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Written By Author संदीप तिवारी

क्या कश्मीर की इस हकीकत से वाकिफ हैं आप...

क्या कश्मीर की इस हकीकत से वाकिफ हैं आप... - truth of Kashmir
जब-जब कश्मीर घाटी में अशांति और हिंसा होती है, तब तब कहा जाता है कि वहां के युवा बेरोजगार हैं, सरकारी सहायता और कार्यक्रमों को लेकर निराश हैं। लेकिन देश के लोगों को जानना चाहिए कि देश के कम से कम सात राज्यों की प्रति व्यक्ति आय जम्मू-कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय से कम है।   
 
आबादी के लिहाज से केन्द्र सरकार से कश्मीर को उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों की तुलना में अधिक सहायता मिलती है। शिक्षा के मामले में भी छह राज्य जम्मू-कश्मीर से खराब हालत में हैं, लेकिन इन राज्यों के युवा तो सुरक्षा बलों पर पत्थर नहीं फेंकते और न ही इन राज्यों को लेकर स्वयंभू मानवाधिकार रक्षक गला फाड़ते हैं।
 
देशभर में 20 हजार 306 सरकारी अस्पताल हैं जिसमें सबसे ज्यादा 3145 राजस्थान में हैं। दूसरे नंबर पर 2812 अस्पतालों के साथ जम्मू-कश्मीर है। सारे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जम्मू-कश्मीर के छात्रों के लिए कोटा है और उन्हें स्पेशल छात्रवृत्ति भी मिलती है। राज्य की करीब सवा करोड़ की आबादी में से लगभग 99 लाख लोग सरकार की ओर से मिलने वाले रियायती राशन का लाभ उठाते हैं।  
 
धारा 370 को लेकर आसमान सिर पर उठा लेने वाले बताएं कि जितना पैसा कश्मीर को दिया जाता है उतना भारत के किसी दूसरे राज्य को क्यों नहीं मिलता है? समझा जा सकता है कि कश्मीर के भारत से जुड़ने में कई राजनीतिक खामियां रह गईं, लेकिन कश्मीर के कथित संघर्ष को वहाबी-सलाफी कौन बना रहा है? घाटी से पंडितों को खदेड़कर पूरे संघर्ष को सांप्रदायिक बनाने में क्या कश्मीरी आवाम जिम्मेदार नहीं है? सवाल यह भी है कि कश्मीर भारत में शामिल कैसे हुआ?   
 
क्या यह राजा हरिसिंह का लालच था? कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सैनिक किसने भेजे? जो खाली खत में अपनी शर्तें भरने का ख्वाब हरिसिंह को दिखा रहे थे... जो शेर-ए-कश्मीर को जेल से रिहा करने को तैयार नहीं थे। श्रीनगर तक यह कथित कबायली पहुंच गए तब हरिसिंह ने हिंदुस्तान से मदद मांगी। शर्त थी शेख अब्दुल्ला की रिहाई और भारत में विलय... और शर्त क्यों न हो? बतौर राष्ट्र कश्मीर हमारी रणनीतिक-सामरिक ताकत है। तब से कश्मीर के स्थानीय नेता और कश्मीरी अवाम भारत को ब्लैकमेल करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते आए हैं।
 
पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले अलगाववादी नेता (जो कि अलगाववादी कम गद्दार ज्यादा हैं) को केन्द्र सरकारों ने इतनी मदद दी कि उन्हें लगा कि अब सरकारों को डरा-धमकाकर तो और भी ज्यादा पाया जा सकता है। हिंदू बहुल हिंदुस्तान में मुस्लिमों के जिस कथित डर के चलते पाकिस्तान बना था, क्या वह सही अर्थों में उचित था? मुस्लिमों को डर था कि उन पर अत्याचार होगा, उनका धार्मिक उत्पीड़न होगा लेकिन जब हिंदू पंडितों को कश्मीर घाटी से मार-मारकर भगाया गया तब हिंदू बहुल देश की केन्द्र सरकार ने पंडितों की कोई मदद की?    
 
तब क्या हिंदुओं इसका हिंसक विरोध किया? क्या कश्मीरी पंडित आत्मघाती हमलावर बन गए? वास्तविकता तो यह है कि भारतीय और विशेष रूप से हिंदू मानसिकता में कायरता इतनी भरी हुई है कि वे कभी भी अपने आपको नहीं बदल सके? सैकड़ों, हजारों वर्षों की गुलामी ने हमें सिखाया है कि दूसरा हमारे साथ कुछ भी करे हमें हथियार नहीं उठाना है। कथित धर्मनिरपेक्षतावादी वामपंथी और उदारवादी विचारक यह बताएंगे कि क्या कभी कुरान और हदीसों में परिवर्तन होगा? कभी और किसी भी कीमत पर नहीं। 
क्यों मानी जाती हैं अनुचित मांगें... पढ़ें अगले पेज पर....

