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Last Modified: गुरुवार, 10 जून 2021 (16:34 IST)

'राष्ट्र के नाम' संदेश बनाम 'राष्ट्र का' संदेश

'राष्ट्र के नाम' संदेश बनाम 'राष्ट्र का' संदेश - Name of the Nation Message Vs Nation's Message
जनता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है।जनता उनसे उनके 'मन की बात', उनके राष्ट्र के नाम संदेश, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सब कुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है, पर अपने दिल की बात उनके साथ शेयर करने का साहस नहीं जुटा पाती है। प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। संभव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्दगिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।

प्रजातांत्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है कि लोग उन्हें हक़ीक़त में कितना चाहते हैं! वे अपने आपको लोगों के बीच चहाने के चोचले या टोटके भी आज़माते रहते हैं। मसलन, अमेरिकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियां करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी।

शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियां शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती, जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर देखा जाता है।

पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फ़क़ीर का वेष बदलकर देर शाम या अंधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फ़ीडबेक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुक़ाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेंसी या पेड न्यूज़ वालों की मदद नहीं लेता था।

हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने 'डाई हार्ड' समर्थकों के अलावा देश की बाक़ी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग़ दोनों से कितना चाहती है या कितना ख़ौफ़ खाती है?

आपातकाल के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज़ का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है।भ्रष्टाचार का रेट भी 'दूरदृष्टि' और 'कड़े अनुशासन' के बीस-सूत्रीय कार्यक्रमों की रिस्क के चलते काफ़ी बढ़ गया था।

पर जनता पार्टी शासन के अल्पकालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफ़ी बदल लिया था। उनके निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद 'परिवार' के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटलजी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था।

नायक कई मर्तबा यह समझने की ग़लती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ़ मुट्ठीभर लोग ही उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फ़ैसले में सिर्फ़ नुस्ख ही तलाशते रहते हैं। अगर यही सही होता तो दुनियाभर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज़ पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं।

सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के ज़रिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पांच बजे राष्ट्र को संबोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में संभावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं?

या फिर मौतों के आंकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगें? या फिर क्या वे इस बात का ज़िक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलेप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियां झेलनी पड़ीं। संबोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की सांस ली और ज़्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुख़ातिब हो जाना चाहिए

पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेंसी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आंकड़े प्रधानमंत्री, पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि संबोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है? प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के संबोधन में केवल इस बात का ज़िक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है।

उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराज़गी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय  बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के 'भावों' को नहीं पढ़ पा रहे हैं।अपार भीड़ की 'अभाव'पूर्ण उपस्थिति ऐसी ख़ुशफ़हमी में डाल देती है जो परिणामों में ग़लतफ़हमी साबित हो जाती है।बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक 'अलोकप्रिय' मुख्यमंत्री एक 'लोकप्रिय' प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता में क़ाबिज़ हो गई।

प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियां गिनाने, मुफ़्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ़्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बांटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जाना थीं, जा चुकी हैं। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का ज़िक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं।

जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके संबोधन को टीवी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है?

अंत में : अंग्रेज़ी अख़बार 'द टेलिग्राफ' ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने अपने बत्तीस मिनट के संबोधन में कोई छब्बीस सौ शब्दों का इस्तेमाल किया पर देश की उस सर्वोच्च अदालत के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा, जिसे कि जनता अपने लिए मुफ़्त टीके का श्रेय देना चाहती है!
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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