Shubhanshu Shukla space journey: शुभांशु शुक्ला अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पर कुछ समय के लिए जाने वाले पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनेंगे। यदि सबकुछ योजनानुसार चला, तो वे रविवार 8 जून को, भारतीय समय के अनुसार शाम 6 बज कर 11 मिनट पर, अमेरिका के कैनेडी स्पेस सेंटर से प्रस्थान करेंगे। उनकी अंतरिक्ष यात्रा भारत सरकार की ओर से इसरो द्वारा प्रायोजित है। उल्लेखनीय है कि 2030 तक भारत स्वयं अपना पहला अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करना चाहता है।
शुभांशु शुक्ला, 'एक्सियोम-4' नाम के जिस मिशन के इस समय सदस्य होंगे, उसके तीन और प्रतिभागी हैं– अमेरिकी मिशन कमांडर पेगी व्हिट्सन, पोलैंड के स्लावोश उज़नास्की और हंगरी के तिबोर कापु। लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे शुभांशु शुक्ला इस वर्ष 10 अक्टूबर को 40 वर्ष के हो जाएंगे। 2006 से वे भारतीय वायु सेना के युद्धक विमान चालक और टेस्ट पायलट हैं। संक्षेप में Ax-4 कहलाने वाले वर्तमान मिशन का मुख्य उद्देश्य अंतरिक्ष में वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन करना है। निजी अंतरिक्ष यात्राओं को प्रोत्साहित करना और भविष्य में अपना एक वाणिज्यिक अंतरिक्ष स्टेशन (Axiom Station) स्थापित करना भी एक्सियोम स्पेस की महत्वाकांक्षा है।
दो सप्ताह की यात्रा : दो सप्ताह तक चलने वाली शुभांशु शुक्ला की अंतरिक्ष यात्रा का उद्देश्य, भारत का अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित होने से पहले उन अनुभवों को जानना-समझना है, जिनसे भारत के भावी अंतरिक्ष यात्रियों को निपटना पड़ेगा। कभी न कभी भारत भी अपने लोगों को केवल पृथ्वी के निकटवर्ती अंतरिक्ष में ही नहीं, चंद्रमा और मंगल पर भी भेजना चाहेगा। चंद्रमा हमारी पृथ्वी से औसतन 3,84,400 किलोमीटर दूर है, जबकि मंगल ग्रह तक की औसत दूरी 22 करोड़ 50 लाख किलोमीटर है।
अन्य देशों के अंतरिक्ष यात्रियों के अब तक के अनुभव यही बताते है कि किसी अंतरिक्ष यात्रा के शुरू होते ही एक ही झटके में सब कुछ बदल जाता है। हम भारहीन हो जाते हैं। पूरा अंतरिक्षयान और उसमें रखी हर चीज़ भारहीन हो जाती है। हम यान के भीतर बड़े आराम से उड़ सकते हैं। घंटों शीर्षासन और कलाबाजियां कर सकते हैं, मानो कोई अद्भुत दैवीय शक्ति हमें मिल गई है।
8 करोड़ अश्वशक्ति का रॉकेट : चंद्रमा पर जाना हो या मंगल पर, या केवल अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर ही जाना हो तब भी, अंतरिक्ष यात्री जिस यान में दुबककर बैठे होंगे, उसे 8 करोड़ अश्वशक्ति (हॉर्स पॉवर) वाला एक विशाल रॉकेट पहले पृथ्वी की उस परिक्रमा कक्षा में पहुंचाएगा, जहां इस समय अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS है। प्रक्षेपण मंच से उठने के क़रीब 8 मिनट बाद, रॉकेट जब 28 हजार किलोमीटर प्रतिघंटे की अधिकतम गति प्राप्त कर लेगा, तब वह अपने शीर्ष पर लगे अंतरिक्षयान को 7.9 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति के साथ उछालकर पृथ्वी की परिक्रमा कक्षा में डाल देगा। इस गति पर हर चीज़ पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से मुक्त हो कर भारहीन बन जाती है और निरंतर गतिमान रहती है।
भारहीनता की चुनौतियां : भारहीनता धीरे-धीरे नहीं, एक-झटके में आती है। तब सबसे पहले हमारी इंद्रियां (सेंसरी ऑर्गन) प्रभावित होती हैं। शरीर का संतुलन गड़बड़ाने लगता है। उदाहरण के लिए, सिर घुमाते या झुकाते समय लगता नहीं कि सिर सचमुच घूमा या झुका है, क्योंकि भारहीनता के कारण हम सिर का कोई भार महसूस ही नहीं करते!
