गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By Author वृजेन्द्रसिंह झाला

बढ़ता तापमान खतरे की घंटी, डूब जाएंगे शहर, महामारियों का भी डर

Rising temperature is a threat
Global Warming and Climate change : धरती का लगातार बढ़ता तापमान पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। यदि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो लू का प्रकोप वर्तमान के मुकाबले कई गुना बढ़ जाएगा, वहीं ग्लेशियर भी पिघलने लगेंगे। इसका असर यह होगा कि समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा और समंदर के किनारे मौजूद कई शहर इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएंगे। ऐसे डूबने वाले शहरों में भारत के भी कई नगर होंगे। इतना ही नहीं गर्मी से होने वाले बीमारियों का खतरा भी कई गुना बढ़ जाएगा। फिलहाल यह चेतावनी के स्तर पर है, लेकिन यदि समय रहते बढ़ते तापमान को नहीं रोका गया तो यह समूची मानवता के लिए ही खतरा बन जाएगा। 
 
संयुक्त राष्ट्र की इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) रिपोर्ट के मुताबिक यदि आशंका के अनुरूप वैश्विक तापमान अगले 20 वर्षों में स्थायी रूप से 1.2 डिग्री बढ़ गया तो भारत में लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो 40 प्रतिशत भारतीयों को जल संकट कर सामना करना पड़ सकता है। वर्तमान में यह आंकड़ा 33 फीसदी के आसपास है। 
 
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दक्षिण भारत में भारी बारिश की घटनाओं में इजाफा देखने को मिल सकता है। यह बारिश वर्ष 1850 से 1900 की तुलना में दक्षिण-पश्चिमी तटवर्ती इलाकों में 20 फीसदी ज्यादा हो सकती है। जलवायु परिवर्तन का एक असर यह भी होगा कि लू का प्रकोप बढ़ेगा और जंगल में आग लगने की घटनाओं में भी वृद्धि देखने को मिल सकती है। 
  
अल निनो इफेक्ट : होलकर विज्ञान महाविद्यालय इंदौर के पूर्व प्राचार्य प्रो. राम श्रीवास्तव कहते हैं कि इस समय ग्लोबल वॉर्मिंग से पूरी दुनिया त्रस्त है। अल निनो प्रभाव के कारण वर्षा का चक्र गड़बड़ा रहा है। कुछ समय पहले ही कैलिफोर्निया में बर्फीला तूफान आया, वहां 12 फुट बर्फ जम गई। न्यूजीलैंड और पाकिस्तान को भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा। आधे से ज्यादा पाकिस्तान जलमग्न हो गया। 
 
अल निनो के कारण मौसम अनप्रिडिक्टेबल हो गया है। जहां पानी गिरना चाहिए वहां सूखा है और जहां सूखा रहता है वहां बारिश हो रही है। तूफान आ रहे हैं, बर्फ गिर रही है। तापमान 50 डिग्री की ओर जाने की कोशिश कर रहा है। यदि इससे ज्यादा तापमान होता है तो पता नहीं क्या होगा। 
ऐसा क्यों हो रहा है? इसे समझना जरूरी है। यह मौसम की विकृति है। पूरी दुनिया की सरकारें इस बात को लेकर चिंतित हैं। वैज्ञानिक भी इस दिशा में काम पर लगे हुए हैं। हालांकि आज की तारीख में ऐसा कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि भविष्य में कितनी गर्मी रहेगी और कहां तूफान आएंगे। 
 
प्रो. राम श्रीवास्तव कहते हैं कि चूंकि पेड़ धीरे-धीरे कटते जा रहे हैं, जंगल नष्ट हो रहे हैं और समानांतर कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। घने जंगल होने के कारण पहले पेड़ कार्बन डाईऑक्साइड को ऑब्जर्ब कर लेते थे। इससे सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्‍वी तक नहीं पहुंच पाती थीं। लेकिन, अब ओजोन परत कमजोर हो रही है। सूरज की पराबैंगनी किरणों के कारण वनस्पति का क्लोरोफिल खत्म हो जाएगा, पत्तियां झड़ जाएंगी, इससे फसलों के उत्पादन पर भी असर होगा। ऑक्सीजन का भी साइकिल बिगड़ जाएगा। यह भविष्य के लिए बड़ा खतरा है।
 
