उस चुनाव से क्या फायदा जिसके बाद फिर से कमजोर सरकार बनेगी
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डॉ. आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय' महाभारतकालीन विद्वान महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर ने कहा था कि 'जो देश अपने गत इतिहास से कुछ नहीं सीखते वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।' स्वतंत्र भारत अपने गत 66 वर्षों का इतिहास दोहरा नहीं, तिहरा भी नहीं (आगे के लिए शब्द भी शायद नहीं बने हैं) अतः कहना पड़ेगा कि भारत अपना गत इतिहास कई-कई बार दोहरा-तिहरा रहा है लेकिन फिर भी सबक नहीं ले रहा है। इससे दुखद और विडंबनापूर्ण बात देश में दूसरी और कुछ भी नहीं है।भारत में केंद्र में 13 दिनों से लेकर 13 महीनों के भीतर सरकार गिर जाना और इसके राज्यों में 10 साल में 10 बार सरकारें गिर जाना आम बात है। झारखंड राज्य इसका शाश्वत और साक्षात उदाहरण है, जहां 10 साल में 10 बार सरकार गिरी और 10 बार मुख्यमंत्रियों की अदली-बदली हुई तथा वहां कई बार तथाकथित राष्ट्रपति शासन लगाए गए।
भारत में हुए अब तक 15 प्रधानमंत्रियों में से आधे दर्जन प्रधानमंत्रियों (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी व डॉ. सिंह) को छोड़कर कोई भी प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) पूरा नहीं कर सका। अधिकांश प्रधानमंत्रियों की सरकार तो 4 से 11 महीनों के भीतर ही गिर गई थी।1999
में मात्र एक व्यक्ति (जयललिता) ने वाजपेयी सरकार को एक हल्के धक्के से गिरा दिया था और संपूर्ण देश को करोड़ों-अरबों-खरबों रुपयों के मध्यावधि चुनाओं की आग में झोंक दिया था। हमारे देश में ऐसी कमजोर शासन-प्रणाली काम करती है, यह हम शत-प्रतिशत भारतीयों लिए एक शर्मनाक बात है। प्रत्यक्षम किम प्रमाणं।कभी-कभी किसी अमेरिकी पार्टी में वे अमेरिकी मित्र, जो भारतीय राजनीति में भी दिलचस्पी रखते हैं व टीवी तथा कम्प्यूटर पर यहां के समाचार देखते-पढ़ते रहते हैं, अचानक हमसे कोई शर्मसार कर देने वाले सवाल पूछ लेते हैं। आपके यहां (यानी भारत में) सरकारें इतनी जल्दी-जल्दी कैसे गिर जाती हैं?
वास्तव में झारखंड में 10 साल में 10 बार सत्ता-परिवर्तन और वह भी अल्प-अल्पकाल में तथा कई बार राष्ट्रपति शासन लगने की ओर मेरा ध्यान एक अमेरिकी मित्र ने ही दिलाया था। किसी अमेरिकी प्रांत में 10 साल में 10 बार गवर्नर अदले-बदले जाएं इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।कोई अमेरिकी यह सवाल भी दाग देता है कि भारत में इतने सारे मध्यावधि चुनाव होते रहते हैं, इन चुनावों के लिए इतना पैसा कहां से आता है? चुनावों में पैसा बर्बाद करने के बजाय उसी पैसे से आप लोग बेरोजगारों के लिए कारखाने-फैक्टरियां क्यों नहीं खोल देते? वगैरह। 1947
में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने इंग्लैंड की नकल करके 'संसदीय शासन प्रणाली' (यानी वास्तविक शासक-प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री वाली प्रथा) को तो अपना लिया, पर गत 66 वर्षों में भारत ने यह सिद्ध किया है कि यह निर्णय गलत था।
वैसे स्वयं महात्मा गांधी भी नहीं चाहते थे कि स्वातंत्र्येत्तर भारत ब्रिटिश संविधान का पिछलग्गू बने बल्कि वे तहेदिल से चाहते थे कि स्वतंत्र भारत का वास्तविक शासक (चाहे उसके पद का नाम प्रधानमंत्री हो, राष्ट्रपति हो, गवर्नर जनरल हो या वाइसराय हो) स्वयं भारतीय जनता अपने बहुमत से हर 5 साल में चुने।लेकिन दुर्भाग्य से भारत के संविधान निर्माण के पूर्व ही गांधीजी की हत्या हो गई अन्यथा शायद 26 जनवरी 1950 को भारत में कोई और ही संविधान लागू हुआ होता, जो उनकी इच्छा के अनुरूप होता।