400 किलोमीटर की ऊंचाई पर पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे ISS में सदा यही भारहीनता रहती है। भारहीनता का अभ्यस्त होने तक आंखें देखती कुछ हैं, दिमाग समझता कुछ और है। शरीर को बार-बार लगता है कि पेट में कुछ गड़बड़ी है। उबकाई आने लगती है और उल्टी करने की नौबत आ जाती है। अंतरिक्ष में पहुंचने के कुछ ही मिनटों में अधिकतर अंतरिक्षयात्री उल्टी कर बैठते हैं। कुछ गोलियां आदि निगलकर वे इन समस्याओं से निपटना सीखते हैं।
भारहीनता के दुष्प्रभाव : भारहीनता की स्थिति में हमारे रक्त सहित शरीर की एक से दो लीटर तरलता पैरों से निकल कर शरीर के ऊपरी हिस्सों में जमा होने लगती है। चेहरा फूल जाता है और आंखें भी बहुत साफ देख नहीं पातीं। शरीर में रक्तसंचरण के लिए हृदय को पहले की अपेक्षा कम काम करना पड़ता है। इससे हृदय का आकार सिकुड़ने लगता है। पैरों की मांसपेशियों का काम भी कम हो जाने से अंतरिक्ष यात्रियों की टांगें बगुले की टांगों जैसी पतली हो जाती हैं। शरीर की हड्डियां कैल्शिय खोने लगती हैं। यह कैल्शियम रक्त के द्वारा गुर्दों (किडनी) में पहुंच कर वहां पथरी बनने का कारण बन सकता है।
इन शारीरिक समस्याओं को किसी हद नियंत्रण में रखने के लिए ISS के अंतरिक्ष यात्रियों को कई प्रकार के व्यायाम आदि करने पड़ते हैं। इस अंतरिक्ष स्टेशन के भीतर इधर-उधर आने-जाने के लिए वे हमेशा अपने हाथों और बाहों का उपयोग करते हैं। इससे उनके बाजुओं की शक्ति और मांसपेशियां किसी हद तक बनी रहती हैं, पर टांगों और पीठ की मांसपेशियों का संकुचित होना थमता नहीं। ताकि हमारी रीढ़ की हड्डियां और नसें ठीक से काम करें, इसके लिए भार महसूस होना जरूरी है।
बुढ़ापा जल्दी आता है : समानव अंतरिक्ष यात्राओं के अब तक के अनुभव दिखाते हैं कि भारहीनता बुढ़ापा आने की गति बढ़ा देती है। अंतरिक्ष में कोई व्यक्ति एक ही साल में जितना बूढ़ा हो जाता है, पृथ्वी पर उतना बूढ़ा होने में 6 से 10 साल लगते हैं। यानी, आंतरिक्ष में बीते हर एक साल में हमारी आयु 6 से 10 साल कम हो जाती है।
इन परिवर्तनों को जानने के लिए अंतरिक्ष स्टेशन ISS पर से वापस लौटे हर अंतरिक्ष यात्री का पहले मूत्र-परीक्षण (यूरीन टेस्ट) होता है। कैल्शियम और खनिज तत्वों जैसे वे सारे पदार्थ मूत्र में मिलते हैं, जो अंतरिक्ष में रहने के दौरान शरीर त्यागता रहता है। शरीर को लगता है कि जब कोई भार है ही नहीं, तो भारवहन करने वाले शारीरिक ढांचों की भी कोई जरूरत नहीं है। देखा गया है कि अंतरिक्ष में पहुंचते ही शरीर के विघटन की यह प्रक्रिया तुरंत शुरू हो जाती है। जांघों और कूल्हों की हड्डियां इससे सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। वे ही शरीर की सबसे बड़ी हड्डियां हैं और 6 से 8 प्रतिशत तक घट जाने से कमजोर हो कर भंगुर बन जाती हैं।