साल 2016 सबसे ज्यादा गर्म : भारत की ही बात करें तो 2020 भारतीय इतिहास का 8वां सबसे गर्म साल रहा था। वहीं, 2016 अब तक का सबसे अधिक गर्म साल रहा। राजस्थान के फलौदी में 19 मई 2016 के दिन तापमान 51 डिग्री दर्ज किया गया था, जो कि 100 सालों में सबसे ज्यादा था। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख है। इससे साफ दिखाई दे रहा है कि तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है।
 
यदि तापमान में वृद्धि हुई तो खासकर एशिया में लू का कहर बढ़ जाएगा। 2015 में ही भारत और पाकिस्तान में लू के चलते करीब 3500 की जान गई थी। 2023 में भी लगातार हो रही लगातार बारिश के बीच तापमान में गिरावट तो दर्ज की गई, लेकिन इसके बावजूद कई इलाकों में तापमान 46 डिग्री के पार पहुंच गया। 
 
क्या कहता है पेरिस समझौता : पेरिस समझौते (2015) में दुनिया का तापमान वर्ष 1850 के मुकाबले 1.5 डिग्री से अधिक नहीं बढ़ने देने की बात कही गई थी। इस बीच, संयुक्त राष्ट्र ने आशंका जाहिर की है कि अगले 5 यानी 2027 के आसपास पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री की सीमा को पार कर जाएगा। हालांकि विशेषज्ञ इस बात को लेकर भी आशान्वित हैं कि यह वृद्धि कुछ समय के लिए होगी।
 
यूएन का सुझाव : संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने बढ़ते तापमान के मद्देनजर ग्लोबल वार्मिंग पैदा करने वाली गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए कोयले के लिए हर तरह की फंडिंग बंद करने का सुझाव दिया था। इस सुझाव के मुताबिक 2035 तक विकसित देशों और 2040 तक बाकी दुनिया को कोयला आधारित बिजली उत्पादन पूरी तरह से बंद करना होगा। वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक तेल और गैस के उत्पादन को भी घटाना होगा, ताकि 2050 के ग्लोबल नेट जीरो का लक्ष्य प्राप्त हो सके। हालांकि इस पर दुनिया के देश कितना अमल करते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा। 
 
भारत के तटीय शहरों को खतरा : अमेरिकी एजेंसी नासा की रिपोर्ट के मुताबिक 2100 तक भारत के 12 तटीय शहर 3 फुट तक डूब जाएंगे। दरअसल, लगातार गर्मी बढ़ेगी तो ग्लेशियर पिघल जाएंगे और इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा, जिसका सीधा असर तटीय इलाकों को होगा। भारत के जिन शहरों को सबसे ज्यादा खतरा है, उनमें गुजरात का भावनगर, कोच्चि, मारमुगाओ, ओखा, तूतीकोरिन, पारादीप, मुंबई, मैंगलोर और विशाखापत्तनम शामिल हैं। इतना ही नहीं अगले 10 सालों में इन शहरों का कुछ हिस्सा समुद्र की चपेट में आ जाएगा।
 
रिपोर्ट के मुताबिक मुंबई के मरीन ड्राइव का क्वीन नेकलेस वाला इलाका 2050 तक समुद्र में डूब जाएगा। दरअसल, क्लाइमेट चेंज की वजह से जो प्रचंड गर्मी 50 सालों में आती थी, अब वो हर 10 साल में आ रही है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अमेरिकी शहरों को लेकर भी इस तरह की आशंका जताई है। 
 
इस बात की पुष्टि करते हुए प्रो. राम श्रीवास्तव कहते हैं कि बढ़ते तापमान के कारण वह दिन दूर नहीं अंटार्कटिका और उत्तरी ध्रुव की बर्फ पिघल जाएगी, ऐसी स्थिति में यदि समुद्र का जल एक मीटर उठ गया तो मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहर दिखाई नहीं देंगे। सब जलमग्न हो जाएगा। पर्यावरण वैज्ञानिक इसकी चेतावनी भी दे रहे हैं। सूर्य की गर्मी ने जमीन के साथ ही समुद्र को भी गर्म कर दिया है। ग्लोबल टेंपरेचर लगातार बढ़ता जा रहा है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की बर्फ पिघलने की स्थिति में आ रही है।
 
