-शिवकुमार मिश्र 'रज्जन'
वासंती का पदार्पण तो हो जाता है वसंत पंचमी को, किंतु उसके कदमों की आहट सजग, संवेदनशील प्रकृति को पहले से सुनाई देने लगती है। हम में से भी किसी-किसी के पास ऐसा मन होता है कि उसे भी उसकी पग-पायल के घुंघरू बजते सुनाई दे जाते हैं। वैसे गांवों में तो वासंती फिर भी बस्तियों के आसपास से भी निकल जाती है, पर शहरों के प्रदूषण में तो उसका दम घुटता है। कभी-कभार भूले-भटके ही वह शहरी उद्यानों में दो-चार पल को ठहर जाती है और सहज भाव छू लेती है वहाँ के कचनारों को भी और पलाशों को भी। अमलतास उसे बुलाता तो है बार-बार, पर उसके पास तो वह लौटते में ही पहुंच पाती है। वासंती को तो परहेज नहीं होता किसी से भी, चाहे कोई भी उसके साथ चले, उससे बोले-बतियाए और उसकी तरह ही मस्ती से भरपूर हो जाए। पर हमारे ही दुनियादारी में सने मन उसकी अगवानी ही नहीं कर पाते अपने घर-द्वार पर और वह हमारे अनदेखे ही देहरी से झांककर लौट जाती है। उसका तो वाहन है मलय पवन जिसे कोई कहीं भी प्रवेश से रोक नहीं पाता, भले ही घर के द्वार बंद करे या दरीचे; बस मन के द्वार खुले होने चाहिए।
अच्छा हो उसका मस्तीभरा साथ करने के लिए हम दुनिया'दारी' का साथ छोड़कर, किसी दिन वनांचल की ओर चल पड़ें, भले अकेले या किसी 'अपनें' के साथ। वह कभी ईर्ष्या नहीं करती आपके 'अपने' के साथ होने से और कभी अपनी 'सौत' नहीं मानती किसी को। बड़ी उदारमना और सहज-सरल स्वभाव की है वासंती, जिसका एक पल का साथ या एक स्नेहिल स्पर्श भी अत्यंत मादक होता है। मादकता तो उसके रोम-रोम में समाई रहती है और उसकी आंखों से तो छलकती है अपने आप।
एक कवि के संवेदनशील मन की बात मानें आप तो उसे पद्माकार 'बनन में बागन में बगरो बसंत है' कहते हैं। वह सुंदर कलियों के साथ तो किलकता है और पलाश के फूलों में तो 'पगा' रहता है। तो, अपने शहरी धूल-धुएं और ध्वनि के प्रदूषण से बड़े सवेरे ही निकल आएं किसी नदी के तट पर, जंगल के पेड़ों-झाड़ियों के बीच या किसी सुरम्य पहाड़ी क्षेत्र में, जहाँ मलय पवन वसंत पंचमी पर वासंती के आगमन की तैयारियों में व्यस्त मिलेगा आपको।
मलय की शीतलता कुछ ठिठुराती तो है, पर चुभती नहीं और फिर किरणों की छुअन से तो उसका पूरा तन-बदन ऐसा कुनकुना-सा हो जाता है कि आपको सहज रोमांचित ही कर दे। भले ही पेड़ों से सीधे पहचान भी न हो आपकी, पर उनके नवांकुर नन्हे घुटने चलते कान्हा की तरह आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर ही लेंगे और फूलों की सौंधी, भीनी सुगंध तथा रंगों की रुमानियत भी आपको मस्ती से भरपूर कर देगी।
कभी खेतों में खड़े आमों को देखेंगे आप तो उनकी बौराई मादक गंध सहज निमंत्रण देगी उनके पास तक आने के लिए। दूल्हे के सेहरे की कलंगी की तरह शाखों के सिरे पर खिले ये बौर आमों का श्रृंगार तो हैं ही, इन्हीं में उभरेंगी वे खट्टी-मीठी अमियां, जो रस से परिपूर्ण होकर अपने आप टपक जाएंगी आम के नीचे।
मुझे पता है कि आज के शहरी बच्चे रसीले आम को तो ललचाते हैं, पर उनके बौर (फूल) का सौंदर्य शायद ही कभी देखा हो उन्होंने और उसकी मादक गंध का भी अहसास भी शायद ही उन्हें हो। फिर वनांचल में प्रवेश के साथ ही कहीं न कहीं तो अंगारों-सा दहकता दिखाई देगा आपको जंगल का कोई कोना। पलाश के ये फूल भी शहरियों के लिए बहुत कुछ अनपहचाने हैं। शायद नाम तो सुने होंगे उसके कई, ठीक वैसे ही जैसे आपके घर के और स्कूल के नाम अलग-अलग होते हैं।
जी हां, खाखरा, ढाक (जिसके 'तीन पात' की कहावत है) और पलाश उसी के अपने नाम हैं। वासंती से बड़ा गहरा रिश्ता है इसी का, तभी तो वह अपने रूप-रंग की छाया ही छोड़ जाती है इसके फूलों पर। वासंती की सुंदर कटि की तरह कुछ बल खाया हुआ इसका फूल, उसके लावण्य से लाल होकर दहकने-सा लगता है। पंखुरियों की कोमलता में वासंती के अधरों की-सी मस्ती भरी होती है या फिर मोनालिसा की-सी सहज मुस्कुराहट।
उसके आधे उघड़े बदन को श्यामल मखमली-सी चूनर लज्जा वसन की तरह या कंचुकी की तरह ढांके रखती है, जबकि फूलों की वीना से पराग कण आंखों की हंसती पुतलियों की तरह झांकते रहते हैं। शायद ही शाख के किसी भाग पर पत्ते बचे रहते हों इन दिनों, बस पलाश का पोर-पोर रक्तिम फूलों से भरचक हो जाता है। इतना ही नहीं, वासंती के कदमों की गतिशीलता के साथ तो पूरा वनांचल ही लाल रंग से लहराता दिखाई देता है।
पलाश अकेला तो खिलता नहीं, कहीं उसका साथी होता है कचनार तो कभी देर-सबेर अमलतास भी आ जाता है उसका साथ देने। कचनार के फूलों की श्वेत-बैंगनी आभा पलाश के साथ ही देखने को मिले तो मन भी विविध रंगों से परिपूर्ण हो जाता है। 'कच्ची कली कचनार की' चर्चा तो गीत-संगीत में हो चुकी है, पर उसके तितली के पंखों से पत्ते भी दर्शनीय होते हैं। मुश्किल से चार-पांच पंखुरी का यह फूल कहीं दिख जाए तो सौभाग्य आपका, क्योंकि एक ओर तो कुल्हाड़ी है सदा उसके पीछे और फिर आपकी-हमारी सौंदर्य-दृष्टि भी तो उसे नहीं खोज पाती।
उधर महुआ तो अपनी मदभरी मटकी लिए खड़ा मिल जाएगा आपको कहीं न कहीं वनांचल में, विशेष रूप से आदिवासियों की झोपड़ियों के आसपास। कितनी मादकता से भरपूर होते हैं उसके फूल और फल, यह तो सचमुच आदिवासी ही जानता है जो उसकी वारुणी पीकर, अपनी थाली और मांदल की थाप पर झूम-झूमकर नाचते-गाते हैं। आप भी अपने जीवन की मस्ती और संगीत में डूबकर नाचना चाहें इस बार तो वासंती का निमंत्रण है आपको, जरूर आएं वनांचल की ओर।