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अपनी दुर्गति के लिए नेताओं से ज्यादा दोषी जनता है

अपनी दुर्गति के लिए नेताओं से ज्यादा दोषी जनता है - Indian political
भारतीय राजनीति नित-प्रति पतित और राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं भारतीय चेतना के मूल्यों को खोती चली जा रही है। राजनीति की इस दुर्दशा के पीछे जितने बड़े अपराधी हमारे राजनेता हैं, उतनी ही बड़ा अपराधी जनमानस भी है।

स्वतंत्रता के पश्चात जब संविधान सभाओं की बहस हो रही थी तथा देश को चलाने के लिए संवैधानिक नियमों को मूर्तरूप दिया जा रहा था, उस समय कभी किसी ने सोचा नहीं रहा होगा कि यह राजनीति इतनी कलुषित, नैतिकता विहीन, मूल्यविहीन हो जाएगी।

राजनीति के माध्यम से जिस भारतवर्ष का पुनरोत्थान तथा आमजनों के हितों का संरक्षण संवर्द्धन और विकास के माध्यम से जनकल्याण को सर्वोपरि रखते हुए वास्तविक तौर पर "जनता-जनार्दन" को सर माथें में रखकर राजनीति को नया आयाम देना था।

वह राजनीति स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अपराधियों, माफियाओं, गुण्डों, बाहुबलियों, धन्नासेठों  के अधीन हो गई तथा उससे जनता की आवाज़ लुप्त हो गई। जनता के पास कराह, पीड़ा, दु:ख तथा अपनी दैन्यतम परिस्थितियों के आगे विवश होकर रोने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा है। राजनैतिक दलों उनके नेताओं द्वारा जनता को केवल चुनाव में निवाले की भां‍ति निगलने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा है। चुनाव आते ही नेताओं और जनता को अपना रिश्ता याद आता है, बाकी के दिनों सब भूल जाते हैं। लेकिन नेता अपना रिश्ता (वोटबैंक जुगाड़) करने वाला नहीं भूलते बल्कि जनता अपने (मत) वाले रिश्ते की महत्ता को प्रायः भूल जाती है।

विभिन्न प्रलोभनों यथा-जात-पात, पैसा, रुपया, शराब, पैर छुओ प्रतियोगिता, सेल्फीबाजी तथा पार्टियों के जयकारे और नेताजी की तात्कालिक कुटिलतापूर्ण शाबशी और स्नेह के आगे जनता हथियार डाल देती है। राजनैतिक तंत्र को यह बखूबी पता होता है कि किसे, किस माध्यम के द्वारा अपने पाले में किया जा सकता है, इसलिए राजनैतिक दल और उनके नेता चुनाव में अपने इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के माध्यम से जनता का शिकार करते हैं।

मतदाताओं और नेताओं के बीच चुनावी सरगर्मी में एक नया उबाल पैदा होता है, लेकिन हर बार मतदाता चुनावी उबाल में निचोड़ लिया जाता है। इसका दोषी मतदाता ही है, क्योंकि यदि उसे अपने मत का महत्व नहीं पता होता है और वह प्रलोभनों के आगे जब स्वयं को समर्पित कर देता है तो फिर उसके पास बचता ही क्या है?क्योंकि राजनैतिक दलों के नेता जब जनप्रतिनिधि बन गए तो वे उसके बाद जनता की ओर मुंह फेर देखते नहीं है।

वे जनप्रतिनिधि बनने के बाद अपनी आय के माध्यम ढूंढ़ते हैं कि कैसे और किस प्रकार से, कहां-कहां से धन की वर्षा होती है वे अपने इन अभियानों में जुटकर दिन-दुगुनी, रात-चौगुनी गति से आर्थिक वारे-न्यारे करने के लिए जुट जाते हैं।

राजनैतिक दलों,नेतागणों से विभिन्न रिश्ते केवल चुनाव तक ही ध्यान आते हैं। वे विभिन्न हथकंडों से राजनैतिक नैरेटिव सेट करते रहते हैं। जनता सोचती है कि हमारा हित होगा लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि राजनैतिक दलों की कई सारी टीमें इस पर कार्य करती हैं वे जनता की दु:खती नब्ज एवं उस संवेदनशील मुद्दे को उछालते हैं जिसके माध्यम से विभिन्न वर्गों के मतदाता गण उत्तेजित होकर उनके दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर दें।

