देश के किसी सरकारी मीडिया उपक्रम से सम्बद्ध कोई पत्रकार, जो कितना भी अनुभवी या सीनियर क्यों न हो, क्या इस आशय के सवाल का जवाब एक शक्तिशाली गृहमंत्री से प्राप्त कर उसे जनता तक पहुंचाने की हिम्मत जुटा सकता है कि प्रधानमंत्री निरकुंश हैं अथवा नहीं? सवाल को चाहे जितनी सफ़ाई, ख़ूबसूरती,विनम्रता अथवा घुमा-फिराकर पूछा गया हो! अगर एक सरकारी प्रतिष्ठान से जुड़े किसी अनुभवी पत्रकार ने वास्तव में ऐसी हिम्मत दिखा दी है तो उसके लिए निश्चित ही तारीफ़ की जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उनके गृह राज्य गुजरात और केंद्र में सरकार चलाने के बीस वर्ष पूरे कर लिए जाने के अवसर पर 'संसद टीवी' चैनल को दिए गए साक्षात्कार के दौरान एक सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री निरंकुश या तानाशाह नहीं हैं। इस तरह के सभी आरोप निराधार हैं।मोदी सभी लोगों की बात धैर्यपूर्वक सुनने के बाद ही फ़ैसले लेते हैं।उन्होंने दशकों के लम्बे जुड़ाव के दौरान नरेंद्र मोदी जैसा कोई श्रोता नहीं देखा। एक छोटे से कार्यकर्ता की भी बात धैर्य से सुनते हैं।
अगर गृहमंत्री अपने प्रधानमंत्री के बारे में इस तरह का दावा इतने अधिकारपूर्वक करते हैं तो देश की एक सौ चालीस करोड़ जनता और दुनिया के तमाम प्रजातांत्रिक मुल्कों को भी उसे धैर्यपूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए और आश्वस्त भी हो जाना चाहिए।ऐसा इसलिए कि सत्तावन-वर्षीय अमित शाह प्रधानमंत्री को निजी तौर पर जानने और उनके काम करने के तरीक़े के कोई साढ़े तीन दशक से अधिक समय के साक्षी रहे हैं।
सवाल यह है कि मोदी के गुजरात और दिल्ली में सफलतापूर्वक दो दशकों तक सरकारें चला लेने के बाद अचानक से इस तरह के सवाल के पूछे जाने (या पुछवाए जाने) की ज़रूरत क्यों पड़ गई होगी? जनता तो इस आशय की संवेदनशील जानकारी की सांस रोककर प्रतीक्षा भी नहीं कर रही थी।सरकार और पार्टी में ऐसे मुद्दों पर बंद शयन कक्षों में भी कोई बातचीत नहीं होती होगी।
केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि गृहमंत्री के कानों तक जनता के बीच छुपे बैठे कुछ (या ज़्यादा) ख़ुराफ़ाती राजनीतिक धोबियों द्वारा किया गया यह दुष्प्रचार पहुंचा होगा कि प्रधानमंत्री निरंकुश या तानाशाह हो गए हैं। इस तथ्य की किसी खोज की धर्मप्राण जनता को भी विस्तृत जानकारी नहीं होगी कि त्रेतायुग की अयोध्या के एक धोबी द्वारा माता जानकी के बारे में की गई असत्य टिप्पणी भगवान राम के कानों तक कैसे पहुंची होगी! धोबी के नाम-पते को लेकर भी कोई ज़्यादा जानकारी प्रचारित नहीं हुई है।
यह एक स्थापित सत्य है कि वे तमाम नायक जो सिर्फ़ अपने देश को ही नहीं बल्कि दुनिया को भी नेतृत्व प्रदान करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं और उसके लिए ज़रूरी क्षमता भी धारण कर लेते हैं,इस बात को लेकर लगातार सचेत और चिंतित रहते हैं कि उन्हें किस अवसर पर क्या और कैसा पहनना चाहिए, कैसा नज़र आना चाहिए, फ़ोटो-फ़्रेम में कितना दिखाई पड़ना चाहिए और कैसे चलना और बोलना चाहिए।(पिछली एक सरकार में एक अनुभवी गृहमंत्री की नौकरी तो बार-बार कपड़े बदलने के चक्कर में ही चली गई थी।)
ये महत्वाकांक्षी नायक इस सवाल को लेकर भी परेशान रहते हैं कि अपनी प्राइवेट बातचीत में लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं! इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए वे न तो अपनी गुप्तचर एजेंसियों के फ़ीडबैक पर भरोसा करते हैं और न ही उपकृत किए गए टीवी चैनलों के द्वारा जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को लेकर जुटाए जाने वाले आंकड़ों पर। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल को समाप्त कर चुनाव करवाने का फ़ैसला किया तो अपने एक अत्यंत विश्वस्त सहयोगी को आगाह कर दिया था कि गुप्तचर एजेंसियां तो उनके फिर से सत्ता में आने के दावे कर रही हैं पर वे स्वयं जानती हैं कि हारने वाली हैं।
पुराने जमाने में तो राजा जनता के बीच अपनी लोकप्रियता की सही जानकारी लेने के लिए बजाय चाटुकार दरबारियों की जमात पर भरोसा करने के स्वयं ही वेश बदलकर जनता के बीच निकल जाते थे और स्वयं की बुराई के क़िस्से भी छेड़ देते थे।आज ऐसा करना संभव नहीं रहा।जनता और राजा के बीच भक्तों के द्वारा बहुत बड़ी खाई खोद दी गई है। इसीलिए स्पष्टीकरणों के ज़रिए अफ़वाहों से निपटने का काम और आश्वासनों के मार्फ़त शासन को चलाने का कार्य संपन्न करना पड़ता है।
हम वर्तमान में ऐसे कालखंड के साक्षी हैं जिसमें एक के बाद एक प्रजातंत्र तालिबानी संस्कृति को प्राप्त हो रहे हैं और उनके शासक तानाशाही अधिकारों से स्वयं को सज्जित कर रहे हैं।कई शासकों (यथा चीन, रूस, ब्राज़ील, तुर्की, आदि) के बारे में आरोप हैं कि कोरोना महामारी ने उन्हें निरंकुश बनने के भरपूर अवसर प्रदान कर दिए हैं। सत्य यह भी है कि निरंकुश या तानाशाह बनने की कोई लिखित रेसिपी उपलब्ध नहीं है। कोई नायक चाहकर भी निरंकुश नहीं हो सकता और कोई अन्य न चाहते हुए भी तानाशाह बन सकता है।
जब ऐसा होने लगता है तब न शासक को पता चल पाता है और न ही उसकी जनता को।25 जून 1975 की रात ऐसा ही हुआ था।उस जमाने के बचे हुए लोग अब अपने हरेक शासक को लेकर उतने ही डरे, सहमे और आतंकित रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में केंद्रीय गृहमंत्री की ओर से प्राप्त एक सर्वथा अनपेक्षित स्पष्टीकरण अथवा आश्वासन कुछ भरोसा उत्पन्न करने वाला माना जा सकता है।(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)