अरविन्द केजरीवाल के शपथग्रहण समारोह ने ज्यादातर विपक्षी दलों को धक्का पहुंचाया होगा। इस विजय के बाद विपक्ष ने जिस तरह का उत्साह दिखाया था, उससे ऐसा लग रहा था कि वर्तमान माहौल में राजधानी दिल्ली का रामलीला मैदान भाजपा विरोधी विपक्षी जमावड़े का मंच बनेगा। निश्चय ही ज्यादातर नेता शपथग्रहण के निमंत्रण का इंतजार कर रहे होंगे।
केजरीवाल ने किसी विपक्षी नेता को निमंत्रण नहीं दिया। इस समय नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर एवं एनआरसी को लेकर विपक्ष ने जिस तरह भाजपा विरोध माहौल बनाया हुआ है उसे देखें तो यह असामान्य राजनीतिक घटना लगेगी। जाहिर है, इसका भविष्य की राजनीति के लिए गंभीर मायने हैं। इस पर विचार करना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शपथग्रहण में आने का निमंत्रण दिया था। यह बात अलग है कि वाराणसी में निर्धारित कार्यक्रम होने के कारण उन्होंने विनम्रतापूर्वक अपनी कठिनाई से अवगत कराई।
वास्तव में शपथग्रहण समारोह का पूरा माहौल, विपक्ष की अनुपस्थिति और केजरीवाल द्वारा दिए गए भाषण ने मोदी सरकार के विरोधियों की कल्पनाओं और उम्मीदों से बिल्कुल अलग संकेत दिए हैं। तो क्या हैं वे संकेत? क्या हैं उनके मायने? क्या हो सकता है राजनीति पर इसका असर?
इन प्रश्नों पर इसलिए भी विचार करना जरुरी है क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद ही कुछ लोग केजरीवाल को मोदी विरोधी विपक्षी एकता का चेहरा बनाने की बात करने लगे थे तो कुछ कहने लगे थे कि यह विपक्षी एकता की गंगोत्री साबित होगी जो मोदी और शाह को बहा ले जाएगी। पूरे देश ने रामलीला मैदान से एक ऐसे केजरीवाल का चेहरा देखा जो टकराव की जगह केन्द्र के साथ समन्वय व सहयोग की नीति अपनाने की बात कर रहा था। उनके पूरे भाषण में एक शब्द केन्द्र सरकार ही नहीं, दिल्ली में भाजपा शासित नगर ईकाइयों के खिलाफ भी नहीं थी। बल्कि उन्होंने अपने भाषण में यह कहा कि प्रधानमंत्री आज किसी और कार्यक्रम में व्यस्त हैं हमें उनके साथ सभी मंत्रियों को आशीर्वाद चाहिए।
शायद ही कोई केजरीवाल से ऐसी बातों की उम्मीद कर रहा था। उन्होंने दो करोड़ दिल्लवासियों की बात की तो देश की भी। ऐसा लग रहा था जैसे एक नेता दिल्ली और देश के विकास के लिए मिल जुलकर काम करने का आह्वान कर रहा हो। उन्होंने भारत के दुनिया की एक बड़ी शक्ति होने का विश्वास भी प्रकट किया। कोई विपक्षी नेता देश के महाशक्ति होने के विश्वास का भाषण नहीं करता। इसके उलट मोदी सरकार की आलोचना में कई नेता सीमा का अतिक्रमण कर देश को ही छोटा दिखा देते हैं। गहराई से विचार करेंगे तो केजरीवाल ने स्वयं के बारे में दिल्ली के विकास पर काम करने के साथ देश को भी आगे बढ़ाने में योगदान करने के लिए तैयार नेता होने का संदेश दिया।
इसे अगर बोले गए शब्दों के अनुसार विचार करें तो भारतीय राजनीति के लिए इसके अर्थ काफी गहरे हैं। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो 6 करोड़ गुजरातियों की बात हमेशा करते थे। उसके साथ वे यह भी कहते थे कि हम गुजरात का विकास कर देश के विकास में योगदान करते हैं। यह राष्ट्रवाद उन्मुख क्षेत्रीयता थी। ठीक यही रास्ता केजरीवाल अपनाते दिख रहे हैं। दूसरे, उन्होंने एक शब्द टकराव का नहीं बोला। इसकी जगह कहा कि चुनाव में एक दूसरे पर हमला होता है लेकिन यह चुनाव खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाना चाहिए। किसी ने किसी को भी वोट किया हो मैं सभी का मुख्यमंत्री हूं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही आदर्श स्थिति होनी चाहिए। राजनीति का मूल उद्देश्य जनता की सेवा है।
इसमें चुनाव एक प्रतिस्पर्धा है जिसमें जो सत्ता तक पहुंचा उसे सब कुछ भुलाकर सेवा के काम में लग जाना चाहिए और विपक्ष को भी सकारात्मक व्यवहार करना चाहिए। चुनाव की कटुता आगे बिल्कुल न दिखे। विपक्ष अपनी भूमिका निभाए लेकिन अवरोधक बनकर नहीं। वहां विरोध करे जहां सरकार जनहित के विपरीत काम कर रही हो। प्रदेश की सरकारें केन्द्र से अनावश्यक राजनीतिक टकराव की जगह मिलकर जनहित और देशहित में काम करे तो भारत कम समय में ही न केवल अपनी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान कर लेगा बल्कि अपनी विशेष सांस्कृतिक पहचान के साथ विश्व की पहली कतार का देश भी बन जाएगा। हर भारतीय का यही तो सपना है। अगर अरविंद केजरीवाल एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में ऐसा सोचते हैं तो पहली नजर में इसका स्वागत होना ही चाहिए।
