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Written By Author उमेश चतुर्वेदी
Last Modified: बुधवार, 29 नवंबर 2017 (17:11 IST)

ठेके की पीड़ा

ठेके की पीड़ा - Contract consultant privatization
हाल ही में एक सज्जन को सरकारी दफ्तर में कंसल्टेंट के तौर पर नौकरी मिली। निजीकरण का दौर जब तेज हुआ था तो सरकारी क्षेत्र की नौकरियां निजी कंपनियों की नौकरियों के सामने बौनी लगने लगी थीं। लेकिन निजीकरण ने जब अपना पांव जमा लिया तो उसकी सीमाएं भी नजर आने लगीं। लगातार छंटनी और नौकरियों पर बढ़ते खतरे ने नौकरी के लिहाज से निजीकरण के प्रति उपजे मोह को कम करना शुरू कर दिया। रही-सही कसर छठे और सातवें वेतन आयोग की रिपोर्टों ने पूरी कर दी। इसके बाद एक बार फिर सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा। 
 
बढ़ती महंगाई और निजी नौकरियों में जॉब सुरक्षा पर लटकती तलवारों के चलते एक मुहावरा ही चल पड़ा- 'करो सरकारी ना तो बेचो तरकारी...'। तो ऐसे माहौल में उस सज्जन को ठेके पर ही सही, सरकारी नौकरी मिली तो लगा, चलो कुछ तो चैन आया। लेकिन दफ्तर में उन्हें अजब तरह की छुआछूत का सामना करना पड़ा। निजी दफ्तर में कम से कम उनकी मेज पर पानी की बोतल ही सही, मौजूद रहती थी। सेवा की ड्यूटी निभाने वाले सहकर्मियों को बुलाकर वे चाय-पानी भी मंगा सकते थे। 
 
लेकिन सरकारी दफ्तर में उन्हें इसके लिए महरूम रहना पड़ा। प्यास लगी तो खुद उठकर आरओ मशीन के पास गलियारे में जाना पड़ता। चाय पीने की इच्छा हुई तो तीसरे तल के अपने दफ्तर से भूतल पर जाना पड़ता। इसमें वक्त ज्यादा लगता। 
 
चूंकि निजी क्षेत्र में खून चुसवाने की आदत उन्हें लगी हुई थी, लिहाजा यह कवायद उन्हें अपने वक्त को जाया करना लगती इसलिए उन्होंने घर से पानी की बोतल लाना शुरू कर दिया। चाय का कोई विकल्प नहीं ढूंढ़ पाए हैं, लिहाजा अब उन्होंने चाय-कॉफी पर लगाम लगा ली है। जब भी उनके दफ्तर कोई मिलना आना चाहता है तो वे उस मेहमान को टालने के लिए बहाने खोजने लगते हैं।
 
हालांकि वे बहुत मिलनसार हैं। निजी नौकरी में जब वे थे तो लोगों को मिलने को लेकर टालते नहीं थे। अपनी मसरूफियत में से भी वक्त निकाल लेते, अतिथि कक्ष में मिलने आए लोगों को बैठाकर चाय-पानी दिलाकर जरूरी काम भी अपनी टेबल पर निबटा आते। लेकिन अब सरकारी नौकरी में इससे पीछा छुड़ा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि उन्हें चिंता रहती है कि अगर मेहमान आ गए तो उन्हें पानी कैसे पिलाएंगे? चाय कैसे मंगाएंगे?
 
उनके दफ्तर में हर सरकारी दफ्तर की तरह दो तरह के कर्मचारी हैं। नियमित और ठेके के कर्मचारियों में करीब 40-60 का अंतर है। वैसे निजीकरण के बाद सरकारी दफ्तरों में अफसरों को छोड़ दें तो हर स्तर पर ठेके के कर्मचारियों की संख्या ज्यादा बढ़ी है। नियमित कर्मचारी ठसक में रहते हैं, जबकि ठेके के कर्मचारी हमेशा चिंता में...। इसलिए अपने सरकारी बॉस के सामने दांत चियारे उनकी मजबूरी बन गया है। बॉस नाराज हुआ तो अगले साल शायद ही ठेका आगे बढ़े। इसलिए उन्हें जो भी कहा जाता है, करने को तैयार रहते हैं जबकि नियमित कर्मचारी अपनी ड्यूटी से बेपरवाह रहते हैं। 
 
उस सज्जन का संकट यह नहीं है कि उनके लिए चाय-पानी लाने वाले लोग नहीं हैं। कर्मचारी तो हैं, लेकिन कभी वे सीट पर नजर नहीं आते या नजर आते भी हैं तो बुलावे को टाल जाते हैं। बेशक, वे चपरासी ही क्यों न हों। लेकिन ठेके वाले कंसल्टेंट या दूसरे लोगों को हेय नजर से ही देखते हैं और मानते हैं कि उनके लिए पानी-चाय लाना उनकी जिम्मेदारी नहीं। अलबत्ता दफ्तर का नियमित कर्मचारी उनसे चाय-पानी मांग ले तो वे दौड़कर लाते हैं। जबकि ठेके के कर्मचारियों की सोच इससे दूर है। वे ठेके के बड़े कर्मचारियों-कंसल्टेंट आदि की जरूरतें तो पूरा करते ही हैं, नियमित कर्मचारियों का भी हुक्म बजाते हैं।
 
एक बात और, दफ्तर की जरूरी सूचनाएं भी ठेका कर्मचारियों या कथित अफसरों से छुपाई जाती हैं। माना जाता है कि उन्हें ऐसी जानकारी देने की जरूरत ही क्या है? इस व्यवस्था ने सरकारी दफ्तरों में भी नए तरह के छुआछूत को जन्म दिया है। जहां नियमित-नियमित भाई-भाई हैं, अपने को ठेके वाले कर्मचारियों से कुछ ऊपर ही समझते हैं जबकि अनियमित या ठेके के कर्मचारी दोयम दर्जे के नागरिक हैं। बेशक, वे बड़े ही पद पर क्यों न हों। 
 
एक बात और है, अनियमित या ठेके पर बड़े पदों पर नियुक्त लोगों की जरूरी सहूलियतें मुहैया कराने में दफ्तरों का संपदा विभाग आनाकानी या टालमटोल के जितने भी रास्ते हैं, तलाश लेता है। ये बातें निजीकरण के समर्थक नीति-नियंताओं को पता है या नहीं, लेकिन यह तय है कि नियमित बनाम ठेका कर्मचारी की व्यवस्था हमारे सामाजिक माहौल में हस्तक्षेप तो कर ही रही है।
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