मंगलवार, 17 दिसंबर 2024
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आठ अरब मनुष्य यानी आठ अरब विचार शैली और स्वभाव!

आठ अरब मनुष्य यानी आठ अरब विचार शैली और स्वभाव! - Thought and nature of 8 billion people
मनुष्य को जन्म के साथ ही मनुष्य शरीर को आकार मिलता है।पर मनुष्य का आकार,आचार, विचार और स्वभाव अपने आप में मनुष्यता का पर्याय नहीं बन जाते। मनुष्य और पशु या अन्य जीव-जन्तुओं में यही मूलभूत अंतर है, अन्य सभी जीव-जन्तु जन्माना जिस आकार-प्रकार और शैली में जीवन-यापन करते हैं वह आखरी सांस तक एक जैसा ही बना रहता है। वे उसमें चाहकर भी संशोधन, संवर्धन या परिवर्तन नहीं कर सकते।

पर मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य जैसा पैदा होता है वैसा आचरण और व्यवहार जीवनपर्यन्त नहीं रख पाता। पशुओं का मूल स्वभाव जन्म से मृत्यु तक कायम रहता है। पर मनुष्य आकार-प्रकार में मनुष्य होते हुए भी कब क्या और कैसा आत्मघाती, हिंसक आचार और व्यवहार कर बैठेगा और अपने मनुष्यत्व को अकारण या सकारण उत्तेजित हो त्याग देगा या अध्यात्म की राह चलकर ध्यानमग्न होकर शांत स्वरूप अपना लेगा यह सामान्य रूप से कभी भी कहना संभव नहीं है।

मनुष्य प्रकृति की ऐसी रचना है जो प्रकृति से प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ को ही विकसित जीवन मानने लगा है। मनुष्यों के विकास का सहज अर्थ मनुष्यता का विकास है।आज के कालखंड में मनुष्य अपने बनाए मकड़जाल में उलझता जा रहा है और आधुनिक काल की चुनौतियों के सामने असहाय हो रहा है।

आज मनुष्य को जीवन में जिन जटिलताओं का सामना करना पड़ता है उनका जन्मदाता स्वयं मनुष्य और उसकी संकुचित अवधारणाओं को ही जाता है।आज के कालखंड में मनुष्य का जीवन सरल-सहज दिनचर्या को छोड़कर अकारण भागादौड़ी और लोभ-लालच की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। इसका नतीजा मनुष्यों के आपसी व्यवहार, आचार और चिंतन प्रणाली में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

मनुष्य सरल और प्राकृतिक जीवन त्याग, जटिल अप्राकृतिक एवं एकरस यांत्रिक जीवनचर्या को अपनाता जा रहा है। अत्यधिक तनाव और प्रतिस्पर्धा वाली जीवनशैली से मनुष्यों को अपने समकालीन मनुष्यों के साथ ही समन्वय रखने में जटिलता महसूस होने लगी है।इस परिस्थिति का सीधा असर मनुष्य के आपसी व्यवहार, आचार, विचार और चिंतन प्रणाली पर अत्यधिक होता दिखाई देता है। आज के मनुष्य को स्वयं अपने आप पर और अपने आसपास के समकालीन मनुष्यों पर पहले जैसा विश्वास नहीं रहा, इस कारण मनुष्यों में खुलकर बातचीत करने की पुरातन पर प्राकृतिक जीवनशैली लगातार लुप्त होती जा रही है।

इसलिए हमारी दुनिया में मनुष्य के असहिष्णुता पूर्ण विचार और व्यवहार से नित नई चुनौतियां पल-पल में दुनिया के हर हिस्से में खड़ी होती है और मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से या समूह में ऐसी व्यवहारगत और अमानवीय घटनाओं के कारण भयग्रस्त मानसिक तनाव को जीवन का एक आयाम मानकर असहाय जीवन जीने को अभिशप्त होना पड़ता है। इस असहाय जीवन का कारक मनुष्य स्वयं है।आज की विकसित दुनिया में मनुष्यों के चिंतन में एक बात यह तेजी से आती जा रही है कि उनके जीवन में आ रही समस्या या तनाव का मुख्य कारण वे और उनकी चिंतन प्रणाली, आचार व्यवहार न होकर अन्य समकालीन मनुष्यों के कारण है।

यानी आज का मनुष्य अपने समकालीन मनुष्यों को दोषी मानते हुए समस्या का समाधान करने हेतु स्वयं हरसंभव प्रयास करने से बचना चाहता है और यांत्रिक रूप से सारा दोष दूसरे मनुष्यों पर डालते जाने से मनुष्य शारीरिक आकार-प्रकार में तो मनुष्यों जैसा दिखाई देता है पर बहुत बड़ी संख्या में दुनिया के मनुष्य अपनी कमियां ढूंढकर उन्हें समाप्त करने से लगातार बच रहे हैं। जिससे मनुष्य का रोजमर्रा का व्यवहार, आचरण और जीवन दुनियाभर में मनुष्यकृत विस्फोटक मानसिक तनाव में तेजी से बदल रहा है।

आज की दुनिया में मनुष्यों की संख्या आठ अरब तक पहुंच गई है।आठ अरब मनुष्य यानी आठ अरब विचार शैली और स्वभाव! हमारी दुनिया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां एक जैसा दूसरा कोई नहीं है। चाहे प्राणी जगत जिसमें मनुष्य भी शामिल है हों या वनस्पति जगत जैव विविधता सबसे अनोखी बात है। मनुष्य जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा सृजनात्मक और विध्वंसात्मक क्षमता रखने वाला जीव है की व्यक्तिगत भूमिका स्वयं पर और अन्य मनुष्यों के जीवन पर महत्वपूर्ण रूप से प्रभाव डालती है।

इतनी अधिक जैव विविधता और वैचारिक विरोधाभासों के व्यापक समन्वय से ही मनुष्य के मन और जीवन में मनुष्यता का भाव प्राकृतिक अवस्था में बना रह सकता है।हर परिस्थिति में समन्वय और सहजीवन ही मनुष्य समाज में मनुष्यता को कायम रख सकती है। अभी हम-सब यानी प्राणी जगत और वनस्पति जगत आपसी सहयोग, समन्वय और सद्भाव से ही मानवीय जीवन और मूल्यों को जिस रूप में बनाए रखने में सफल हुए हैं।

मनुष्य और मनुष्यता एक-दूसरे के पर्याय बने रहकर ही सहजीवन कर सकते हैं।मनुष्य मनुष्यता को अपने जीवन में निरंतर बढ़ाते हुए अपना अनोखा मौलिक अस्तित्व बनाए रखने को ही अपने जीवन जीने का प्राकृतिक क्रम समझे तो ही वनस्पति और मनुष्येतर प्राणी जगत अपने असंख्य विविधता भरे विरोधाभासों के होते हुए भी दुनिया की व्यापक समझ के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को निजी और सार्वजनिक जीवन में कायम रखकर इस दुनिया को सबसे निरापद जीवन की जगह के रूप में कायम रखने में सहायक हो सकते हैं।