गुरुवार, 24 अप्रैल 2025
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Written By ND

कम हुई संजा की लोकप्रियता

संजा तू थारा घर जा....

संजा पर्व
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हमारे देश में जहाँ दिन की शुरुआत रंगोली से होती है तो हर तीज-त्योहार पर मेहँदी, महावर और माँडने माँडे जाते हैं। मालवा-निमाड़ तथा राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में प्रचलित प्रमुख संस्कृतियों में संजा पर्व ऐसा ही है जो हमारी सांस्कृतिक विरासत है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक श्राद्घ पक्ष में कुँवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला यह ऐसा ही पर्व है।

शुरू हो जाएगा ताजा हरा गोबर ढूँढकर संजा की आकृति बना गुलतेवड़ी, कनेर के गुलाबी, पीले और चाँदनी के सफेद चमकते फूलों से सजाने का क्रम। इस अवसर पर गाए जाएँगे कुछइस तरह के लोकगीत..संजा तो माँगे हरो-हरो गोबर, काँ से लऊँ बई हरो-हरो गोबर.....।

पूर्णिमा से 16 आकृतियाँ पूरे श्राद्घ पक्ष के 16 दिनों तक बनाई जाती है। यह अनुष्ठानिक पर्व है, जो कुँवारी कन्याओं द्वारा अच्छे घर-वर की कामना से किया जाता है। प्राचीन समय में घर के बड़े-बूढ़े दादी वगैरहा लड़कियों के होश संभालते ही उनसे संजा बनवाती थीं।

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इस संबंध में पं. आनंदीलाल जोशी कहते हैं कि पितृ पक्ष में पितरों की पूजा या याद करते हैं। इसी क्रम में मप्र, राजस्थान आदि स्थानों पर बहू-बेटियाँ अपनी देहली को सजाती हैं। यह लोककला है, महाकाल में उमा-साँझी महोत्सव लोककला को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है। शास्त्रों में कहीं ऐसा उल्लेख आदि नहीं है।

ज्योतिषाचार्य पं. आनंदशंकर व्यास के अनुसार यह लोककला है जिसका ज्योतिष या शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं है। उज्जैन के श्याम परमार द्वारा मालवी में संजा पर लिखा गया शोध प्रबंध अपने आपमें लोककला धरोहर को जीवंत रखने का अच्छा प्रयास सराहनीय है।

आधुनिकता के दौर में संजा पर्व की लोकप्रियता कम हो चली है। अब केवल लोक-बस्तियों में ही संजा पर्व मनाते देखा जा सकता है। वहीं भौतिकता के युग में गोबर से बनने वाली संजा अब कागज-पन्नी इत्यादि से तैयार भी मिलने लगी है, जिसे दीवार पर चिपकाना मात्र होता है। प्राचीन समय में जहाँ हर घर में गाय-भैंस आदि होते थे घरों में गोबर भी सहज ही उपलब्ध हो जाता था।