कजलियां पर्व है आज, जानिए यह तिथि क्यों है खास?
कजलियां प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा पर्व है। इसका प्रचलन सदियों से चला आ रहा है। राखी पर्व के दूसरे दिन कजलियां पर्व मनाया जाता है। इसे कई स्थानों पर भुजलिया या भुजरियां नाम से भी जाना जाता है। इस बार यह पर्व सोमवार यानी आज मनाया जा रहा है। कजलियां पर्व के लिए श्रावण मास की अष्टमी और नवमीं तिथि को बांस की छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोएं जाते हैं। बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है।
कजलियां मुख्य रूप से बुंदेलखंड में राखी के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है, जिसमें नागपंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बोएं जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंधन के दिन तक गोबर की खाद और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है।
मान्यतानुसार इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में गेहूं के पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। फिर रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाओं द्वारा इनकी पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को जल स्त्रोतों में विसर्जित किया जाता है। इस पर्व में रक्षाबंधन के दूसरे दिन एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं दी जाती है और घर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। कजलियों (भुजरियां) के दिन महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए और गाजे-बाजे के साथ तट या सरोवरों में कजलियां विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
इस पर्व की प्रचलित जानकारी के अनुसार आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह में ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड की धरती पर सुनीं व समझी जाती है। बताया जाता है कि महोबा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी।
उस समय राजकुमारी तालाब में कजली सिराने अपनी सखियों के साथ गई हुई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज से बचाने के लिए राज्य के वीर महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान ने वीरतापूर्ण पराक्रम दिखाया था। तब इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि के ममेरे भाई अभई भी उरई से जा पहुंचें। और कीरत सागर ताल के पास हुई लड़ाई में अभई को वीरगति प्राप्त हुई। उसमें राजा परमाल को बेटा रंजीत भी शहीद हो गया।
बाद में आल्हा-ऊदल, और राजा परमाल के पुत्र ने बड़ी वीरता से पृथ्वीराज की सेना को हराया और वहां से भागने पर मजबूर कर भगा दिया। महोबे की जीत के बाद पूरे बुन्देलखंड में कजलियां का त्योहार मनाया जाने लगा है। आज भी कई स्थानों पर वह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। आज भी बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही आदरभाव से लिया जाता है।