इसलिए भारत गणराज्य ने मुस्लिमों में बदलाव लाने के लिए उनकी उचित-अनुचित सभी प्रकार की मांगें मानने या ‍तुष्टिकरण का लिखित नियम ही बना लिया। कश्मीर के इस्लामीकरण के पीछे जितना पाकिस्तान जिम्मेदार है, उससे ज्यादा वे नेता और राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं जो कि वोट की खातिर कुछ भी करने को तैयार रहते है। इसके लिए सभी राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय दल जिम्मेदार हैं।
 
जिस तरह कांग्रेस, भाजपा के बाद सपा, बसपा, राजद और तृणमूल कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों ने मुस्लिमों का इतना तुष्टिकरण किया है कि अगर अगले दशक में भारत में जिहादी खतरा न पैदा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे में बहुत सारे नेता हिंदू आतंकवाद का रोना रोते हैं लेकिन क्या वे ऐसे किसी ऐसे कट्‍टर हिंदू का नाम बता सकते हैं जिसने आत्मघाती बम हमलावर बनने का इतिहास रचा हो? 
 
क्या देश के नेताओं को यह नहीं दिखता है कि घाटी में जो कुछ भी हो रहा है, वह पाकिस्तान प्रायोजित है, जहां जिहादी गुट हिजबुल्लाह, हमास की तरह से सरकार का हिस्सा बन गए हैं? यह भी लगभग तय है कि पाकिस्तान में तो इस्लामी आतंकवाद मस्जिदों से सेना की बैरकों तक पहुंच गया है और इसका अगला निशाना बांग्लादेश जैसे देश होंगे।
 
जिहादी विचारधारा के फलने-फूलने का प्रमुख कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र-राज्य की कल्पना छिन्न-भिन्न हो गई है। साथ ही, चूंकि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं शक्तिहीन और ताकतवर देशों की रखैल बन गई हैं, इसलिए जिहादवाद का अगला स्रोत मध्यपूर्व है जहां अमेरिका समेत सभी ताकतवर देशों ने इन्हें अत्याधुनिक हथियार देने से कोई परहेज नहीं किया। इस मामले में अमेरिका का रवैया पूरी तरह से दोगलेपन का रहा है जो कि एक तरह तो आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ता रहा है और दूसरी ओर सऊदी अरब, तुर्की, यूएई और पाकिस्तान ने अपने पड़ोसी देशों को अस्थिर करने और इस्लामवाद फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।        
 
लेकिन, 80 के दशक में हुए विधानसभा चुनावों में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट हार से इस कदर बौखलाया कि उसके नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके सहयोगी पाकिस्तान और अलगाववाद समर्थक नेताओं के साथ जा मिले। इस चुनाव में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने कांग्रेस समर्थक, नेशनल कॉन्फ्रेंस, को जिताने के लिए साथ मिलकर भारी धांधली की। इसके बाद से घाटी में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ। इतना ही नहीं,  सन 1989 में 109 पंडितों की हत्याएं होने के बाद घाटी से पंडित घरों को छोड़कर भागने लगे। केन्द्र में कांग्रेस के राज में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। पाक समर्थक घाटी में आम जनता का उत्पीड़न करने लगे।   
 
और जहां तक पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का सवाल है तो इसने पहले जिन आतंकी राक्षसों को पाला, बाद में उन्हें मध्यपूर्व के देशों में और अफगानिस्तान में स्थापित कर दिया। मध्यपूर्व में धार्मिक कट्‍टरता की खाद पाकर ये जिहादी गुट इतने ताकतवर हो गए कि इन्होंने अमेरिका और रूस जैसे देशों को चुनौती देना शुरू कर दिया। धार्मिक कट्टरता हमारे मध्यकालीन इतिहास की देन है जब दिल्ली में गुरु तेगबहादुर ने अपना धर्म बदलने से इनकार कर दिया था तो उनकी बेटों समेत हत्या करवा दी गई थी।  
 
एक लम्बे समय से भारत छोटे-छोटे जिहादों को झेलता आ रहा है। केरल में एक पूरे का पूरा जिला ही मुस्लिमों की जागीर बन गया है और एक ईसाई प्रोफेसर के हाथ का पंजा इसलिए काट दिया गया था क्योंकि उसने प्रश्नपत्र में ऐसा सवाल पूछ लिया था जिससे पैगंबर, इस्लाम की बेइज्जती हो गई थी। इतना ही नहीं भारत में यह इतनी बारंबारता से होता है कि कभी कभी लगता है कि हम पाकिस्तान, सऊदी अरब में रह रहे हैं और भारत में हिंदू आबादी बहुसंख्यक नहीं वरन अल्पसंख्‍यक है।  
 
वर्ष 1901 में अमेरिकी राष्ट्रपति विलियम मैककिनली की एक शरणार्थी ने हत्या कर दी थी। यह व्यक्ति भी जिहाद के दर्शन से बहुत प्रभावित था। हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस्लाम एक दर्शन है, एक धर्म है, विचारों का एक सिस्टम है, एक विचारधारा है, एक खास तरह की राजनीति और विचारों का आंदोलन है। यह अपने आप में सभी कुछ है और आप इस्लामवाद को इस्लाम की कार्यपद्धति के तौर पर समझ सकते हैं और जिहाद, इस्लाम की विचारधारा का सशस्त्र संस्करण है। यह दोनों तरीके से काम करता है, शांतिपूवर्क भी और हिंसात्मक तरीके से भी। यह विचारधारा समूची दुनिया को चौदहवीं सदी में वापस ले जाने का दुराग्रह रखती है।  
यह है जिहाद की हकीकत... पढ़ें अगले पेज पर....

