निशा माथुर
जिंदगी के बहुमूल्य पल बन जाते हैं, लम्हे,
जिंदगी का गुजरा कल बन जाते हैं, लम्हे।
यादों के खजाने से निकल-निकल कर आते हैं,
वो लम्हे, लम्हा-लम्हा बेकरारी का लम्हा दे जाते हैं । ।
गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू से महक जाते हैं लम्हे,
पत्तों पर ओस की बूंद से ढुलक जाते हैं, लम्हे।
क्यूंकर सावन की पहली बारिश से बरस जाते हैं,
आंखों में फिर धुंआ-धुंआ से छलक जाते हैं, लम्हे।
जब कभी वक्त की कसौटी पर खरे उतर जाते हैं,
वो लम्हे, यादगारी के तब भी लम्हे दे जाते हैं।।
मोम की मानिंद, कैसे पिघल-पिघल जाते हैं,
ढलती रेत से हाथों से फिसल जाते हैं, लम्हे ।
किताब के सूखे फूल-सी धुंधली याद बन जाते हैं,
तब सफर में हमसफर सा साथ दे जाते हैं लम्हें।
जब छलक कर नम आंखों का जल बन जाते हैं,
वो लम्हे, नासूरी का लम्हा-लम्हा दर्द दे जाते हैं।
कभी शब्दों का, कभी लफ्जों का खेल, खेल जाते हैं,
कभी कलम के फूल, बन अंगार ढह जाते हैं, लम्हे।
मीठी-मीठी बातों में चुप के सौ पहरे बन जाते हैं,
फिर रूह को छूकर अनकहे ही गुजर जाते हैं, लम्हें।
जब ठहरे पानी में पत्थरों से, हलचल कर जाते हैं,
वो लम्हे, आईने को तकते, एक इतिहास बन जाते हैं।।