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Written By WD

चुनाव पूर्व डीबेट - काश! यह अमेरिकी प्रथा भारत में भी होती....

- आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'

चुनाव पूर्व डीबेट - काश! यह अमेरिकी प्रथा भारत में भी होती.... -
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अमेरिका (यू.एस.ए.) 4 जुलाई 1776 को स्वतंत्र हुआ था- इंग्लैंड की गुलामी से। स्वतंत्रता के बाद बहुत से अमेरिकी नेता भी यह चाहते थे कि उनके देश में भी इंग्लैंड की तरह 'संसदीय शासन प्रणाली'- जिसमें देश का वास्तविक शासक प्रधानमंत्री होता है, अपनाया जाए। (शायद इसलिए चाहते थे कि गुलामी की 'बू' और उसका असर तुरंत तो जाता नहीं है !!! हमारे देश से तो विगत 66 वर्षों में भी नहीं गया।) किन्तु देश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी जॉर्ज वॉशिंगटन ने इसका कड़ा विरोध किया।

उन्होंने कहा कि हमें 'अध्यक्षीय शासन प्रणाली'- जिसमें देश का वास्तविक शासक राष्ट्रपति होता है, अपनाना चाहिए। जॉर्ज ने समझाया कि 'संसदीय शासन प्रणाली' इंग्लैंड जैसे छोटे से देश के लिए उचित हो सकता है, किंतु हमारे विशाल देश अमेरिका के लिए यह प्रणाली कदापि उचित नहीं है। (क्या इंग्लैंड की तुलना में भारत एक विशाल देश नहीं है? इंग्लैंड तो क्षेत्रफल में पूर्व मध्यप्रदेश से भी छोटा है)

वॉशिंगटन ने कहा 'यदि हम 'संसदीय शासन प्रणाली' अपनाते हैं तो अमेरिका के सभी प्रांतों में हमें मुख्यमंत्री भी बनाने होंगे। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सदनों (उदहारण के लिए भारत के सन्दर्भ में लोकसभा व विधानसभा) के 'लोकप्रिय व बहुमत प्राप्त नेता' हो सकते हैं किंतु सम्पूर्ण देश और अपने-अपने सम्पूर्ण प्रांत के भी वे सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हों - यह आवश्यक नहीं।

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'जबकि देश के वास्तविक शासक (राजा) को सम्पूर्ण देश में लोकप्रिय व देश की जनता का बहुमत प्राप्त नेता होना चाहिए' और राज्यों के वास्तविक शासकों को अपने-अपने राज्य में लोकप्रिय व राज्य की जनता का बहुमत प्राप्त नेता होना चहिए। (पता नहीं जॉर्ज वॉशिंगटन ने 'महाभारत' का नाम भी सुना था या नहीं जिसमें 'महाभारत' काल के सर्वाधिक विद्वान और महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर ने यह बात कई बार कही है) 'अमेरिकी संविधान निर्माण सभा' के सदस्यों (जिसमें जॉर्ज वॉशिंगटन ही सर्वाधिक दमदार नेता थे) और अन्य अमेरिकी नेताओं के बीच यह वाद-विवाद संविधान निर्माण के दौरान कई वर्षों तक चलता रहा।

लेकिन अंत में 'अमेरिकी संविधान निर्माण सभा' को जॉर्ज के मत के सामने झुकना पड़ा और सम्पूर्ण अमेरिका ने मिलकर जॉर्ज वॉशिंगटन को ही अपना प्रथम राष्ट्रपति चुन लिया। और तभी से अमेरिका अपने बहुमत से हर चार वर्षों में सम्पूर्ण देश का सबसे लोकप्रिय व्यक्ति या नेता यानी अपना राष्ट्रपति और अमेरिका के (अब) 50 राज्य अपने-अपने राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति या नेता यानी अपने-अपने राज्यपाल विगत 237 वर्षों से चुनते आ रहे हैं। वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा अमेरिका के 44 वें राष्ट्रपति हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति और अमेरिकी प्रांतों के राज्यपाल देश और अपने-अपने राज्य के वास्तविक शासक होते हैं। चूंकि प्रत्यक्ष अमेरिकी जनता उन्हें स्वयं अपने बहुमत से चुनती है। वे अपनी सरकार बनाने के लिए किसी अन्य दल या किसी बाहुबली के मोहताज़ नहीं होते। काश! 'भारतीय संविधान निर्माण सभा' में भी जॉर्ज वॉशिंगटन की तरह ही कोई दमदार नेता रहा होता तो, आज भारत में सम्पूर्ण देश का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता राज कर रहा होता और भारत के प्रांतों में उस राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता राज कर रहे होते।

