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Written By WD

सशक्त सरकारें बनाने के लिए आम जनता एकजुट हो

- डॉ. आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'

सशक्त सरकारें बनाने के लिए आम जनता एकजुट हो -
कैलिफोर्निया (संयुक्त राज्य अमेरिका)। 1963 की बात है। मेरी भाभी निर्मला शुक्ला, विद्यार्थी-पत्नी की हैसियत से अमेरिका आ रही थीं। भैया के प्रोफेसर ने कृपा करके उनकी पत्नी को अमेरिका पहुंचने के पूर्व ही यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी में 'लायब्रेरी असिस्टेंट' की नौकरी दिलवा दी थी ताकि उनके विदेशी विद्यार्थी परिवार को कुछ आर्थिक सहायता मिल जाए।

भाभी ने भारत में जब अमेरिका जाने लिए पासपोर्ट के लिए आवेदन किया तो 'लायब्रेरी असिस्टेंट' की नौकरी के नियुक्ति पत्र की एक कॉपी भी आवेदन के साथ अटैच कर दी। यह सोचकर कि इससे शायद पासपोर्ट जल्दी बनकर आ जाएगा।

लेकिन हुआ ठीक इससे उल्टा। उनका पासपोर्ट नहीं बना और वहां से उत्तर आया 'चूंकि आपको विदेश में नौकरी मिली है अतः आप अपने नियोक्ता (यानी भैया की यूनिवर्सिटी) से यह पत्र भी भिजवाएं कि वे आपको अमेरिका से भारत वापस आने का खर्च भी देंगे।'


हवाला दिया गया था कि 1912 में (यानी ब्रिटिशकालीन भारत में) यह नियम बना था कि यदि कोई भारतीय नौकरी या रोजगार प्राप्त करने के लिए विदेश जा रहा हो तो उसे उस विदेशी कंपनी से भारत वापसी की गारंटी भी चाहिए।

पासपोर्ट ऑफिस को भैया ने अमेरिका से दसों पत्र लिखे कि 'निर्मला को यह नौकरी अपने विद्यार्थी-पति को आर्थिक सहायता देने के लिए दी गई है अतः उस पर 1912 का यह नियम लागू नहीं होना चाहिए, पर पासपोर्ट कार्यालय ने कहा कि नियम सब पर लागू होता है।

तब देश को स्वतंत्र हुए 16 साल हो चुके थे लेकिन ब्रिटिशकाल में बने नियम-कानून अब भी चल रहे थे। भाभी को बहुत मुश्किल से पासपोर्ट मिल पाया था। स्थानीय सांसद (बिलासपुर, छत्तीसगढ़ जहां से हमारा परिवार है) से सहायता लेनी पड़ी थी।

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ब्रिटिशकालीन भारत में बना यह कानून या नियम 1977 तक चलता रहा। 1977 में जब अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने और उनके पास जब इस संबंध में शिकायत पहुंची, तब उन्होंने यह नियम हटाने का आदेश जारी करवाया था। वाजपेयीजी के कारण ही आम आदमी को पासपोर्ट मिलना सरल भी हुआ था।

भारत की डॉक्टरी (मेडिकल, डेंटल, वेटर्नरी, आयुर्वेद) की डिग्रियों में सिर्फ एक 'एमडी' को छोड़कर किसी भी डिग्री के नाम में 'डॉक्टर' शब्द नहीं लगा है। भारतीय डॉक्टरी की डिग्रियों के नाम आज भी ब्रिटिशकालीन चले आ रहे हैं, जैसे एमबीबीएस, एमएस, बीवीएस-सी, एमवीएस-सी, बीडीएस, बीएएमएस आदि, जबकि सभी विदेशों में हर डॉक्टरी की डिग्रियों में 'डॉक्टर' शब्द अवश्य लगा या जुड़ा रहता है।

अमेरिका सहित बहुत से विदेशों में मेडिकल लाइन की एकमात्र डिग्री है एमडी (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन)। अमेरिका में किसी रोग में विशेषज्ञ बनने के लिए उसमें 3 साल का प्रशिक्षण लेना होता है जिसका एक सर्टिफिकेट मिलता है। उसमें अलग से कोई डिग्री नहीं मिलती अतः अमेरिका के शत-प्रतिशत मेडिकल डॉक्टर केवल एमडी ही होते हैं।