यह स्थिति किसी विशेष दल की नहीं होती बल्कि लगभग सभी दलों की होती हैं, जातियों के नाम पर मतदान के नैरेटिव सेट करने वाले अपने दल के विशेष जाति के, शेष नेता को भेजते हैं तथा जातिवाद के विभ्रम को उत्पन्न कर बदला लेने के मुद्दे को भड़काकर वोट हासिल करने का यत्न करते हैं। राजनेतिक दलों के स्थानीय कार्यकर्ताओ की टीमें बतलाती हैं कि कौन-किस माध्यम से चुनाव में उनके पक्ष में मतदान करेगा फिर वे इसके लिए पैसा, रुपया, शराब इत्यादि की खेप पर खेप पहुंचाकर वोटों को खरीदने का काम करते हैं। अब इन स्थितियों पर विचार करिए और सोचिए कि जो नेता, राजनैतिक दल आपके वोट को खरीद रहा है, वह भविष्य में आपका कितना बड़ा हितैषी होगा। इसका एकदम स्पष्ट एजेंडा है कि जो आपसे विभिन्न प्रलोभनों के माध्यम से वोट खरीदने का कार्य कर रहा है, वह उसे चुनाव जीतने के बाद हर हाल में जनता से ही वसूलेगा। जिन्होंने अपने वोट को विभिन्न प्रलोभनों के कारण किसी विशेष दल या प्रत्याशी को दिया है, क्या भविष्य में वे अपने जनप्रतिनिधि से विकास एवं जनहित के मुद्दों पर बात कर सकते हैं? चुनाव में जातियों के जिन्न अचानक बोतलों से बाहर आते हैं और बड़ी ही आसानी से अपने जातीय विषवमन की जादूगरी के द्वारा जनता को वशीभूत कर लेते हैं।

जनता के अंदर भी चुनावी जातीय अभिमान का भूत इस कदर चढ़ा होता है कि वे तथाकथित जातीय नेता के बहकावे में अपने "मत का मूल्य" ही भूल जाते हैं। जबकि असलियत यह है कि राजनीतिक दलों का कोई भी व्यक्ति किसी जाति का रहनुमा नहीं होता, बल्कि वह केवल और केवल अपने परिवार का सर्वेसर्वा होता है। जातीय नेताओं के इतिहास को उठाकर देख लीजिए कि उन्होंने अपनी जाति का कितना हित किया है? जातीय नेताओं ने केवल उस जाति को बरगलाकर वोट हासिल कर अपना वारा-न्यारा किया है। एक बात यह भी जान लेना चाहिए कि "नेता की कोई जाति नहीं होती" बल्कि वह अपनी पार्टी का बंधुआ मजदूर और गुलाम होता है। पार्टियां उसे अपने इशारे में नचाती हैं, वही राजनेता जो सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे को गाली देते नहीं थकते, वे आपस में बैठकर जाम छलकाते मिल जाते हैं। अब जनता को यह तय करना चाहिए कि उनका हित कौन करेगा?


वर्तमान परिस्थितियों को देखकर लगता ही नहीं है कि जनता नामक कोई भी व्यक्ति बचा है, क्योंकि ज्यादातर सभी लोग विभिन्न राजनैतिक दलों से सम्बध्द ही हैं। यदि राजनैतिक दलों से सम्बध्द नहीं हैं तो उन संगठनों से सम्बध्द हैं जो किसी नेता या राजनैतिक दल के लिए वोटबैंक जुटाने का माध्यम है। किसी भी चुनाव में देख लीजिए जनता के मुद्दे सभी जगह से गायब मिल जाएंगे। राजनीति केवल आरोप-प्रत्यारोप तथा विभिन्न प्रलोभनों के इर्द-गिर्द घूमती हुई मिल जाएगी। नेताओं ने यह सूत्र पकड़ लिया है कि जनता को झूठ, मक्कारी, जातीय विद्वेष, रुपिया, शराब सहित अन्य विध्वंसक हथकंडों के माध्यम से अपने पक्ष में किया जा सकता है। इसलिए वे इन्हीं बिन्दुओं पर काम कर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिध्द करने पर लगे रहते हैं।

जनता की इन्हीं आत्मघाती प्रवृत्तियों के चलते ही सच्चा, ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति राजनीति से बाहर हो गया है। अब राजनीति में अपराधियों,बलात्कारियों, गुण्डों-मवालियों, धनबलियों तथा बाहुबलियों का एकछत्र राज हो चुका है। राजनैतिक दल भी इन्हीं रणनीतियों पर काम कर रहे हैं, इसीलिए राजनीतिक दलों के द्वारा कर्त्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ताओं को चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाया जाता है। जब संसद,विधानसभाओं या स्थानीय निकायों का प्रतिनिधित्व अपराधी और धनबली, बाहुबली करेंगे तो जनता यह स्वप्न में भी न सोचे कि उनके हित की नीतियां बनेंगी।