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और विगत 66 वर्षों से सम्पूर्ण भारत और उसके राज्यों के 'सर्वाधिक लोकप्रिय और बेदाग' नेता हर पांच साल में जनता की बहुमत से चुने जाते रहते- जिन्हें अभी तथाकथित प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कहते हैं। कांग्रेस के भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपनी सरकार बचाए रखने के लिए समाजवादी दल प्रमुख मुलायम सिंह यादव तथा कुछ अन्य बाहुबलियों की बैसाखी के सहारे चलना पड़ता है।

बिहार के गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को अपना बहुमत साबित करने के लिए कांग्रेसी विधायकों की शरण में भी जाने में कोई संकोच नहीं होता है।

जैसे-जैसे भारत के 2014 के आम चुनाव पास आ रहे हैं। अमेरिका-प्रवासी भारतीय इस देश के 'इंडियन कम्युनिटी' के अखबारों व अमेरिकन समाचार पत्रों में भी जो 'संपादक को पत्र' व लेख लिख रहे हैं उसके सारांश की भी मैं यहां चर्चा करना चाहूंगा। वैसे तो हम प्रवासी भारतीय जिन विदेशों में बसे हुए हैं, वहां की और स्वदेश यानी भारत की कई चुनाव संबंधी बातों की तुलना करने की भावना स्वाभाविक रूप से हमारे मन में उठती हैं।

हम अमेरिका- प्रवासी भारतीय कई सुन्दर और अच्छी अमेरिकी प्रथाओं को देखकर सोचते हैं कि काश! ऐसी प्रथाएं भारत में भी होतीं तो सम्पूर्ण देश और राज्यों के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता (जिन्हे अमेरिका में राष्ट्रपति और राज्यपाल तथा भारत में तथाकथित लोकप्रिय नेताओं को फिलहाल प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कहते हैं) चुनना कितना आसान, पांच साल के लिए स्थायित्वपूर्ण, सहज और सुखद भी होता।


झारखंड में दस साल में दस बार ही मुख्यमंत्री नहीं अदले-बदले जाते और हमारे देश-राज्यों में बारम्बार मध्यावधि चुनाव भी नहीं होते। अमेरिका में तो आज तक मध्यावधि चुनाव नहीं हुए।

निस्संदेह इसका सबसे बड़ा कारण है अमेरिका में सरपंच से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनाव में दो मुख्य प्रतिद्वंदियों में से किसी एक को जनता ठोंक-बजा कर चुनती है और इस ठोंकने-बजाने का जबर्दस्त माध्यम या तरीका है- साक्षात अमेरिकी जनता के सामने दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के बीच चुनाव पूर्व तीन-चार बार 'प्रश्नोत्तर व वादविवाद प्रतियोगिता'( डीबेट) का आयोजन जिसे सम्पूर्ण अमेरिका टी.वी. पर 'लाइव' भी देखता है और कौन उम्मीदवार देश या अपने प्रांत के लिए ज्यादा योग्य है- इसका सहज ही आकलन कर लेता है।

इस आयोजन में जनता के बीच माइक्रोफोन घूम रहा होता है और जनता प्रत्याशियों से प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछते रहती है- 'यदि आप राष्ट्रपति/ राज्यपाल/सांसद/विधायक/ महापौर (मेयर)/सरपंच (जिसे अमेरिका में सुपरवाइजर कहते हैं)) चुने गए तो देश/ राज्य - (वगैरह) की अमुक समस्या का समाधान आप किस तरह करेंगे?'

