• Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Worrying signs from Jammu and Kashmir elections
Last Updated : शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024 (09:40 IST)

जम्मू-कश्मीर चुनाव से चिंताजनक संकेत

voting in jammu kashmir
स्थानीय मुख्य पार्टियां कट्टरवाद, अलगाववाद और हिंसा उभारने की भाषा बोल रही हैं
 
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के दो चरण समाप्त हो चुके हैं, परिणाम जो भी आए, वहां से काफी चिंताजनक और भविष्य की दृष्टि से डरावने संकेत मिल रहे हैं। लंबे समय से वहां की राजनीति में स्थापित प्रमुख पार्टियां नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी तथा हाल में खड़ी जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी आदि द्वारा उठाए जा रहे विषय और मुद्दे देश की एकता-अखंडता और जम्मू-कश्मीर में शांति व्यवस्था की दृष्टि से बिल्कुल अस्वीकार्य होना चाहिए। 
 
नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने अब संसद हमले के अभियुक्त अफजल गुरु की फांसी को भी चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है। उन्होंने कहा है कि अफजल गुरु की फांसी में जम्मू सरकार की मंजूरी की जरूरत पड़ती तो हम नहीं देते। वे यही नहीं रुके और कहा कि मुझे नहीं लगता कि उसे फांसी देने से कोई उद्देश्य पूरा हुआ है। ….. हमने कई बार देखा है कि फांसी की सजा दे दी जाती है और बाद में यह पता चलता है कि व्यक्ति निर्दोष था। यह भारत की न्याय व्यवस्था के साथ संपूर्ण सत्ता के विरुद्ध बयान है। 
 
अफ़ज़ल गुरु के भाई एजाज अहमद गुरु ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा करते ही पार्टियों ने यह राग अलापना शुरू कर दिया। महबूबा मुफ्ती अफजल गुरु की फांसी को अन्याय बताती रही हैं और उनकी प्रतिक्रिया भी यही है। ज्यादातर नेता जम्मू-कश्मीर और इंडिया शब्द बोलने लगे हैं। यानी जम्मू-कश्मीर और इंडिया या भारत दो अलग-अलग एंटायटी हैं।

मेहबूबा मुफ्ती ने जमात ए इस्लामी से प्रतिबंध हटाकर उसे चुनाव लड़ने की अनुमति देने की मांग की है। जैसी जानकारी है प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के सदस्य निर्दलीय नामांकन कर रहे हैं। ये सारी पार्टियां पाकिस्तान के एक पक्ष होने से लेकर धारा 370 हटाने के पूर्व स्थिति बहाली के साथ भारत से स्वायत्त और अनेक मामलों में स्वतंत्र अवस्था में होने का वायदा कर रहे हैं। 
 
नेशनल कांफ्रेंस के घोषणा पत्र में इन बातों के साथ शंकराचार्य पर्वत को तख्त ए सुलेमान और हरी पर्वत को कोहे मारन नाम देने की घोषणा है। नेशनल कांफ्रेंस की चर्चा इसलिए कि देश में ऐसी छवि बनाई गई कि यह पार्टी और अब्दुल्ला परिवार अन्यों से ज्यादा लिबरल और भारत समर्थक है। आप पार्टियों के घोषणा पत्र, उनके भाषणों के स्थानीय समाचार पत्रों ,वेबसाइटों आदि से जानकारी लें तो पता चल जाएगा कि चुनाव में क्या हो रहा है। 
 
अफजल गुरु 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हमले के दो दिनों बाद 15 दिसंबर को गिरफ्तार हुआ। 18 दिसंबर, 2002 को अफजल गुरु, एसआर गिलानी और शौकत हसन गुरु को फांसी की सजा दी गई तथा एक आरोपी अहसान गुरु को बरी किया गया। 4 अगस्त, 2005 को उच्चतम न्यायालय ने अफजल गुरु की सजा को बनाए रखा तथा शौकत हसन गुरु की फांसी की सजा 10 साल कठोर कारावास में परिणत कर दिया। 
 
न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार दिल्ली उच्च न्यायालय ने 26 सितंबर , 2006 को अफजल गुरु को फांसी देने का आदेश दिया। अफजल गुरु की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अंतिम दया याचिका भी 12 जनवरी, 2007 को खारिज हो गई। काफी समय तक उसे फांसी नहीं चढ़ाने पर आम लोगों और भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और काफी बहस चली। 23 जनवरी, 2013 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अफजल गुरु की दया याचिका खारिज कर गृह मंत्रालय को वापस भेज दिया। 
 
यह इतना बड़ा मुद्दा बन गया था कि कांग्रेस को लगा कि चुनाव में लेने के देने पड़ सकते हैं। तब 9 फरवरी, 2013 को तिहाड़ जेल में सुबह अफजल को फांसी दे दी गई। इनका जिक्र इसलिए जरूरी है कि देश के ध्यान में रहे कि न्यायिक प्रक्रिया के सारे विकल्प अपनाने के बावजूद लंबे समय बाद वह फांसी पर चढ़ा। उसे आज अगर जम्मू-कश्मीर में पार्टियां मुद्दा बना रही हैं तो कल्पना कर सकते हैं कि वहां ये किस तरह का माहौल बना रहे हैं। 
 
क्या यह संसद हमले को सही ठहराना नहीं है? क्या यह आतंकवादी के कृत्य का समर्थन नहीं है?इन सबसे परे मुख्य प्रश्न यह है कि आखिर इससे जम्मू-कश्मीर का वातावरण कैसा बनाने की कोशिश हो रही है?
 