जहां तक भारत की बात है तो यहां पहले से मुस्लिमों को छूट मिली हुई है कि वे विवाह, तलाक और वक्फ संबंधी मामलों का निपटारा अपनी शरिया के हिसाब से कर लें। जबकि सभी जानते हैं कि इससे कथित लोकतांत्रिक देश की न्याय प्रणाली और महिलाओं के अधिकारों का दमन होता है। वामपंथी, फासीवादी और जिहादी, मूल रूप से वह पढ़ा लिखा तबका होता है और जो जन सामान्य से अलग होता है।
 
कुछ समय पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक समाचार पत्र 'नई दुनिया' में एक पुस्तक 'और तलवार टूट गई' के बारे में जानकारी छपी। नसीम हिजाजी नाम के विद्वान लेखक ने भारतीय मुस्लिमों के दिमाग में जिहादी मानसिकता पैदा करने पर बल दिया। समाचार पत्र में यह भी छपा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, मक्का स्थित काबा पर परमाणु बम गिराने की योजना रखते हैं।    
 
यह उस राष्ट्रपति के बारे में कहा गया है जिसने अपने दो कार्यकालों में कभी भी 'मुस्लिम आतंकवाद' जैसा शब्द सरकारी कागजातों में शामिल नहीं होने दिया। जिन्हें सऊदी अरब का सबसे करीबी सहयोगी और कारोबारी सहयोगी माना जाता है। ओबामा ने अपने कार्यकाल में अकेले सऊदी अरब को ही रिकॉर्ड धनराशि के हथियार उपलब्ध कराए हैं और तुर्की, मिस्र और मध्यपूर्व में इस्लामी आतंकवाद को जड़ें जमाने में भरपूर मदद की। ओबामा एक लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति हैं और हमारा देश भी लोकतंत्र का पालन करता है। इसलिए जब कभी आतंकवाद सिर उठाता है तो हम सारी बातों को आपसी विचार विमर्श से हल करने की कोशिश करते हैं।  
 
कश्मीर का आतंकवाद भी इसका कोई अपवाद नहीं है और बड़े-बड़े नेताओं, ज्ञानियों और जानकारों का कहना है कि कश्मीर का हल भी बातचीत से निकल आएगा। लेकिन कब, पता नहीं? हमारे सामने अलगाववादी दो विकल्प चाहते हैं या तो पाकिस्तान से मिलने की आजादी हो या फिर 'कथित आजाद कश्मीर' से मिलने की आजादी मिले। लेकिन हम हमेशा से कहते रहे हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन जिसके रोम-रोम में पाकिस्तान बसा है? क्या हम यह हिस्सा भी पाकिस्तान को दे सकते हैं? यह सवाल सिर्फ घाटी के पाकिस्तान परस्त सुन्नियों का नहीं है। घाटी में शिया भी हैं, सिख, हिन्दू, बौद्ध भारत में रहना चाहते हैं, लेकिन अलगाववादी चाहते हैं कि समूचे राज्य को केवल मुस्लिम राज्य बना दिया जाए?  
 
क्या हम ऐसे चंद लोगों के सामने घुटने टेक दें जोकि कोई भी समस्या को तलवार के जोर पर हल करना चाहते हैं?  फिर सवाल यही है किससे बात करें और कितनी बातचीत करें? लोगों की नाराज़गी क्या है? क्या वहां का युवा शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार जैसे मुद्दों पर ध्यान नहीं देता? कश्मीर राजनीतिक समस्या है लेकिन भारत दुनिया में एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश है जहां राष्ट्रविरोधियों, गद्दारों को सिर पर बिठाया जाता है। 
 
चीन अंतरराष्ट्रीय पंचाट के फैसले को रद्दी की टोकरी में डाल देता है, मात्र आशंका के आधार पर अमेरिका दुनिया के कई देशों को बरबाद कर सकता है लेकिन हम अगर हिंसक लोगों को कुचलने की बात करें तो यह मानवाधिकारों का हनन होता है? सैनिकों पर प्राणघातक हमले करना, उनके हथियार छीनना या उनकी हत्या करना कोई छोटा अपराध नहीं, राष्ट्रद्रोह के दायरे में आता है। लेकिन फिर भी हमारे देश के बुद्धिजीवी, नेता, राजनीतिक दल चाहते हैं कि हम अपने सैनिकों की हत्या करने की भी छूट दे दें। उन सैनिकों की हत्या करने की छूट जो कि अपनी जान देकर लड़ाइयां जीतते हैं और जिन्हें संधि, वार्ताओं की मेजों पर बैठे हमारे नेता गंवा देते हैं। आखिर इन सैनिकों के बलिदान की, खून की कोई कीमत है भी या नहीं?   
 
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