कहना न होगा कि वर्तमान 'काले' अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अपने दोनों ही गोरे प्रतिद्वंद्वियों (2008 में जान मैक्केन व 2012 में मिट रोमनी) को भारी बहुमतों से हराया क्योंकि 'प्रश्नोत्तर व वादविवाद प्रतियोगिता' (डीबेट) में भी वे जनता के सामने विजयी रहे थे।

ओबामा की योग्यता और वाकपटुता के सामने उनके दोनों ही प्रतिद्वंद्वी बौने नज़र आए थे और गोरे-गोरी बहुल अमेरिकी जनता ने (अमेरिका की 80% जनता गोरे रंग की है) ने रंगभेद भुलाकर अपने देश के लिए पहली बार एक काले प्रतिभाशाली और देश के लिए जुझारू व्यक्ति को ही बहुमत से अपना राष्ट्रपति चुना और उन्हें देश का सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति साबित किया। तो काश! यह डीबेट-प्रथा भारत में भी होती या कमसे कम अब शुरू हो जाती।

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने इंग्लैंड की नकल करके 'संसदीय शासन प्रणाली' (यानी वास्तविक शासक-प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री वाली प्रथा) को तो अपना लिया पर विगत 66 वर्षों में भारत ने यह सिद्ध किया है कि यह निर्णय गलत था।

वैसे स्वयं महात्मा गांधी भी नहीं चाहते थे कि स्वातंत्र्योत्तर भारत ब्रिटिश संविधान का पिछलग्गू बने बल्कि वे तहेदिल से चाहते थे कि- स्वतंत्र भारत का वास्तविक शासक (चाहे उसके पद का नाम प्रधानमंत्री हो, राष्ट्रपति हो, गवर्नर जनरल हो या वाइसराय हो) स्वयं भारतीय जनता अपने बहुमत से हर पांच साल में चुने। लेकिन दुर्भाग्य से भारत के संविधान निर्माण के पूर्व ही गांधीजी की हत्या हो गई।

अन्यथा शायद 26 जनवरी 1950 को भारत में कोई और ही संविधान लागू हुआ होता- जो उनकी इच्छा के अनुरूप होता और यदि ऐसा हुआ होता तो आज देश में वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री कहते हैं)120 करोड़ जनसंख्या वाले देश में मात्र 300 से भी कम लोगों (सांसदों या विधायकों) के द्वारा नहीं चुने जाते बल्कि 120 करोड़ जनता की बहुमत से चुने जाते।


और प्रांतों में उस राज्य की जनता अपने बहुमत से अपने वास्तविक शासक चुनती। कहां 300 से भी कम लोगों द्वारा चुना वास्तविक शासक और कहां 120 करोड़ लोगों के बहुमत से चुना गया वास्तविक शासक !!!!! शायद एक छोटा बच्चा या एक अनपढ़ व्यक्ति भी बता सकता है कि इनमें से किसके द्वारा चुना वास्तविक शासक देश का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता होगा। या प्रांत का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता होगा।

संसदीय शासन प्रणाली अपना कर- दूसरे शब्दों में ब्रिटिश संविधान का पिछलग्गू बनकर हमने क्या हासिल किया?

तो उसके उत्तर हैं-
(1) ज्यादातर अल्पकालीन प्रधानमंत्री और उससे भी ज्यादा राज्यों के अल्पकालीन मुख्यमंत्री
(2) मिली-जुली,खिचड़ी और कमजोर सरकारें
(3) बारम्बार सरकारों के शक्ति-परीक्षण व बारम्बार मध्यावधि चुनाव
(4) असमयी चुनावों में अपार धन व्यय
(5) अधिकांश असंतुष्ट नेताओं द्वारा स्वयं की पार्टी का निर्माण व देश में राजनीतिक पार्टियों की भीड़
(6) हर साल किसी न किसी राज्य-सरकार का गिरना और वहां पर तथाकथित राष्ट्रपति शासन का लागू होना। विगत 66 वर्षों के स्वतंत्र भारत की राजनीति में बस यही हो रहा है।

भारत में अब तक हुए 15 प्रधानमंत्रियों में से आधे दर्जन प्रधानमंत्रियों (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी और डॉ. सिंह) को छोड़कर कोई भी अन्य प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (पांच वर्ष) पूरा नहीं कर सका। कुछ प्रधानमंत्रियों की सरकार तो 4 से 11 महीनों के अन्दर ही लुढ़क गई।


पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन को 'परस्त्रीगमन' (मोनिका लेविंस्की कांड) जैसा गंभीर अपराध सिद्ध होने के बावजूद भी जहां अमेरिकी संसद एड़ी-चोटी एक करके भी उन्हें उनके पद से नहीं हटा सकी थी (क्योंकि क्लिंटन- अमेरिकी संसद नहीं बल्कि सम्पूर्ण अमेरिकी जनता के बहुमत से राष्ट्रपति चुने गए थे)।

वहीं 'निरपराध' अटल बिहारी वाजपेयी (सरकार) को कभी मात्र एक व्यक्ति (जयललिता) ने गिरा दिया था (अपने दल का समर्थन वापस लेकर) और मात्र इस एक व्यक्ति ने सारे भारत को करोड़ों-अरबों-खरबों रुपयों के मध्यावधि चुनाव की आग में झोंक दिया था।

इस अपार धन से देश के लाखों बेरोजगारों के लिए फैक्ट्री-कारखाने खोलकर उन्हे रोजगार दिया जा सकता था। बोफोर्स कांड में यदि कुछ लोगों ने घूस खाया भी तो वह तो विदेशी धन था (जिसके लिए सारा देश इतना आग बबूला हुआ था कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका था।) लेकिन मध्यावधि चुनावों में तो स्वदेश का ही अपार धन भस्म होता है।


जस्टिस काटजू के इस कथन पर कि - '90 % भारतीय मूर्ख होते हैं'- करोड़ों भारतीय नाराज होंगे लेकिन 99 % भारतीयों को देश में होने वाले मध्यावधि चुनावों पर बर्बाद होने वाले अपार धन की कोई परवाह नहीं हैं। झारखंड में दस साल में दस बार ही मुख्यमंत्री अदले-बदले जाते हैं- ऐसी कमजोर सरकारों या शासन पद्धति (संसदीय शासन प्रणाली) का कोई दुख नहीं है।

जाहिर-सी बात है कि झारखंड का वास्तविक-शासक (तथाकथित मुख्यमंत्री) उस राज्य की जनता का बहुमत प्राप्त नेता नहीं बन पा रहा है। झारखंड के 2 करोड़ 70 लाख लोगों का वास्तविक शासक तो शायद 40 से भी कम लोगों द्वारा जोड़-तोड़ करके चुना जा रहा है। जिस दिन 2 करोड़ 70 लाख झारखंडी अपने बहुमत से अपना वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल मुख्यमंत्री कहते हैं) चुन लेंगे। वहां की सरकार पांच साल तक अबाध गति से चलती रहेगी।

झारखंड तथा भारत के अनेक राज्यों में सरकारें क्यों गिरती रहती हैं? इसका असली उत्तर हर झारखंडी, हर भारतीय जनता है पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? लेकिन जिस दिन बिल्ली के गले में घंटी बंध गई (यानी जिस दिन जनता तंग आकर स्वयं अपने बहुमत से- देश-राज्य के 'वास्तविक शासक' (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री कहते हैं) चुनने के लिए हुंकार भर उठेगी, उसी दिन से भारत की राजनीति में एक नई किरण फूटेगी।


1977 में तत्कालीन जनता पार्टी ने अपनी सरकार बनाते ही महात्मा गांधी की समाधि के सामने देश को 'अच्छी तरह से सम्हालने' की जो झूठी कसमें खाई थीं वह आज भी बहुतों को याद होगी। जब वे दो साल में ही अपनी कसमें-वादे भूल गए।

तो किसी ने उन पर एक अच्छा व्यंगात्मक लेख लिखा था 'क्या हुआ तेरा वादा ओ कसम ओ इरादा।' इस फिल्मी गीत की आगे की पंक्तियां हैं 'भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हे ओ दिन जिंदगी का आखरी दिन होगा।' और जिस दिन मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की वह सरकार अपने कसमे-वादे पूरी तरह से भूल गई वही उसका आखरी दिन भी साबित हो गया। कोई सवा दो साल वह सरकार चल पाई थी।