वैसे इसमें आश्चर्य की भी कोई बात नहीं है क्योंकि जम्मू-कश्मीर की ये पार्टियां तभी से अफजल गुरु की फांसी का विरोध करती रही है। उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे और विधानसभा में चर्चा में अफजल को निर्दोष कहा गया तथा फांसी के विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ। जम्मू-कश्मीर को हिंसा में झोंकने की कोशिश हुई सरकार मूकदर्शक बनी रही। आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस का नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनावी गठजोड़ है और उसी के कार्यकाल में फांसी की सजा हुई पर वह इसके विरुद्ध वक्तव्य देने से भी बच रही है। 
 
कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस की उन घोषणाओं का भी विरोध नहीं किया जो इस्लामी कट्टरवाद और अलगाववाद को आक्रामक रूप से उभारने की चेष्टा है। जमात ए इस्लामी के चुनाव लड़ने की मांग तथा पाकिस्तान से वार्ता या फिर 370 के पूर्व स्थिति या हिंदू धार्मिक स्थानों के नाम बदलने आदि की घोषणाएं इसी को प्रमाणित करतीं हैं।  कश्मीर में पाकिस्तान या आजादी समर्थकों का मूल तर्क यही रहा है कि मुस्लिम बहुल होने के कारण इस्लाम के रूप में इसकी अलग पहचान है और उसी रूप में इसका अस्तित्व बना रहना चाहिए।

धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर में विधायी व प्रशासनिक से लेकर आंतरिक राजनीतिक संरचना आदि में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। इसका असर वहां की अर्थव्यवस्था, लोगों के जनजीवन पर अत्यंत सकारात्मक हुआ है। 
 
इसमें आम आदमी सोचने लगा है कि क्या अभी तक हमें गफलत में रखा गया? इसमें इन पार्टियों की खतरनाक सोच है कि कश्मीर की इस्लामी राज्य के रूप में पहचान तथा विशेष अधिकार के साथ स्वायत्तता बड़े वर्ग के अंदर पुराने दौर की ओर लौटने का समर्थक बनाएगा जिसका चुनावी लाभ मिलेगा। इस पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में प्रतिस्पर्धा है।

जमात ए इस्लामी को लेकर जब उमर अब्दुल्ला ने कहा कि पहले वे चुनावों को हराम यानी निषिद्ध मानते थे और अब हलाल यानी स्वीकार्य मानने लगे हैं तो मेहबूबा ने उन पर हमला करते हुए कहा कि 1987 में जमात ए इस्लामी और अन्य समूहों ने चुनावों में भाग लेने की कोशिश की, तो एनसी ने बड़े पैमाने पर अनियमितताएं कीं क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि कोई तीसरी ताकत उभरे। उनके कारण ही आखिर में जेईआई और अन्य समूहों ने चुनाव का बहिष्कार किया। 
महबूबा ने कहा कि उमर की पार्टी ने ही चुनाव के संबंध में हराम और हलाल की यह कहानी शुरू की थी। उनकी पंक्तियां देखिए '1947 में जब दिवंगत शेख अब्दुल्ला पहली बार जम्मू-कश्मीर के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी बने थे और  मुख्यमंत्री बने, तो चुनाव हलाल थे। जब उन्हें पद से हटा दिया गया, तो 22 साल तक चुनाव हराम हो गए। 1975 में जब वे सत्ता में लौटे, तो चुनाव अचानक फिर से हलाल हो गए। 
 
कहने की आवश्यकता नहीं कि मजहबी अलगाववाद, आतंकवाद और पाकिस्तान को अभी भी ये अपने राजनीतिक हैसियत के लिए आवश्यक मानते हैं। धारा 370 हटाने और मोदी सरकार की परवर्ती नीतियों से यह स्थिति लगभग समाप्त है, तो अस्तित्व का ध्यान रखते हुए फिर पुरानी स्थिति लाने की कुचेष्टा है, जिससे जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों से अलग सोच वाला हिंसा और अलगाववाद से ग्रस्त तथा तीसरी पार्टी यानी पाकिस्तान के मान्य अधिकारों की भावना वाला प्रदेश बने।

चुनाव में पार्टियों का राजनीतिक स्वार्थ है किंतु देश की दृष्टि से इस तरह के विचार और व्यवहार का सभी पार्टियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों को एक स्वर में विरोध करना चाहिए। 

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
ये भी पढ़ें
माता के दिनों में घर में कन्या का हुआ है जन्म तो मां दुर्गा के इन नामों से करिए नामकरण, सदा रहेगा देवी का आशीर्वाद