प्रवासी कविता : बेहया
- डॉ. सरोज अग्रवाल
आज देश की स्थितिजाने किस मोड़ पर खड़ीबेहया और बेशर्मी कीकोई सीमा अब नहीं रहीकर्म-अकर्म का मानव कोरहता नहीं जब कुछ ज्ञानतभी अनागत के कुटिल चरण कापा सकता नहीं कुछ भानलूटपाट औ अनाचार ने कैसा रंग जमायाअपने ही हाथों ने अपने मुख कालिख लगवाया।अरे बावले रहा न तुझकोजीवन मूल्य का तनिक-सा भी यह ज्ञानअपनी ही माता का तू खुद ही कर रहा अपमानक्रूर दिमाग औ पिशाच-सा करते तुम ताण्डव नर्तनअनाचार ने हद कर दी ऐसा भी क्या वहशीपन।कहीं नन्ही बालिका को नशा पिलाकरतो कहीं बांधकर हाथ और पैरफिर भी चैन न पाया ओ पागलअंतड़ियों को तक को दिया चीर।सामूहिक बलात्कार का नग्न प्रदर्शनहुई न तेरे हृदय को पीररूह न कांपी ओ पापी, इतने पर भी न आया चैनअपनी कालिमा छुपाने, कर दिया उसका बलिदान।कहीं जलाकर, कहीं तड़पाकरजीवन तक को भी न छोड़ाओ कायर मर्दानगी वालेमस्तक में ये कैसा कीड़ा दौड़ा।स्वर्गलोक उनको पहुंचाकरतू शायद मद-मस्त बनामुक्ति दिलाकर नव कलिकाओं कोतू तो है उन्मुक्त हुआ।कर्म और कर्मफलक्या कभी पीछा छोड़ पाएंगेअपनी ही अग्नि में जलाकरतुझे भस्म कर जाएंगे।हे ईश कैसी तेरी यह लीलाअनाचार कर दिया लीनतूने ये क्या आंख मूंद लीहो किस माया के आधीन।आज यह उक्ति सार्थक सी लगतीयद्यपि उसका अस्तित्व नहींहोता नंग बड़ा परमेश्वर सेक्या यह कोई विडम्बना नहीं।