और यदि ऐसा हुआ होता तो आज देश में वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री कहते हैं) 120 करोड़ जनसंख्या वाले देश में मात्र 300 से भी कम लोगों (सांसदों या विधायकों) द्वारा नहीं चुने जाते बल्कि 120 करोड़ जनता के बहुमत से चुने जाते और प्रांतों में उस राज्य की जनता अपने बहुमत से अपने वास्तविक शासक चुनती।कहां 300 से भी कम लोगों द्वारा चुना वास्तविक शासक और कहां 120 करोड़ लोगों के बहुमत से चुना गया वास्तविक शासक! शायद एक छोटा बच्चा या एक अनपढ़ व्यक्ति भी बता सकता है कि इनमें से किसके द्वारा चुना वास्तविक शासक देश का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता होगा या प्रांत का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता होगा।
संसदीय शासन प्रणाली अपनाकर, दूसरे शब्दों में ब्रिटिश संविधान का पिछलग्गू बनकर हमने क्या हासिल किया? तो उसके उत्तर हैं- (1) ज्यादातर अल्पकालीन प्रधानमंत्री और उससे भी ज्यादा राज्यों के अल्पकालीन मुख्यमंत्री (ताजा उदाहरण झारखंड है जिसने अल्प-अल्पकाल में सत्ता परिवर्तन के विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं), (2) मिली-जुली, खिचड़ी और कमजोर सरकारें, (3) बारंबार सरकारों के शक्ति-परीक्षण व बारंबार मध्यावधि चुनाव, (4) असमयी चुनावों में अपार धन-व्यय, (5) अधिकांश असंतुष्ट नेताओं द्वारा स्वयं की पार्टी का निर्माण व देश में राजनीतिक पार्टियों की भीड़, (6) हर साल किसी न किसी राज्य सरकार का गिरना और वहां पर तथाकथित राष्ट्रपति शासन का लागू होना। गत 66 वर्षों के स्वतंत्र भारत की राजनीति में बस यही हो रहा है। सबसे घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत और इसके राज्यों में बनने वाली अल्पकालीन सरकारों, देश-राज्य में अक्सर होने वाले मध्यावधि चुनावों, किसी राज्य में तथाकथित राष्ट्रपति शासन लगने व ज्यादातर किसी एक राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के सभी कारणों को हम सभी भारतीय भली-भांति जानते हैं लेकिन फिर भी इन समस्याओं का हल खोजने के बजाय गत 66 वर्षों से कुंभकर्णी नींद सो रहे हैं।कुंभकर्ण भी 6 महीनों में एक बार तो जाग ही उठता था लेकिन हम इन 66 वर्षों में एक बार भी नहीं जागे जबकि गत 66 वर्षों में 10 बार केंद्रीय सरकार गिरी, अनगिनत राज्य सरकारें गिरीं। भारत में मात्र 13 दिन के लिए कोई प्रधानमंत्री बना और कुछ-कुछ महीनों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अनगिनत मध्यावधि चुनावों की तो भरमार है। प्रत्यक्षम किम प्रमाणं।
क्या यह विश्व का 8वां आश्चर्य नहीं है? 2014 के चुनाव पास आ रहे हैं लेकिन उस चुनाव से क्या फायदा होगा जिसके बाद फिर से भारत और इसके राज्यों में पुनः कमजोर सरकारें बनेंगी और कुछ-कुछ दिनों या कुछ-कुछ महीनों में सरकारें गिरती रहेंगी और मध्यावधि चुनाव होते रहेंगे और झारखंड के गत 10 वर्ष और भारत के ज्यादातर अल्पकालीन प्रधानमंत्रियों के इतिहास हम बारंबार दोहराते-तिहराते रहेंगे।राजनीति के महापंडित विदुर ने यह बात भी धृतराष्ट्र से कई बार कही है कि देश के राजा को अपने देश की जनता का बहुमत प्राप्त नेता भी होना चाहिए (क्योंकि विदुर जानते थे कि देश के बहुमत प्राप्त या लोकप्रिय नेता दुर्योधन नहीं, युधिष्ठिर हैं)।लेकिन विडंबना यह है कि प्राचीन भारत के इस महान राजनीतिज्ञ महात्मा विदुर के ज्ञान को अमेरिका (यूएसए), दक्षिण अफ्रीका व फ्रांस सहित दुनिया के 50 से भी ज्यादा देशों ने तो अपना लिया और स्वयं विदुर के भारत ने राजनीति के उस मूल मंत्र को भुला दिया है कि देश के राजा को (आज के संदर्भ में देश के वास्तविक शासक को) देश की जनता का बहुमत प्राप्त नेता भी होना चाहिए।भारत का वास्तविक शासक तथाकथित प्रधानमंत्री तो 300 से भी कम लोगों द्वारा चुना जाता है जबकि उसे चुना जाना चाहिए 120 करोड़ भारतवासियों के बहुमत से, क्योंकि भारत 'संसदीय शासन प्रणाली' (जिसमें देश-राज्य के वास्तविक शासक प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री होते हैं) अपनाकर इंग्लैंड का पिछलग्गू बन गया।