कदाचित वही सरकार देश भर में 'अल्पकालीन सरकारों और मध्यावधि-चुनावों' की बीमारी फैलाकर चली गई। शायद वही पहली गिरने वाली केंद्र-सरकार थी। जरा गंभीरता से सोच कर देखें। अब तक देश के केंद्र और राज्यों में अनगिनत सरकारें गिरने पर जो अनगिनत मध्यावधि-चुनाव हुए हैं, जिनमें करोड़ों-अरबों-खरबों रुपए भस्म हुए होंगे।

जैसा कि पहले कहा इस अपार धन से देश भर में इतने सारे उद्योग-धंधे-फैक्ट्ररियां खुल सकते थे कि उनमें देश के अधिकांश बेरोजगारों को अब तक काम मिल गया होता। वास्तव में मध्यावधि-चुनावों में अपार धन बर्बाद करके हम देश के बेरोजगारों के ही पेट पर लात मारते हैं।


'संसदीय शासन प्रणाली' की अपेक्षा 'अध्यक्षीय शासन प्रणाली' कई गुना ज्यादा मजबूत और टिकाऊ होती है। 'संसदीय शासन प्रणाली' अपनाए भारत में जहां 66 सालों में दनादन दस केन्द्रीय सरकारें व अनगिनत राज्य सरकारें गिरीं (झारखंड तो 'सीमा लांघ' चुका है जहां 10 साल में 10 बार ही मुख्यमंत्रियों की अदली-बदली हो चुकी हैं व कई तथाकथित राष्ट्रपति शासन लग चुके हैं) वहीं 'अध्यक्षीय शासन प्रणाली' अपनाए अमेरिका में 237 वर्षों में भी न तो एक भी केंद्र (राष्ट्रपति की) सरकार गिरी और न ही एक भी प्रांत (राज्यपाल की) ही सरकार गिरी।

भारत में अनगिनत सरकारें गिरने के कारण जहां मध्यावधि-चुनावों की भरमार है (दूसरे शब्दों में करोड़ों-अरबों-खरबों रुपयों की बर्बादी हुई) वहीं अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में सिर्फ एक मध्यावधि-चुनाव हुआ है। वह भी इसलिए कि वहां के गवर्नर के तीन वर्षों के कार्यों से असंतुष्ट होकर जनता ने उन्हें वापस बुला लिया था (अमेरिकी संविधान के नियमानुसार)।

हमारे संविधान-निर्माताओं को तब (1947-1950 में) यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह 'संसदीय शासन प्रणाली' आगे चलकर देश के लिए घातक सिद्ध होगी और सारे देश में यह एक दिन 'अल्पकालीन सरकारों और मध्यावधि-चुनावों' की बीमारी फैला देगा। संविधान-निर्माताओं ने तो यह कल्पना भी नहीं की होगी कि देश के पिछड़े-वर्गों और पिछड़ी जातियों के लिए वे जिस आरक्षण की व्यवस्था कर रहे हैं उसे कालांतर में स्वार्थी नेता अपने 'वोट-बैंक' में तब्दील कर लेंगे।

अतः उन्हें (हमारे संविधान-निर्माताओं को) रंचमात्र भी दोष देना बेकार है। वर्तमान परिस्थिति और समय की मांग के अनुसार हर देश में और भारतीय संविधान में भी 'संविधान-संशोधन' होते आए हैं। तो अब एक और क्यों नहीं हो सकता? यानी अब देश के 'संसदीय शासन प्रणाली' को बदल कर 'अध्यक्षीय शासन प्रणाली' भारत को अपना लेनी चाहिए। इस प्रणाली को अपनाते ही भारत के वास्तविक-शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री कहते हैं और वह फिलहाल देश के मुट्ठी भर लोगों के द्वारा चुना जाता है) सम्पूर्ण भारत की जनता के बहुमत से चुना जाएगा।