जिन विदेशों में आयुर्वेद चिकित्सा पढ़ाई जाती है वहां के आयुर्वेदिक कॉलेजों की डिग्रियों के नाम हैं- 'डॉक्टर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन'। भारत को छोड़कर सभी विदेशों में पशु चिकित्सा में डिग्रियों के नाम हैं- 'डॉक्टर ऑफ वेटर्नरी मेडिसिन' और दंत चिकित्सा में 'डॉक्टर ऑफ डेंटल सर्जरी' या 'डॉक्टर ऑफ डेंटल मेडिसिन'।

भारत से जो डॉक्टर अमेरिका आकर बसते हैं यदि वे अपने नाम के आगे एमबीबीएस या एमएस लिखें तो उन्हें यहां कोई डॉक्टर समझेगा ही नहीं अतः 'अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन' की लाइसेंस परीक्षा पास कर लेने के बाद वे भी यहां एमडी ही लिखते हैं।

इसी तरह से भारत से अमेरिका आकर बसने वाले पशु चिकित्सक डीवीएम (डॉक्टर ऑफ वेटर्नरी मेडिसिन) व दंत चिकित्सक डीडीएस (डॉक्टर ऑफ डेंटल सर्जरी) लिखते हैं यहां के लाइसेंस एक्जाम्स पास कर लेने के बाद ही।

प्रसंगवश अमेरिका में जितने भी भारतीय डॉक्टर हैं उनमें पशु चिकित्सक यानी कि 'वेटर्नरी डॉक्टर' लोग मेडिकल डॉक्टरों से ज्यादा धनी हैं। प्रायः सभी भारतीय वेटर्नरी डॉक्टर अमेरिका में 'मल्टी मिलियनेयर' (बहु करोड़पति) हैं। इसका कारण यह है कि अमेरिकी लोग बेहद पशु-प्रेमी होते हैं और उन्हें अपने बच्चों की तरह प्यार करते हैं।



व्हाइट हाउस (अमेरिकी राष्ट्रपति निवास) से लेकर हर अमेरिकी घर में आपको दो-तीन पालतू कुत्ते और एक-दो पालतू बिल्लियां जरूर मिलेंगे। अमेरिकनों के पालतू जानवर जरा भी बीमार हुए नहीं कि वे उन्हें वेटर्नरी डॉक्टर के पास लेकर दौड़ते हैं। प्रायः सभी वेटर्नरी डॉक्टर यहां प्राइवेट प्रैक्टिस ही करते हैं।

विषयांतर तो होगा लेकिन एक और जानकारी देना चाहूंगा। अमेरिका में कोई भी अपने घर में गाय-भैंस नहीं पाल सकता। शहरों के बाहर बड़े-बड़े सरकारी-गैर सरकारी डेयरी फॉर्म होते हैं, जहां दुधारू पशु पाले जाते हैं और उनके लिए वेटर्नरी डॉक्टर्स की टीम वहां काम करती है।

हॉलैंड और अमेरिका दुनिया के सबसे बड़े दुग्धोत्पादक देश हैं। दूध-दही-घी-मक्खन की अमेरिका में भरमार है और इसीलिए यह देश मोटापे की समस्या से परेशान है। वैसे भारत की सभी लाइन की डॉक्टरी की डिग्रियां अमेरिका में मान्यता प्राप्त हैं। कहना न होगा उस डॉक्टरी लाइन के अमेरिकन एसोसिएशन के लाइसेंस एक्जाम्स पास कर लेने के बाद ही।

तो चर्चा हो रही थी भारत की डॉक्टरी डिग्रियों के नामों की। स्वतंत्रता के 66 वर्षों बाद तो अब इन ब्रिटिशकालीन (सिर्फ डॉक्टरी) की डिग्रियों के नाम तो कम से कम हमें अब बदल ही देने चाहिए। लेकिन इस संबंध में न तो विभिन्न डॉक्टरी लाइन पढने वाले विद्यार्थी पहल करते हैं, न उनके प्रोफेसर और न ही उन डॉक्टरी लाइनों के भारत के एसोसिएशन ही। खैर!

