जाती है, जिसमें कस्बे के लोगों को आमंत्रित किया जाता है।
विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकर्षक का केन्द्र होती है। भाव भंगिमाओं के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं। इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं। ये मुखौटे विभिन्न धातुओं के बने होते हैं तथा इन्हें लगाकर पात्र मैदान में युद्ध लीला का प्रदर्शन करते हैं। इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकर्षण लोगों को आकर्षित करता है।
रामलीला समिति के कार्यकारी अध्यक्ष प्रदीप लंबरदार का कहना है कि यहां की रामलीला अनोखी इसलिए होती है क्योंकि रामलीला का प्रर्दशन खुले मैदान में होता है। दक्षिण भारतीय शैली में हो रही इस रामलीला में असल पात्रों को बनाए जाने के लिए उनके पास परंपरागत कपड़े और मुखौटों के अलावा पूरे शस्त्र देखने के लिए मिलते हैं।
समिति के प्रबंधक राजीव गुप्ता का कहना है कि यहां की रामलीला पहले सिर्फ दिन में हुआ करती थी, लेकिन जैसे जैसे प्रकाश का इंतजाम बेहतर होता गया तो इसको रात को भी कराया जाने लगा है। सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि यहां की रामलीला को यूनेस्को की रिपोर्ट में जगह मिली हुई है।
32 साल तक रावण का किरदार निभाने वाले विपिन बिहारी पाठक का बेटा धीरज पाठक अपने पिता की मौत के बाद पिछले दस सालों से पिता की तरह ही रावण का पात्र बखूबी अदा कर रहा है। वह कहते हैं कि उनको रावण के पात्र में आंनद आता है क्योंकि राम के हाथों में मारे जाने का सौभाग्य जो हासिल होता है वह अपने आप में मन को सुकून देने वाला होता है। (वार्ता)