देश के राज्यों के वास्तविक-शासक भी (जिन्हें फिलहाल मुख्यमंत्री कहते हैं और फिलहाल वे भी अपने राज्य के बहुत थोड़े से लोगों के द्वारा चुना जाता है) अपने सम्पूर्ण राज्य की जनता के बहुमत से चुना जाएगा। जब भारत और उसके राज्यों के वास्तविक-शासक आम भारतीय जनता के ही बहुमत से चुने जाएंगे तो जाहिर-सी बात है कि वे सम्पूर्ण देश और अपने-अपने राज्यों के सर्वाधिक लोकप्रिय और बेदाग नेता होंगे।

जब इन 'वास्तविक-शासकों' को आम-जनता का ही बहुमत प्राप्त होगा तो वे सारी बुराइयां (सांसदों-विधायकों के खरीद-फरोख्त, दल-बदलू आदि का धंधा) स्वतः ही समाप्त हो जाएगा। यानी गंदी राजनीति की अपने-आप ही होलिका-दहन हो जाएगा।

बहुत से अमेरिका-प्रवासी लिखते हैं- भारत के लाख-दुखों की सिर्फ एक ही दवा है देश में सर्वथा असफल 'संसदीय शासन प्रणाली' को जड़-मूल से अब उखाड़ कर यहां से फेंक दिया जाए और आम भारतीय जनता के ही बहुमत से देश और राज्यों के 'वास्तविक-शासक' चुने जाएं।

चाहे उन पदों को आप जो भी नाम दें। सत्ता से चिपके- हमारे देश के नेतागण तो इसके लिए कोई कदम उठाने या कोई परिवर्तन लाने से रहे। तो स्वयं अपने और अपने देश के सुनहरे भविष्य के लिए देश की नई पीढ़ी, नौजवानों और बेरोजगारों को ही कमर कसना होगी और इस परिवर्तन के लिए आपको अपने भरपूर ताकत से आवाज़ उठानी होगी। बहुत से अमेरिका-प्रवासी भारतीय यह भी लिखते/ कहते हैं कि देश के वास्तविक शासक- (तथाकथित प्रधानमंत्री पद के) प्रत्याशियों के बीच भारत की समस्या-समाधानों हेतु डीबेट तो अवश्य ही होना चाहिए।

और जैसा कि अब माना जा रहा है देश की दोनों प्रमुख पार्टियों ने अपनी-अपनी पार्टी से प्रधानमंत्री पद के लिए नाम एक तरह से घोषित कर दिए हैं। यानी भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी व कांग्रेस ने राहुल गांधी के नाम। यद्यपि राहुल का नाम अभी नरेन्द्र की तरह 'लगभग तय' नहीं हुआ है। फिर भी यही दो नाम भारत के भावी प्रधानमंत्री प्रत्याशी समझे जा रहे हैं- अमेरिका में।

हम अमेरिका प्रवासी भारतीयों की यह दिली इच्छा है और प्रत्येक भारतीय मतदाता से यह निवेदन भी कि 2014 चुनाव के पूर्व वे नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के आपस में देश की समस्या-समाधानों के लिए 'प्रश्नोत्तर व वादविवाद प्रतियोगिता' यानी डीबेट आयोजित करवाएं। यदि भारत की जनता किसी तीसरे या अन्य व्यक्ति/नेता को भी देश के 'वास्तविक शासक' के योग्य समझती है, तो उसे भी मंच पर बुलाया जाए और वह भी डीबेट में हिस्सा ले और सरेआम अपनी योग्यता साबित करें।

इस आयोजन के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान है- दिल्ली का रामलीला मैदान। यह आयोजन सारा भारत भी टी.वी. पर देख सके- ऐसी व्यवस्था की जाए। अमेरिका में तो चुनाव पूर्व ऐसे कई आयोजन होते हैं। भारत में फिलहाल एक ही आयोजन प्रयोग के बतौर करके अवश्य ही देखा जाए।


कुछ प्रवासी यह भी लिख-कह रहे हैं 'प्लीज प्लीज प्लीज यह भुला दें कि नरेन्द्र मोदी बीजेपी के हैं और राहुल गांधी कांग्रेस के। आपको दोनों में से जो योग्य लगे- उसे देश के सर्वोच्च पद/वास्तविक शासक के लिए चुनिएगा। संयोग से दोनों नेताओं में बहुत से गुण मिलते भी हैं। दोनों देश में लोकप्रिय हैं, दोनों के प्रशंसकों की कमी नहीं है, दोनों कुंवारे हैं और दोनों हिंदी भी बहुत अच्छी बोलते हैं। जो भारत में बहुसंख्यकों की भाषा है।