समस्या यह है कि केजरीवाल ने 2011 से 2020 तक इतनी बार अपनी ही घोषणाओं और वक्तव्यों के विपरीत काम किया है तथा उसे सही भी ठहराया है कि सहसा विश्वास नहीं होता कि उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया होगा। जो व्यक्ति हर बात में मोदी को खलनायक बता रहा हो वह आशीर्वाद मांगने लगे, तिरंगा को सिरमौर बनाने तथा देश को उच्च शिखर पर ले जाने की बात करने लगे तो अचरज होगा ही। मुख्यमंत्री के लिए धूर्त शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं है इसलिए उन्हें चतुर नेता कहूंगा। उनके अभिनय की कला उन्हें सर्वाधिक चतुर नेता की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। जब तक हम उनके कहे हुए को आगे लंबे समय तक आचरण में बदलता न देख लें, यही मानेंगे कि ये सब उनके चतुर अभिनय का ही भाग होगा। हालांकि कामना यही होगी कि वाकई अपने अनुभवों से उन्होंने सीखा हो और केवल राजनीतिक लाभ के लिए बोलने और कदम उठाने के लिए देश और दिल्ली के हित में ईमानदारी से केन्द्र के साथ एक टीम के रुप में काम करें।
वैसे कुछ बातें चुनाव के समय से ही दिख रही थी। वे मोदी का नाम तक लेने से बच रहे थे। भाजपा के हिन्दुत्व और राष्ट्रीयता की काट के लिए उन्होंने रणनीतिक हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद को अपनाया। इसका चुनावी लाभ उनको मिला है। उन्हें पता है कि दिल्ली में अब उनके सामने केवल भाजपा ही है जिसकी ताकत मोदी सरकार की जन कल्याणकारी योजनाएं, विदेश स्तर पर भारत का बढ़ा हुआ सम्मान और बदली छवि तथा वैचारिक स्तर पर हिन्दुत्व एवं राष्ट्रवाद है। तो राजनीति में चुनावी लाभ लेने तक विदेश को छोड़कर अन्य पहलू अपनाने में हर्ज नहीं है।
14 फरबरी 2015 को जब वे रामलीला मैदान में शपथ ले रहे थे तो उनके सिर पर टोपी थी। इस बार कपाल पर बड़ा सा चंदन था। श्रवण कुमार द्वारा माता-पिता की तीर्थ यात्रा कराने की चर्चा उन्होंने की। यह निष्ठावान हिन्दू होने का ही तो संकेत था। तो मोदी की गुजरात राजनीतिक मॉडल के अनुरुप दिल्ली की क्षेत्रीय राजनीति पर कायम रहते हुए उसे राष्ट्रवाद से जोड़ना तथा भाजपा की ओर मतदाताओं को जाने से रोकने के लिए हिन्दुत्व का छौंक देते रहना। साथ ही मोदी की जन लोकप्रियता का ध्यान रखते हुए उनकी आलोचना स्वयं न करना। इसमें विपक्षी गोलबंदी के लिए जगह तत्काल तो नहीं है। अगर राजनीतिक परिस्थितियां नहीं बदली तो कम से कम अगले कुछ समय तक उनकी राजनीतिक धारा यही बनी रहेगी। यह वर्तमान समय के आम विपक्षी पार्टी का रवैया नहीं है।
ध्यान रखिए, चुनाव में भी उन्होंने किसी विपक्षी नेता को अपने पक्ष में भाषण देने के लिए नहीं बुलाया, जबकि वो स्वयं चन्द्रबाबू नायडू के लिए प्रचार करने गए थे। इसका एक संकेत यही है कि वे मोदी विरोधी विपक्ष की राजनीति का भाग बनने से बचेंगे। आगे का नहीं कह सकते लेकिन विपक्ष के लिए तत्काल यह निराशाजनक है। पंजाब में भी वे अकेले ही चलने की कोशिश करेंगे। वे केन्द्र के साथ कुछ समय तक अवश्य सहयोग करके चलेंगे। उनके सहयोगी बताते हैं कि मोदी एवं उनकी टीम के कुछ सदस्यों ने पिछले कुछ समय में विकास से लेकर, पर्यावरण, यातयात, यमुना सफाई.... आदि पर जिस तरह खुलकर सहयोग किया है उससे वे अपना विचार बदलने को बाध्य हुए हैं। सहयोग का उत्तर आप असहयोग और निंदा से तो नहीं दे सकते। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इसी नीति पर चले रहे हैं और उनके साथ केन्द्र की ओर से कोई समस्या नहीं। हालांकि नवीन पटनायक केजरीवाल की तरह अभिनय और अति लोकप्रियतावादी कदमों से बचते हैं।
बहरहाल, जब तक इसके अतिरिक्त कुछ सामने नहीं आता हमें मानकर चलना होगा कि 16 फरबरी 2020 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले केजरीवाल काफी हद तक एक बदले हुए नेता नजर आए हैं। किसी की एक शब्द आलोचना नहीं, आमूल-चूल बदलाव की कोई अव्यावहारिक क्रांतिकारी वायदा नहीं, लोगों के अंदर उत्तेजना पैदा करने का भी कोई वक्तव्य नहीं। केवल मिलजुलकर का करने की चाहत। प्रधानमंत्री का सम्मान से नाम। देश की राजनीति पर भी उन्होंने कुछ नहीं बोला। केवल अपनी योजनाओं की अन्य राज्यों द्वारा अपनाने की बात की। नागरिकता संशोधन कानून से लेकर एनपीआर एवं एनसीआर पर पूरे चुनाव प्रचार से लेकर शपथग्रहण तक की उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती है।