नई दिल्ली, जैविक अपशिष्ट पदार्थों में बहुत अधिक ऊर्जा अंतर्निहित होती है। कचरे के उपचार के साथ उससे ऊर्जा उत्पन्न करने में पूरी दुनिया में रुचि बढ़ रही है, क्योंकि इससे 'एक पंथ, दो काज' सिद्ध हो सकते हैं।
माइक्रोबियल फ्यूल सेल (एमएफसी) एक ऐसी ही बायोइलेक्ट्रोकेमिकल प्रक्रिया है, जिसमें बैक्टीरिया द्वारा उत्प्रेरित जैव-रासायनिक प्रतिक्रिया से प्राप्त इलेक्ट्रॉनों का उपयोग करके ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है।
एक नये अध्ययन में यह पता चला है कि पादप-आधारित माइक्रोबियल फ्यूल सेल, शैवाल (Algae) आधारित तंत्र की तुलना में अपशिष्ट जल से बिजली उत्पादन में कहीं अधिक सक्षम हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), जोधपुर के जैव विज्ञान एवं जैव आभियांत्रिकी (बायोसाइंस ऐंड बायोइंजीनियरिंग) विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ मनु छाबड़ा के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया है।
अपशिष्ट जल का शोधन आज के दौर की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। जल की उत्तरोत्तर बढ़ती खपत के साथ घरेलू अपशिष्ट जल की मात्रा में बढ़ोतरी हो रही है।ऐसे में उसके निपटान एवं शोधन के लिए नई तकनीकों का विकास आवश्यक है।
आईआईटी, जोधपुर द्वारा विकसित तकनीक इस दिशा में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। जैविक अपशिष्ट पदार्थों में बड़ी मात्रा में गुप्त ऊर्जा समाहित रहती है। वहीं सामान्य घरेलू कचरे के समाधान में करीब नौ गुना अधिक ऊर्जा की खपत होती है। यही कारण है कि आज जल शोधन की प्रक्रिया में निकले कचरे से ऊर्जा उत्पादन में पूरे विश्व की रुचि है।
माइक्रोबायल फ्यूल सेल (एमएफसी) ऐसा डिवाइस है, जो अपशिष्ट जल में कार्बनिक पदार्थ को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करता है। हालांकि माइक्रोब्स से ऊर्जा उत्पादन का विचार एकदम नया नहीं है। वर्ष 1911 में डरहम विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र के प्रोफेसर माइकल पॉटर ने इस आशय का विचार प्रस्तुत किया था।
प्रोफेसर छाबड़ा ने बताया है कि हालिया शोध में जिस फ्यूल सेल्स का इस्तेमाल हुआ है वह दो समस्याओं का एक साथ समाधान करता है। इससे जहां कचरे के निपटान की समस्या सुलझ जाती है, वहीं इससे ऊर्जा भी प्राप्त होती है।
वास्तव में एमएफसी में जीवित सूक्ष्मजीवी अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थों पर सक्रिय रहते हैं और बाहरी भार से निकाले गए इलेक्ट्रॉनों को मुक्त करते हैं, जिससे बिजली उत्पन्न होती है।
प्रकाश संश्लेषक एमएफसी, ईंधन सेल के कैथोड पर अपशिष्ट से ऑक्सीजन उत्पन्न करने के लिए शैवाल या पौधे का उपयोग करते हैं। हाल के वर्षों में एलेगी आधारित तंत्रों पर व्यापक रूप से अध्ययन हुआ है, क्योंकि शैवाल बहुत तेजी से वृद्धि करते हैं, परंतु उत्पादन की स्थिति के दृष्टिकोण से संवेदनशील हैं। वहीं पादप- तंत्र धीमे-धीमे विकसित होते हैं और एलेगी आधारित आधारित एमएफसी की तुलना में कम क्षमता वाले लेकिन उनसे अधिक मजबूत होते हैं।
इस अध्ययन का दौरान शोधकर्ताओं ने शैवाल और पादप आधारित एमएफसी के प्रदर्शन की प्रयोगात्मक तुलना की है।' दोनों की तुलना प्रदूषक हटाने की दक्षता और विद्युत ऊर्जा उत्पादन की दक्षता के संदर्भ में भी की गई है।
शोधकर्ताओं ने पादप आधारित एमएफसी के लिए कैन इंडिका और शैवाल-आधारित एफएमसी के लिए क्लोरेला वल्गारिस का प्रयोग किया है। अध्ययन के क्रम में, आईआईटी जोधपुर के विकेन्द्रीकृत अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र से प्राप्त प्राकृतिक अपशिष्ट-जल का उपयोग किया गया। “हमने पाया कि पादप आधारित एमएफसी बेहतर अनुकूल हैं क्योंकि वे मजबूत, स्थिर हैं और बिजली उत्पादन के दृष्टिकोण से भी बेहतर हैं, प्रोफेसर छाबड़ा बताते हैं।
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (डीएसटी) विभाग की सहायता से पूर्ण हुआ यह शोध बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी नाम के जर्नल में भी प्रकाशित हुआ है। प्रोफेसर छाबड़ा के साथ आरती शर्मा, संजना गजभिये और श्वेता चौहान इस शोध की सह-लेखिका हैं।
(इंडिया साइंस वायर)