5 राज्यों के चुनाव परिणाम आ गए हैं। हार-जीत के कयास अब नतीजों में तब्दील होकर देश के सामने हैं। 5 राज्यों में से 2 उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड, जहां भाजपा के पास सत्ता नहीं थी उनमें भाजपा ने सत्ता में मजबूती से वापसी की है।
पूर्वोत्तर भारत का एक राज्य मणिपुर, जहां भाजपा न के बराबर थी वहां भाजपा ने सबसे ज्यादा 36.3 फीसदी वोट हासिल किया है और 21 सीटें भी हासिल की है। गोवा राज्य में भाजपा सत्ता में थी लेकिन वहां इस चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला है लेकिन मत फीसदी के लिहाज से यहां भी 32.5 फीसदी वोटों के साथ भाजपा ने अपनी मजबूत उपस्थिति कायम रखी है। वहीं पहली बार चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी काफी पीछे नजर आती है।
अगर पंजाब की बात करें तो यहां भाजपा और अकाली गठबंधन 10 साल से सत्ता में था। पिछले चुनाव की तुलना में पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन अच्छा काम नहीं कर सका है। हालांकि इस बात के कयास पहले ही लगाए जा रहे थे कि पंजाब में अकाली सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बहुत अधिक है। ऐसे में चुनाव से पूर्व लड़ाई कांग्रेस बनाम आम आदमी पार्टी बताई जा रही थी। लेकिन परिणाम देखने के बाद ऐसा लगता है कि मतों के बंटवारे के मामले में कांग्रेस की लड़ाई अकाली-भाजपा गठबंधन से ज्यादा थी, न कि आम आदमी पार्टी से वो लड़ रही थी। वोट प्रतिशत पर नजर डालें तो अकाली दल को अकेले 25.2 फीसदी वोट मिले हैं, जो आम आदमी पार्टी के वोट फीसदी से लगभग 1.5 फीसदी ज्यादा है।
पंजाब में भाजपा लगभग 23 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। ऐसे में अगर भाजपा के वोट फीसदी को मिला दें तो अकाली-भाजपा गठबंधन को 30.6 फीसदी वोट मिले हैं। आम आदमी पार्टी इस लिहाज से वैसा कुछ भी पंजाब में करती नहीं नजर आई है जिसका दावा मीडिया पूर्वानुमानों में अथवा अरविन्द केजरीवाल द्वारा किया जाता रहा है।
विकल्प देने के रूप में खुद को सबसे बेहतर बताने वाला केजरीवाल का दावा भी खोखला साबित हुआ है। 10 साल की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद पंजाब ने कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से बेहतर विकल्प के रूप में स्वीकार किया है और अकाली-भाजपा भी अपना वोट आधारित जनाधार बचा पाने में कामयाब रहे हैं।
खैर, इन छोटे राज्यों से इतर अगर देश की निगाह सबसे ज्यादा कहीं थी तो वह उत्तरप्रदेश है। जनसंख्या के लिहाज से देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तरप्रदेश ही है। यहां 80 लोकसभा सांसद, 31 राज्यसभा सांसद और 403 विधायक और 100 विधान परिषद सदस्य निर्वाचित होते हैं। लोकसभा चुनाव 2014 की मोदी लहर में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली थी। यहां से कुल 42 फीसदी वोटों के साथ भाजपा 71 सीटें अकेले दम पर जीतकर आई थी।
इस प्रचंड जीत के बाद राजनीतिक पंडितों ने इसे 'न भूतो न भविष्यति' जैसा परिणाम करार दिया था अर्थात यह मान लिया गया था कि अब यह आंकड़ा भाजपा खुद दोहरा नहीं पाएगी। लेकिन विधानसभा चुनाव 2017 के परिणाम के बाद सारे राजनीतिक अनुमान गलत साबित हुए और भाजपा ने उसी इतिहास को दोहरा दिया है।
अगर विधानसभा चुनाव के ट्रेंड के लिहाज से मूल्यांकन करें तो यह जीत लोकसभा से भी बड़ी नजर आती है। भाजपा को कुल अकेले लगभग 40 फीसदी के आसपास वोट मिले हैं और भाजपा अपने सहयोगियों के साथ 325 सीटें जीतकर इतिहास रच चुकी है। इन परिणामों के बाद ऐसा कहा जा रहा है कि मोदी लहर बरकरार है। शायद यह भी पर्याप्त आकलन नहीं है। मोदी लहर बरकरार ही नहीं है, बल्कि उठान की ओर है।
अगर विधानसभा चुनाव, जहां राज्य मुख्यमंत्री चुनना हो और भाजपा के 2-2 विपक्षी दल अपना मुख्यमंत्री चेहरा लेकर चुनाव लड़ रहे हों, में यदि भाजपा मोदी के ढाई साल के कार्यकाल के बाद इतनी सफलता को हासिल कर पाई है तो अगर अगले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के फेस होंगे तो सामने कौन होगा?