तो उपरोक्त दोनों उदाहरण (1977 से पूर्व भारत में पासपोर्ट बनने की स्थिति व भारत के डॉक्टरी-डिग्रियों के नाम) वैसे कोई बहुत गंभीर बात या मसले नहीं हैं। लेकिन यह हम आम भारतीयों की मनोवृत्ति, आदत या स्वभाव तो अवश्य ही जाहिर करता है कि जो प्रथा (वास्तव में कहना चाहिए 'ब्रिटिशकालीन कुप्रथाएं') चली आ रही हैं उन्हें बदलने का कष्ट हम उठाना ही नहीं चाहते। भले ही हम कष्ट सहते रहें, पाते रहें।


जो गंभीर स्थिति पैदा कर रही है, वह है हम भारतीयों द्वारा ब्रिटिश संविधान की नकल। भारतीय संविधान 75% से भी ज्यादा इंग्लैंड के संविधान पर आधारित है जिसकी वजह से भारत में संसदीय शासन प्रणाली (जिसमें देश में वास्तविक शासक प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री होते हैं) अपनाई गई है।

इन पदों के नामों से या ये लोग (प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री) भारत व उसके राज्यों के वास्तविक शासक क्यों होते हैं, इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति या कष्ट है तो इनकी चुनावी प्रक्रिया से। 120 करोड़ जनसंख्या वाले भारत में देश का प्रधानमंत्री चुना जाता है 300 से भी कम लोगों (सांसदों) द्वारा। शायद आवश्यक बहुमत 272 में ही पूरा हो जाता है।

2 करोड़ 70 लाख जनसंख्या वाले झारखंड राज्य में 50 से भी कम विधायकों के बहुमत से वहां का मुख्यमंत्री चुन लिया जाता है। इनके दुष्परिणाम क्या होते हैं? स्वतंत्र भारत के गत 66 वर्षों में अब तक हुए 15 में से आधे दर्जन प्रधानमंत्री (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी व डॉ. सिंह) को छोड़कर कोई भी प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) पूरा नहीं कर सका। अधिकांश प्रधानमंत्रियों की सरकारें 4 से 11 महीनों के भीतर ही धराशायी हो गईं।

झारखंड राज्य का जबसे जन्म हुआ है वहां आज तक कोई भी मुख्यमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) पूरा नहीं कर सका है। उल्टे गत 10 वर्षों में वहां 10 बार ही सरकार गिरी और कई बार राष्ट्रपति शासन लगाए गए। भारत के अधिकांश राज्यों में कमोबेश लगभग यही हाल रहता है।

इन सबके दुष्परिणाम होते हैं या तो करोड़ों-अरबों-खरबों रुपए बर्बाद करके मध्यावधि चुनाव या फिर पुनः गठबंधन वाली कमजोर सरकारें। इस बुराई की जड़ को काटने का तरीका क्या है?


तरीका या उपाय सिर्फ और सिर्फ और सिर्फ एक है और वह है भारत का वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री कहते हैं) 120 करोड़ भारतीय जनता के बहुमत से चुना जाए और भारत के राज्यों के वास्तविक शासक (जिन्हें फिलहाल मुख्यमंत्री कहते हैं) उन राज्यों की जनता के बहुमत से चुने जाएं।

यदि इस प्रक्रिया के लिए हमें भारतीय संविधान में सशोधन करना पड़े तो वह भी हमें अवश्य ही करना चाहिए। देशहित के लिए अपने देश की स्वस्थ और 5 सालों की स्थायी सरकार निर्माण हेतु चाहे हमें जितने भी संविधान संशोधन करने पड़ें हमें अवश्य ही करने चाहिए।

भारत में कोई एक 'सिंगल' मतदाता भी नहीं होगा, जो यह नहीं चाहेगा कि उसे अपने देश और राज्य के वास्तविक शासक (जिन्हें फिलहाल प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री कहते हैं) चुनने का अधिकार न मिले। दूसरे शब्दों में हर भारतीय मतदाता अपने देश और राज्य का वास्तविक शासक स्वयं ही चुनना चाहेगा, जो कि मात्र एक संविधान संशोधन से संभव हो सकता है।

संविधान संशोधन से हम सदा के लिए कमजोर सरकारों से निजात पा सकते हैं। लेकिन जैसा कि ऊपर पहले दो सच्चे उदाहरण दिए- पासपोर्ट संबंधी और डॉक्टरी डिग्रियों के नाम संबंधी- न जाने क्यों हम भारतीय पहले से चली आ रही अस्वस्थ, बेकार और बेअर्थ कुप्रथाओं को बदलने का कष्ट उठाना ही नहीं चाहते।