कोई माने या न मानें लेकिन चुनाव आयोग ने भले ही चुनावी खर्च की सीमाएं निर्धारित की हों लेकिन राजनैतिक दलों तथा नेताओं द्वारा खर्च की जाने वाली राशि चुनाव आयोग के द्वारा निर्धारित राशि की कई गुना होती है। वह राशि केवल जनता को गुमराह करने, प्रलोभनों में फंसाकर वोटबैंक बनाने के लिए ही प्रयुक्त की जाती है। इन परिस्थितियों को निर्मित करने वाला कौन है? यही जनता जो चुनाव तथा उसके बाद अपनी किस्मत का रोना रोती रहती है। एक चीज साफ-साफ समझ लेनी चाहिए कि जब जनता अपने मत को विभिन्न प्रलोभनों के नाम पर किसी दल या नेता को देती है तो उसके बदले में जनता विकास एवं जनहित की नीतियों को भूल जाए,क्योंकि आपका मत ही आपका भाग्यविधाता है यदि आपने उस मत की कीमत नहीं समझी और प्रलोभनों के चक्कर में फंसकर फेंक दिया तो  आपका भविष्य अंधकारमय ही मिलेगा। जनता आखिर क्यों, नेताओं के बड़े काफिले, धनबल, बाहुबल, जाति या अन्य प्रतीकों के लिए ही मतदान करती है?

अगर इन प्रलोभनों के लिए मतदान किया है तो उसका परिणाम भी यही मिलेगा। राजनेताओं से भी अधिक दोषी जनता है। जनता यह ध्यान रखे कि राजनीति, नेताओं और दलों के लिए एक धंधा है, इसलिए वे किसी भी तरह से अपने धंधे में मुनाफा कमाने से नहीं चूकने वाले। सिध्दांत और जनहित की बातें केवल नारेबाजी के लिए ही प्रयुक्त की जाती हैं। इसलिए जनता को "ऐनकेन प्रकारेण" वे अपने पक्ष में करेंगे भले ही उन्हें इसके लिए किसी भी प्रकार की कीमत न चुकानी पड़े। अब यह अलग बात है कि चुनाव के बाद वे उसी जनता से ही वसूलेंगे। जनता देखे कि राजनीतिक दलों, नेताओं के षड्यंत्रों की बिसात में जनता कहां खड़ी है?उसके मत की क्या कीमत है, जनहित या अर्थहित?

आखिर जनता क्यों नहीं किसी सच्चे, ईमानदार व्यक्ति को अपने बीच से खड़ा करती? जनता उसके लिए स्वयं प्रचार करे, चन्दे दे फिर उसके पश्चात देखे कि विकास होता है या नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपने दिल में हाथ रखकर देखे और स्वयं से पूंछे कि उसने कितनी बार निष्पक्ष तथा योग्य प्रत्याशी को मतदान किया है? आखिर जनता इन्हीं प्रत्याशियों से यह पूंछने की हिम्मत क्यों नहीं करती कि जनता का भाग्योदय अब तक क्यों नहीं हुआ है? जो लोग जहां निवास करते हों वे बिना किसी प्रकार का पक्षपात किए हुए अपने यहां प्रचार-प्रसार करने वाले प्रत्याशियों, राजनैतिक दलों,नेताओं से केवल अपने यहां की समस्याओं की आवाज उठाएं और नेताओं की जवाबदेही तय करें।

राजनैतिक दलों के नेताओं से केवल नेता और मतदाता का सम्बंध रखकर सार्वजनिक मंचों में बहस को आमंत्रित करें और पूंछें कि हमारे यहां का विकास और समस्याओं का निराकरण करने की क्या योजना है? फिर देखिए स्थितियां कैसे बदलने लगती हैं, लेकिन क्या जनता में इतनी हिम्मत है कि वे राजनैतिक दलों, नेताओं की आंखों में आंख डालकर केवल विकास, जनहित, समस्याओं के निराकरण की बात कर सकें? जनता यह ध्यान दे कि जो नेता आपको विभिन्न प्रलोभनों में फंसाने का प्रयास करता है वह उनका कभी भी हितैषी नहीं हो सकता है। जो नेता जाति की बात करें तो उससे पूंछिए कि माननीय आपने हमारी जाति के किस व्यक्ति की मदद की है? और कैसी मदद की है? क्या नेताजी आपने, जाति के किसी गरीब की मदद की? उसकी बेटी के ब्याह में मदद की? क्या अपनी ही जाति के आर्थिक कमजोर व्यक्ति के बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए काम किया है? इन सवालों के जवाब अगर जाति के नाम पर वोट मांगने वाले नेता दे सकें तो फिर आप तय करिएगा कि वोट किसे देना हैं। जनता के वोट को जो खरीदने का काम करे, उसके मुंह पर तमाचे मारिए और कहिए कि हम बिकाऊ नहीं हैं।

क्योंकि जो जनता के वोट को खरीद रहा है वह उनके भविष्य का सौदा कर रहा होता है। अब जनता यह तय करे कि उसे क्या चाहिए, विश्वास कीजिए कि जिस दिन से जनता राजनैतिक दलों, नेताओं के कुचक्रों में न फंसकर विकास, समस्याओं के निराकरण के लिए उनसे जवाब सवाल करने लगेगी और सही व्यक्ति के लिए मतदान करेगी उसी दिन से जनता का भाग्योदय होगा, अन्यथा राजनैतिक दल और नेता इसी तरह से प्रलोभनों और विद्वेषों की आग में जनता को झोंकते रहेंगे।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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