कोई नहीं है तुम बिन भारत का रखवाला....
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आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय' अमेरिका-प्रवासी एक भारतीय का यह लेख भारत की नई-पीढ़ी और उन नौजवान भाई-बहनों को संबोधित और समर्पित है। जिन्हें संबोधित करते हुए कभी देशभक्त कवि प्रदीप जी ने भी लिखा है -* हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के उट्ठो छलांग मार के आकाश को छू लो तुम गाड़ दो गगन में तिरंगा उछाल के तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल केइस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के 1962
के जुलाई के आखरी दिन थे। शायद 30 या 31 जुलाई का दिन था। तब मैं तिलकनगर म्युनिसिपल मिडिल स्कूल बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में कक्षा आठवीं का विद्यार्थी था। हमारे कक्षा-शिक्षक गणपत राव सप्रे हमारी कक्षा में आए और उस दिन उन्होंने पढा़या नहीं। कक्षा में उस दिन वे आते ही बोले- 'अब तुम्हारा स्कूल खुले एक माह हो चुका है।' (उन दिनों स्कूल ग्रीष्मावकाश के बाद 1 जुलाई से खुलते थे) तो आज तुम लोग अपने बहुमत से ही अपनी कक्षा का कप्तान चुनोगे। फिर उन्होंने कप्तान चुनने की एक छोटी-सी भूमिका बांधी और पिछले 20 सालों का इसका इतिहास बताया।
सप्रे सर पिछले 20 सालों से आठवीं के कक्षा-शिक्षक रहते चले आ रहे थे। कप्तान की ड्यूटी होती थी। यदि कक्षा-शिक्षक स्कूल के किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो तो विद्यार्थियों की हाजिरी लेना, किसी कारण से पीरियड खाली जा रहा हो तो कक्षा की निगरानी करना, जो विद्यार्थी अनुशासनहीनता कर रहे हो, हल्ला मचा रहे हो, उनके नाम नोट करना और कक्षा-शिक्षक के आने पर इन शरारती विद्यार्थियों के नामों की उन्हें लिस्ट देना। फिर ऐसे सभी विद्यार्थियों को कक्षा-शिक्षक से सजा मिलती थी। सप्रे जी ने बताया - 'शुरू के चार-पांच सालों में मैं अपने ही मन से किसी एक 'होशियार-विद्यार्थी' को कक्षा का कप्तान बना देता था। पर मैंने नोटिस किया कि डेढ़-दो महीनों में उस कप्तान की मेरे पास कई विद्यार्थियों से शिकायत आनी शुरू हो जाती थीं- जैसे 'सर इसने (कप्तान ने) जानबूझ कर अनुशासनहीनता के लिए मेरा नाम लिख दिया है क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं करता' वगैरह। जब शिकायतें बढ़ने लगतीं तब मैं उस कप्तान को हटा कर किसी दूसरे विद्यार्थी को यह काम (यानी कप्तानी का) सौंप देता था। लेकिन दो-तीन माह में उसकी भी शिकायत आनी शुरू हो जाती थी। तब मैंने निश्चय किया कि 'कप्तान उसे बनाया जाना चाहिए जिसे कक्षा का बहुमत पसंद करता हो।' इस निर्णय के बाद से ही हर जुलाई के अंत में मेरे विद्यार्थी अपने पसंद से, अपने बहुमत से ही अपनी कक्षा का कप्तान चुनते आ रहे हैं और फिर विगत 15 वर्षों में किसी कप्तान की कोई शिकायत नहीं आई है। फिर सप्रे जी ने 'गुप्त-मतदान' द्वारा हम विद्यार्थियों के बहुमत से ही पहले कप्तान के लिए दो प्रत्याशियों का चयन किया। फिर गुप्त मतदान से ही हम विद्यार्थियों ने अपने बहुमत से ही उनमें से एक को अपनी कक्षा का कप्तान चुना। सप्रे सर का कथन सच निकला। हमारी कक्षा के बहुमत से चुने गए उस कप्तान की कभी किसी ने शिकायत नहीं की और उसने अपना कार्यकाल (शिक्षा का सत्रांत) भी पूरा किया। 'आम जनता का बहुमत प्राप्त नेता हमेशा सफल शासक होता है। कभी उसकी सरकार नहीं गिरती और हमेशा वह अपना कार्यकाल पूरा करता है।' इन बातों का पहला पाठ हमें अपने गुरु- सप्रे सर से ही से ही मिला था।