पिघल रहे हैं ग्रीनलैंड के ग्लेशियर : जियोफिजिकल रिसर्च लैटर्स पत्रिका में प्रकाशित ताजा रिपोर्ट के मुताबिक ग्रीनलैंड के ग्लेशियर और हिम शिखर 20वीं सदी की शुरुआत की तुलना में तीन गुना तेजी से पिघल रहे हैं। अध्ययन में पाया गया कि पिछली शताब्दी में ग्रीनलैंड के ग्लेशियरों की कम से कम 587 घन किलोमीटर बर्फ पिघल गई, जिसके कारण समुद्र के जलस्तर में 1.38 मिलीमीटर की वृद्धि हुई। ऐसा अनुमान है कि जिस गति पर 2000 से 2019 के बीच बर्फ पिघली, वह 1900 से लेकर अब तक के दीर्घकालिक औसत से तीन गुना अधिक है।
 
पैदा होंगी सामाजिक समस्याएं : यूरोप के वरिष्ठ पत्रकार राम यादव अपने आलेख चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि गर्मी या तापमान के अतिरक्त पानी, हवा में नमी की मात्रा और भोजन के लिए ज़रूरी चीज़ों की उपज का भी जलवायु से सीधा संबंध है। यदि गर्मी बहुत अधिक न हो, लेकिन हवा में नमी हमेशा बहुत अधिक हो यानी उमस रहती हो, तब भी जीवन कष्टमय हो जाता है। जलवायु परिवर्तन की मार भी एक ऐसा कारक है, जो भविष्य में देश पलायन और दूसरे देशों में जाकर वैध-अवैध तरीकों से वहां रहने-बसने की प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ावा देगा। इससे नई-नई आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक और सामाजिक समस्याएं भी पैदा होंगी।
 
चिलचिलाती धूप और 40 डिग्री से अधिक असह्य तापमान केवल भारत में ही नहीं, विदेशी पर्यटकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय यूरोपीय देश स्पेन में भी आग बरसा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से यूरोप में भी इतनी गर्मी पड़ने लगी है कि नदी-सरोवर सूख जाते हैं। घरों और जंगलों में आग लग जाती है। हज़ारों एकड़ ज़मीन जलकर राख हो जाती है। पशु-पक्षी ही नहीं, लोग भी मरते हैं। जर्मनी में राइन जैसी यूरोप की एक सबसे बड़ी नदी में नावों और मालवाही बजरों का चलना कई बार बंद हो जाता है।
बीमारियां बढ़ने का खतरा : इंदौर के जनरल फिजिशियन डॉ. प्रवीण दानी कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि बढ़ती गर्मी से कोई नई बीमारी होगी, लेकिन गर्मियों में डिहाइड्रेशन और हीट स्ट्रोक जैसी समस्याएं आम हैं। यदि तापमान बढ़ता है तो इन बीमारियों की चपेट में आने वाले लोगों की संख्या बढ़ जाएगी। डिहाइड्रेशन के चलते व्यक्ति की किडनी पर भी असर हो सकता है। 
 
एक बड़ा खतरा यह भी है : यदि ग्लेशियर तेजी से पिघले तो इनके नीचे हजारों साल पुराने वायरस सक्रिय होकर इंसानों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो इस तरह के वायरस और बैक्टीरिया इबोला, हैजा, इन्फ्लुएंजा और कोरोना महामारी से भी ज्यादा घातक महामारियों की वजह बन सकते हैं। दरअसल, कुछ समय पहले रूस के साइबेरिया इलाके में 13 अलग-अलग वायरस पाए गए हैं। इनमें से एक 48500 साल पुराना वायरस है।
 
हजारों सालों से बर्फ के नीचे दबे रहने के बावजूद ये जिंदा हैं। इसीलिए वैज्ञानिकों ने इन्हें 'जॉम्बी वायरस' नाम दिया है। ये दबे वायरस वातावरण में फैल सकते हैं। इनका न सिर्फ इंसानों बल्कि जानवरों पर भी असर हो सकता है। इससे पहले भी साइबेरिया में मिले एक वायरस की उम्र 30000 साल दर्ज की गई थी। यह वायरस भी जिंदा था और दूसरे जीवों को संक्रमित करने में सक्षम था। 
 
भले ही यह खतरा फिलहाल चेतावनी के स्तर पर है, लेकिन इस दिशा में सही प्रयासों की अत्यंत आवश्यकता है। क्योंकि यह खतरा किसी व्यक्ति, समाज या देश पर ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए है।