दो नेताओं में से एक को चुनने का उनके बीच देश की समस्या-समाधान संबंधी 'प्रश्नोत्तर व वादविवाद' सर्वश्रेष्ठ तरीका है- इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती। भारतीय संसद और विधान सभाओं में तो बहुत सारे डीबेट होते रहते हैं। तो चुनाव पूर्व दो-तीन मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के बीच साक्षात जनता-मतदाताओं के सामने क्यों नहों हो सकते?

आम चुनाओं में मुख्य प्रतिद्वंद्वी देश-राज्य की समस्या-समाधान करें और साक्षात मतदाताओं के सामने अपनी प्रतिभा-योग्यता साबित करें। यदि एक बार यह प्रथा भारत में भी शुरू हो गई तो हर पांच साल में भारत और उसके राज्यों में देश और राज्य के बेदाग और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता ही वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कहते हैं) चुने जाते रहेंगे। और भारत सदा के लिए मध्यावधि चुनाओं के भस्मासुरी खर्चों से भी मुक्ति पा जाएगा लगता है।

देशभक्ति-पूर्ण गीत -
'हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे 'बच्चों' सम्हाल के'

को गीतकार प्रदीप जी ने सचमुच कहीं बहुत गहरे पैठ कर ही देश के 'बच्चों' यानी आज की नई पीढी़ यानी युवा वर्ग को ही संबोधित करके लिखा है। शायद उन्हें मालूम था कि भारत की नई पीढ़ी और युवा वर्ग ही देश में वह परिवर्तन ला सकता है जिसकी आज उसे जरूरत है।

सत्ता से चिपके हमारे देश के तथाकथित नेताओं से उस परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है। क्योंकि हम हजारों प्रवासी भारतीय भारत के प्रायः सभी प्रसिद्ध और बड़े नेताओं को पत्र लिख-लिख कर और ई-मेल भेज-भेज कर थक गए हैं- कि अब भारत से 'संसदीय शासन प्रणाली' समाप्त किया जाए और आम भारतीय जनता के ही बहुमत से वहां के वास्तविक-शासक चुने जाएं किंतु इनका उन पर कोई असर नहीं होता।

महाभारत कालीन विद्वान, महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर ने कहा था- 'जो देश अपने विगत इतिहास से कुछ नहीं सीखते वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।' और हम अपने 66 वर्षों के स्वातंत्र्योत्तर भारत का 'विगत इतिहास' लगातार दोहराए-तिहाराए जा रहे हैं। और इसका सबसे मुख्य कारण है- हमने 'संसदीय शासन प्रणाली' अपना रखा है और इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है- हम अपने देश व राज्य के वास्तविक शासक चुनने के लिए- 'अंध-मतदान' करने के लिए बाध्य होते हैं।

दूसरे शब्दों में आम भारतीय मतदाता को अपने देश व राज्य के 'वास्तविक शासक' (जिन्हें फिलहाल प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री कहते हैं) चुनने का अधिकार ही नहीं होता। जबकि अमेरिका में प्रत्येक नागरिक को अपने देश व अपने राज्य के 'वास्तविक शासक' (यानी राष्ट्रपति व राज्यपाल) चुनने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। और यह न्यायोचित अधिकार प्रत्येक भारतीय मतदाता को भी मिलना ही चाहिए और सही अर्थों में यही सच्चा लोकतंत्र है।

तो देश के नौजवानों 'कोऊ नृप होहिं हमही का हानि' का परित्याग कीजिए। उठिए, जागिए और तब तक मत रुकिए जब तक आप भारत के 'सर्वाधिक लोकप्रिय, योग्य और बेदाग नेता' की खोज करके उसके हाथों में देश की बागडो़र नहीं सौंप देते। ठीक यही प्रक्रिया आप भारत के राज्यों के लिए भी अपनाइए।

पुनः कविवर प्रदीप के शब्दों में- 'तुम गाड़ दो गगन में तिरंगा उछाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के।'