जांच-परख आजीवन चलती है : अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS पर उस हर चीज़ को जांचा-परखा और नापा-तौला जाता है, जिसका अध्ययन होना चाहिए। यह स्टेशन वास्तव में अंतरिक्ष में बनी एक बड़ी प्रयोगशाला है। वहां तरह-तरह के औजार हैं। उदाहरण के लिए, आंखों, हड्डियों और शरीर के अन्य अवयवों की वहां अल्ट्रासॉनिक जांच की जाती है। रक्त और मल-मूत्र के नियमित नमूने लिए जाते हैं। उद्देश्य होता है, यह जानना कि हमारा शरीर भारहीनता का कैसे अभ्यस्त बनता है। सारी गुत्थियों को समझने के लिए यह जांच-परख किसी अंतरिक्ष यात्री के पृथ्वी पर लौटने के बाद भी आजीवन चलती रहती है।
अंतरिक्ष में भी डॉक्टरी उपकरणों की जरूरत पड़ती है, हालांकि कोई डॉक्टर शायद ही कभी वहां होगा। डॉक्टरी उपकरणों का उपयोग पृथ्वी पर ही सीखना पड़ता है, ताकि चंद्रमा या मंगल जैसी किसी वीरान-सुनसान जगह पर कोई यदि बीमार या दुर्घटनाग्रस्त हो जाए, तो उसकी तुरंत सहायता की जा सके। संकटकाल में खुद को भी बचाया जा सके।
हड्डियों का क्षरण होता है : अंतरिक्ष में रहने के समय होने वाले कई शारीरिक परिवर्तन, बुढ़ापे में पृथ्वी पर होने वाले मांसपेशियों के या हड्डियों के क्षरण जैसे ही होते हैं। ISS के ख़ूब हंसते-मुस्कराते अंतरिक्ष यात्रियों की तस्वीरें कुछ भी कहें, सच्चाई यह है कि वे भी बुढ़ापे वाले किसी न किसी कष्ट से लड़ रहे होते हैं। उनकी हड्डियां पृथ्वी पर होने वाले क्षरण की तुलना में छह गुनी अधिक मात्रा में कमजोर हो रही होती हैं। वे कमर और पीठ के दर्द से परेशान रहते हैं।
अंतरिक्षयात्री किसी फिटनेस स्टूडियो में दिखने वाले उपकरणों की सहायता से हर दिन कम से कम दो घंटे कसरत आदि न करें, तो उनकी हड्डियां भुरभुरी हो जाएंगी। रीढ़ की मेरुदंड छोटी और लगभग सीधी हो जाएगी। इसीलिए लगातार ऐसे ट्रेनिंग उपकरण विकसित किए जा रहे हैं, जिनके उपयोग से ISS के अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष की भारहीनता में भी पृथ्वी पर रहने जैसा आभास हो। ISS इसी कारण दुनिया का सबसे मंहगा फिटनेस स्टूडियो कहलाता है।
ISS पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर रह कर उसकी परिक्रमा कर रहा एक विशाल अंतिरक्ष स्टेशन है। उसमें एक साथ 7 लोगों के रहने-कामकरने और उनके लिए आवश्यक फ़िटनेस उपकरणों को रखने की जगह है। पर 6 से 9 महीने की लंबी उड़ान के बाद मंगल ग्रह पर पहुंचने वाले किसी यान में इतनी सारी जगहें और सुविधाएं संभव नहीं होंगी। प्रश्न यह भी होगा कि इतनी लंबी उड़ान के बाद वहां पहुंचने वाले क्या कुछ करने-धरने लायक रहेंगे भी?