और भारत का यही पिछलग्गूपन ब्रिटिश संविधान की नकल ही झारखंड के गत 10 वर्षों व भारत के अल्पकालीन प्रधानमंत्रियों का दुखद इतिहास और त्रासदी बनकर रह गया है। प्रत्यक्षम किम प्रमाणं।तो यह त्रासदी (अल्पकालीन सरकारों और मध्यावधि चुनावों की बीमारी जिसमें देश के अपार धन भस्म होते रहते हैं) कोई दूर कर सकते हैं तो स्वयं भारतवासी ही, लेकिन इन 'भारतवासियों' में हमारे देश के तथाकथित नेता शामिल नहीं हैं। यदि वे होते तो गत 66 वर्षों में वे इसे दूर ही नहीं, समाप्त कर चुके होते।उन तथाकथित नेताओं को तो लोकसभा चुनावों के बाद येन-केन-प्रकारेण 300 सांसदों को अपने पक्ष में करने मात्र की फिक्र रहती है, 120 करोड़ भारतवासियों को नहीं। तो इसमें शामिल हैं देशभक्त कवि प्रदीप के गीत 'इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के' के बच्चे यानी आज का युवा भारत, आज के युवक-युवतियां यानी भारत की नई पीढ़ी।तो भारत के युवक-युवतियां- जागिए, उठिए और मांग कीजिए कि आगामी लोकसभा चुनावों में भारत का वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल प्रधानमंत्री कहते हैं) भारत की आम जनता स्वयं अपने बहुमत से चुने। चाहे यह मांग संविधान संशोधन के जरिए पूरी हो या अब नई प्रथा डालकर।
अभी हाल के वर्षों में न केवल भारत के युवा वर्ग ने बल्कि संपूर्ण देश ने देश में हो रहे अन्यायों व अत्याचारों के खिलाफ जो अपनी जबर्दस्त आवाज उठाई है वह काबिल-ए-तारीफ है। उनकी आवाज न केवल सुनी गई बल्कि अनुकूल फैसले भी लिए गए।तो अपने देश की कमजोर सरकारों को सशक्त बनाने के लिए भी हमें अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए और निस्संदेह वे सुनी जाएंगी और उनके भी अनुकूल परिणाम होंगे। अमेरिका (यूएसए), फ्रांस और दक्षिण अफ्रीका में आज तक सरकारें क्यों नहीं गिरीं? क्योंकि इन देशों के वास्तविक शासक (राष्ट्रपति) इन देशों की आम जनता स्वयं अपने बहुमत से चुनती है। सीधी और सरल-सी बात है कि जो आम जनता का बहुमत प्राप्त शासक होगा वह संपूर्ण देश का सर्वाधिक लोकप्रिय और बेदाग नेता भी होगा। यह तो तय है कि जो नेता दागी है उसे संपूर्ण देश अपना बहुमत कभी भी नहीं देगा।बीजेपी से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के प्रत्याशी घोषित हो चुके हैं। अभी तक तो कांग्रेस ने राहुल गांधी को 'छुपा रुस्तम' बनाकर रखा है, पर वे भी जल्द ही प्रकट होंगे यह सारा देश और प्रवासी भारतीय भी जानते हैं।और यह लगभग तय है कि देश के 'वास्तविक शासक' के लिए इन्हीं दो महाबलियों के बीच मुकाबला होगा। (क्षमा करेंगे- भारत और इसके राज्यों में इतने ज्यादा प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री गिरते रहते हैं कि बहुत से प्रवासी भारतीय इन दोनों पदों के नाम लेने के बजाय 'वास्तविक शासक' कहना ज्यादा पसंद करते हैं जिनमें से मैं भी एक हूं)।तो भारत का युवा वर्ग ही नहीं (यद्यपि पहल तो उसे ही करना होगा) बल्कि देश के संपूर्ण मतदाता यह खयाल रखें कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी मात्र 300 सांसदों के द्वारा देश पर लादे न जाएं बल्कि 120 करोड़ भारतीय जनता के बहुमत से चुने जाएं।और यदि ऐसा हुआ तो भारत के राज्यों के लिए भी यही प्रक्रिया स्वयमेव प्रशस्त हो जाएगी और 10 वर्षों से बिना ऑक्सीजन के तड़पता झारखंड भी खुली हवा में सांस ले सकेगा!