भारत के हाई कोर्टों व सुप्रीम कोर्ट की सर्वत्र प्रशंसा होती है। अमेरिका में हम लोग भारत के सरकारों की प्रशंसा की तुलना में आलोचना ही ज्यादा सुनते-पढ़ते हैं किंतु भारतीय सुप्रीम कोर्ट- हाई कोर्ट के जजों व उनके निर्णयों की हमेशा प्रशंसा ही सुनते-पढ़ते रहते हैं। यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है कि भारत की न्यायपालिका निष्पक्ष और प्रशंसनीय है।

1971 में इलाहबाद हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित किया था। यह भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और गरिमा को प्रत्यक्ष दर्शाती है। समय-समय पर भारतीय सुप्रीम कोर्ट भारत सरकार को उचित और सुंदर सलाह भी देती रहती है।







पता नहीं क्यों हम लाखों प्रवासी भारतीयों को यह आशा है कि भारत और इसके राज्यों में अक्सर गिरती सरकारों को देख-देखकर एक दिन सुप्रीम कोर्ट देश के कर्णधारों को जरूर ही संविधान संशोधन की सलाह देगी ताकि भारत और इसके राज्यों के वास्तविक शासक (जिन्हें फिलहाल प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री कहते हैं) अब आम भारतीय जनता के बहुमत से चुने जाएं।

देश की करोड़ों आम जनता के बहुमत से चुने 'वास्तविक शासक' की सरकार कभी नहीं गिरती, क्योंकि उसे आम जनता का ही बहुमत प्राप्त होता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। साक्षात और शाश्वत उदाहरण है अमेरिका (यूएसए) का, जहां की जनता ने गत 237 वर्षों में अपने बहुमत से अब तक 44 राष्ट्रपति चुने हैं जिनमें से आज तक एक की भी सरकार नहीं गिरी है।

अमेरिका-प्रवासी भारतीयों पर वैसे यह 'इल्जाम' लगाया जाता है कि चूंकि आप लोग अमेरिका में रहते हैं तो वहां का पक्ष लेंगे ही। लेकिन जो सच है, शाश्वत है जिसे सारी दुनिया देख रही है, महसूस कर रही है उसे झुठलाया भी कैसे जा सकता है?

अमेरिका सिर्फ और सिर्फ 'आम जनता के बहुमत' को ही महत्व देता है (सांसदों-विधायकों के बहुमत को नहीं) जिसे गोरे-गोरी बहुल देश अमेरिका ने एक काले व्यक्ति को अपना राष्ट्रपति और अभी हाल में ही एक भारतीय युवती को 'मिस अमेरिका' (अमेरिका की सबसे सुंदर लड़की) चुनकर साबित भी कर दिया है- प्रत्यक्षम किम प्रमाणं।

गत एक वर्ष में ही भारत में अन्याय, अत्याचार और बलात्कार के विरोध में आम जनता ने जो अपना आक्रोश दिखाया है, न्याय मांगने के लिए जो एकता की मिसाल कायम की है वह सचमुच काबिलेतारीफ़ है।

अन्याय के विरोध में सारा देश एकजुट होकर खड़ा हो गया और अंततोगत्वा जनता की मांग सुनी भी गई तो क्यों न हम भारत में अपने देश की सभी सरकारों को सशक्त बनाने के लिए भी यही एकता दिखाएं और एकजुट होकर खड़े हो जाएं। चाहे इसके लिए हमें संविधान संशोधन की मांग करनी पड़े या फिर नई प्रथा की शुरुआत ही।

पहले भी लिखा था, फिर से दोहराना चाहूंगा। क्रिकेट में विजय प्राप्त करने के लिए हम देशभर में जगह-जगह पूजा-होम-हवन-यज्ञ-प्रार्थनाएं करते हैं। आप स्वीकार करेंगे कि क्रिकेट से हमारे देश की सरकारें कई गुना महत्वपूर्ण हैं। उससे बड़ी हैं, उससे ऊपर हैं, तो यही काम हम अपने देश की सरकारों को सशक्त बनाने के लिए भी करें।

हमारे देश की सरकारें सशक्त तभी बनेंगी, वे 5 साल तक बिना गिरे तभी चलेंगी जब भारत और उसके राज्यों के वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री कहते हैं) करोड़ों आम भारतीय जनता के बहुमत से चुने जाएंगे, कुछ सौ सांसदों-विधायकों के बहुमत से नहीं। अन्यथा हम अपने गत 66 वर्षों का इतिहास ही दोहराते-तिहराते रहेंगे।

महाभारतकालीन विद्वान महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर के अनुसार- 'जो देश अपने विगत इतिहास से कुछ नहीं सीखते वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।'