मंगल पर भार पृथ्वी पर के एक-तिहाई जितना : मंगल ग्रह पर हर चीज का भार, पृथ्वी पर उसके भार का केवल एक-तिहाई होगा। इस कारण वहां चलना-फिरना कुछ समय के अभ्यास के बाद कुछ आसान तो हो जाएगा, पर लंबे समय तक रहने पर शरीर वहां की परिस्थितियों के अनुसार ढलने लगेगा। यानी, वहां गए मनुष्यों की हड्डियां और मासपेशियां भी छोटी होने लगेंगी, क्योंकि वहां उनका अपना वज़न भी, पृथ्वी पर की अपेक्षा, एक ही झटके में दो-तिहाई कम हो गया होगा।
एक दूसरी समस्या है, भारहीनता की अवस्था में हमरे शरीर और उसके बाहरी परिवेश के बीच गर्मी की अदलाबदली की। पसीना जल्दी सूखता नहीं। शरीर का तापमान लगभग हमेशा डेढ़-दो डिग्री अधिक रहता है। इसे अंतरिक्ष ज्वर (स्पेस फ़ीवर) नाम दिया गया है। इस अंतरिक्ष ज्वर से शरीर की कार्यकुशलता घटने लगती है। करीब दो महीने बाद शरीर का तापमान 38 डिग्री सेल्सियस के आस-पास टिक जाता है, जो पृथ्वी पर के हमारे सामान्य तापमान से अधिक ही है। तापमान बढ़ जाने पर बहुत साधारण काम भी हमारे दिमाग को मुश्किल लगने लगते हैं। भारहीनता हमारे शरीर की रासायनिक क्रियाओं को भी बदलने लगती है। हमारी कोशिकाओं की दीवारें (मेम्ब्रेन) क्षतिग्रस्त होने लगती हैं।
शारीरिक क्षरण गंभीर समस्या : चिकित्सा विज्ञान अभी तक यह जान नहीं पाया है कि अंतरिक्ष में भारहीनता के कारण मांसपेशियों और हड्डियों के विघटन को वहीं रोका या पलटा कैसे जा सकता है। हमारी आंखें भी चिंता का एक विषय हैं। अंतरिक्ष स्टेशन ISS में रह चुके अंतरिक्ष यात्रियों ने पाया है कि उनकी आंखें बंद होने पर भी उन्हें अपनी पलकों के नीचे चिन्गारियों जैसी एक हल्की-सी चमक बार-बार गुज़रती दिखती है। यह वास्तव में बाह्य अंतरिक्ष से आने वाले विकिरण के कणों की चमक होती है। इससे नींद में और ध्यान लगाने में बाधा पड़ती है। मंगल ग्रह का वायुमंडल बहुत पतला होने से वहां ब्रह्मांडीय विकिरण वाले कणों का कहीं अधिक सामना करना पड़ेगा। चंद्रमा पर तो वायुमंडल है ही नहीं।
वैसे तो हमारी पृथ्वी के दोनों ध्रुवों के बीच का चुंबकीय बलक्षेत्र इन कणों को ऊपर की ओर छितरा देता है, नीचे नहीं आने देता। पर, अंतरिक्ष स्टेशन ISS पृथ्वी से 400 किलोमीटर की जिस ऊंचाई पर परिक्रमा कर रहा है, उस ऊंचाई पर कुछ कण अंतरिक्ष स्टेशन की दीवारों और अंतरिक्ष यात्रियों के शरीरों को भेद कर आर-पार चले जाते हैं। आंखों से हो कर गुजरने वाले विकिरण के कण एक पतली-सी चमकीली रेखा खींचते हुए निकल जाते हैं। पृथ्वी पर तो चुंबकीय बलक्षेत्र और घना वायुमंडल हमें इन कणों से बचा लेता है, पर अंतरिक्ष में और चंद्रमा या मंगल पर ऐसा कोई प्राकृतिक रक्षाकवच नहीं है। हम नहीं जानते कि लंबे समय तक वहां रहने पर क्या होगा।
जो भी हो, भारत ने जब अंतरिक्ष की तरफ कदम बढ़ाने का निश्चय कर ही लिया है, तो हमारी कामना व प्रार्थना यही होगी कि शुभांशु शुक्ला की अंतरिक्ष यात्रा हर दृष्टि से पूर्णतः सफल हो और वे दीर्घायु बनें।