इसमें कोई दोराय नहीं कि भारतीय राजनीति में मोदी के बरक्स खड़ा होने वाला कोई दूसरा चेहरा दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। इसके पीछे कुछ और कारण नहीं बल्कि खुद नरेन्द्र मोदी का विराट व्यक्तित्व और विपक्ष की मुद्दों को लेकर नासमझी ही कारण है।
नरेन्द्र मोदी की राजनीति को जो समझते होंगे, वो अब तक ये जान चुके होंगे कि मोदी लकीर काटकर छोटी करने की बजाय बड़ी लकीर खड़ी करने में यकीन रखते हैं। वे जब 2014 में भाजपा के प्रधानमंत्री पद का चेहरा बने तब तक उन्होंने गुजरात में अपने राजनीतिक एवं प्रशासकीय प्रदर्शन को साबित कर दिया था। उनके खिलाफ तमाम किस्म के प्रोपगंडा को हवा तब भी दी जाती थी और आज भी दी जाती है। लेकिन प्रोपगंडा बनाम परफॉर्मेंस की लड़ाई को मोदी के परफॉर्मेंस ने लगातर शिकस्त दी है।
अब जब प्रधानमंत्री के रूप में उनका ढाई साल लोगों ने देखा है, उनकी नीयत देखी है, काम करने का जूनून देखा है, उनके अथक परिश्रम को देखा है, जनता से जुड़ने और संवाद करने की निरतंरता को देखा है तो लोगों के मन में यह भावना स्व-विकसित हुई है कि ऐसा ही उनका अपना प्रधानमंत्री होना चाहिए।
उत्तरप्रदेश ने 2014 में जिस आशा और विश्वास से मोदी को जनादेश दिया था, विधानसभा के जनादेश से उन उम्मीदों में अपना विश्वास जताया है। यही वजह है कि भाजपा को उत्तरप्रदेश में हर वर्ग, हर समुदाय का वोट मिला है और प्रदेश में विपक्षी दलों की स्थिति कमजोर हुई है। सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी को पिछले विधानसभा की तुलना में लगभग 8 फीसदी का नुकसान हुआ है और वे सीटों के मामले में लगभग वहीं खड़े हैं, जहां 2012 में भाजपा खड़ी थी।
बसपा की स्थिति वोट फीसदी के मामले में बहुत कमजोर नहीं हुई है लेकिन उसको सपोर्ट करने वाला वोटबैंक अब साथ नहीं रहा। प्रदेश की राजनीति से 2017 विधानसभा चुनाव में वोटबैंक की ठेकेदारी करने वाली राजनीति का अंत लगभग हो चुका है। यह तय हो चुका है कि बिना प्रदर्शन और खुद को साबित किए महज सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे चुनाव जीत लेने की राजनीतिक कलाबाजियों के बूते अब लंबे समय तक राजनीति नहीं की जा सकती है।
उत्तरप्रदेश में भाजपा ने जो लकीर खींची है, वह परफॉर्मेंस पर जनता का विश्वास हासिल करने का शिलापट साबित होने जा रहा है। इसे मिटाया नहीं जा सकता है। इसके लिए आपके पास सिर्फ एक विकल्प है, और वो है कि आप नरेन्द्र मोदी से बड़ा जननायक बनिए। हालांकि फिलहाल की राजनीति में ऐसा होता दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा।
देश की एक राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस जब अमेठी और रायबरेली में अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है तो उमर अब्दुल्ला का वह बयान बिलकुल प्रासंगिक प्रतीत होता है कि 2024 के लिए संघर्ष करो। उत्तराखंड में भी कांग्रेस का लगभग सूपड़ा साफ हुआ है और सीट के साथ-साथ वोट फीसदी में भी भाजपा से काफी पिछड़ चुकी है। ळ
भाजपा और कांग्रेस में एक गौर करने वाली बात यह भी है कि भाजपा वोट फीसदी के मामले में लगातार अच्छा कर रही है। यहां तक कि दिल्ली जैसे राज्य में जहां उसकी महज 3 सीटें हैं, वहां भी उसके वोट फीसदी में कोई खास गिरावट नहीं है। वोट फीसदी का बने रहना यह साबित करता है कि पार्टी भले सत्ता में नहीं है लेकिन जनाधार की कसौटी पर मजबूत है।
कांग्रेस और कम्युनिस्ट सीट के पैमाने पर तो शिकस्त खा ही रहे हैं, वोट फीसदी के मामले में भी बेहद कमजोर हुए हैं अर्थात सत्ता से ही नहीं, बल्कि जनाधार के मामले में भी कांग्रेस बेहद कमजोर हो चुकी है।
एक बात तो तय है कि सरकार के मोर्चे पर भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी जैसा एक विश्वसनीय चेहरा है तो वहीं दूसरी तरफ संगठन के स्तर पर अमित शाह के रूप में कुशल संगठनकर्ता मौजूद हैं। भारतीय राजनीति में यह जोड़ी एक नया इतिहास लिख रही है जिसे समझ पाना विपक्ष के लिए एक अबूझ पहेली है।