शुक्रवार, 22 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. मीडिया दुनिया
  4. »
  5. मीडिया मंथन
Written By WD
Last Modified: गुरुवार, 26 जून 2014 (19:43 IST)

हिन्दी चैनलों में 'समझौता', मजबूरी या...

-मीडियामैन

हिन्दी चैनलों में ''समझौता'', मजबूरी या... -
PR
हिंदी समाचार चैनल में महिला एंकरों की दिक्कतें क्या हैं। क्यों एक चैनल में किसी ने आत्महत्या का प्रयास किया। क्यों कहीं किसी ने एक पत्र लिखकर 'समझौता' न कर पाने की बात कहकर चैनल छोड़ दिया। क्यों कुछ साल पहले एक एंकर के आरोप लगने के बाद भी, कहीं कोई उच्च पद पर आसीन है। क्यों एक वरिष्ठ से ओछी बात पर मालिक को शिकायत के बाद भी किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। ये बातें कहीं और नहीं, हिंदी न्यूज चैनलों के अंदर सालों से हो रही है। हम अंग्रेजी की बात अभी नहीं करेंगे। क्योंकि ताजा मामले हिंदी टीवी पत्रकारिता से जुड़े हैं।

समाज बदला, सोच बदली, रंग बदला, लिबास बदला, भाषा बदली, अर्थ बदले और व्यावसायिक जगत की आपाधापी में पत्रकरिता के आदर्श की बात ज्यों की त्यों रही, पर हां कर्मचारी या कहिए पत्रकार को बहुत सारी ताकतों के कारण खुद को बदलना पड़ा है। समझौता शब्द छोटा है, किसी पत्रकार, खासकर महिला द्वारा अनुभव के अक्स में।

प्रस्तोता की भूमिका क्या हो, इस पर सभी का एकमत हो सकता है कि वो खबर को सूचना की तरह पेश करे और खुद को खबर पर हावी न होने दे। अपनी भावभंगिमा और रूप के भाव को किनारे रखकर उसे टीवी पर केवल दर्शकों को निष्पक्ष तरीके से देखने की आदत को और मजबूत करने की जिम्मेदारी दी गई है। फिर, खबरों में सनसनी, तेजी, भावोत्तेजकता, फिर ब्रेक में नारी का उत्पाद की तरह प्रदर्शन, फिल्मों, इंटरनेट पर जिस्म और देह की देहरी पर मिटती पहचान। बहुत सारे विचार मिलकर उसे केवल 'शरीर' बनाते जा रहे थे।

कोई लड़ नहीं रहा था, जब-जब महिलाओं ने बराबरी के लिए कुछ किया, तो उसे स्थान मिला, लेकिन साथ में कुछ ऐसा भी दिया गया, जिसने उसे बराबर न होने दिया। टीवी पत्रकारिता ने बहुत सारी महिला पत्रकारों को फीचर्स रिपोर्टर्स, डेस्क तक सीमित रखा। इंटरटेनमेंट कवर करो, खुश रहो।

सुंदरता के मानक को कुछ तराशकारों ने एंकर के तराजू से तौला। फिर मार्निंग बुलेटिन के लिए उसे मुफीद माना। फिर मार्निंग शिफ्ट और लेट प्राइम शिफ्ट (रात 10-12 बजे) में फिट किया। गौर करिएगा, आज भी ये संतुलन जारी है। अभी भी हिंदी न्यूज चैनलों में कैमरामैन और एडिटिंग में लड़कियां नहीं रखी जाती हैं। एक बड़ी मीडिया कंपनी में तो ये अनकही नीति भी है।

एंकर होकर खुद को कुछ न समझना आईने जैसा है। दूसरे उससे लाभ लेते रहते हैं, पत्रकारिता में नया-नया तजुर्बा बिलकुल गाड़ी चलाने जैसा होता है, ब्रेक मुश्किल से लगते हैं और तेजी में गलतियां होती रहती हैं। कई साल कई मोर्चों पर समय बिता चुके पके-तपे वरिष्ठ गलतियों के इंतजार में रहते हैं, सीखने-सिखाने के बाद वे डांटने को एक स्थायी ताकत बनाए रखते हैं। अभी भी कई वरिष्ठ, एंकर को एंकरिंग का मौका देने को अहसान के तौर पर ही देखते हैं।

समाज के हर वर्ग में, व्यवहार में, आचार में गिरावट या बदलाव आया है। पत्रकारिता इससे अछूता नहीं है। जिंदगी की व्यस्त सवारी में कई बार दूसरों का नाजायज फायदा लेने वाले इसे अपना अधिकार सा मानने लगते हैं। वे कई बार जान बूझकर लोगों को परेशान कर 'रास्ते' पर लाने की कोशिश भी करते हैं। पत्रकारिता के उसूलों की दुहाई देकर, वे निजी फायदे में मशगूल हैं। उनकी गलती तब और बढ़ जाती है, जब बर्दाश्त करने वाले नौकरी के नाम पर उसे सहता रहता है। कई हादसे सपनों और हकीकतों के बीच घटते जाते हैं। लोग सहज होते जाते हैं।

पत्रकारिता की चुनौतियों में खुद के सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ना अब टीवी में कई दिक्कतों की वजह से कठिन हुआ है, ऐसा बहुतों का मानना है। लेकिन वजूद की लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक पत्रकारिता होती रहेगी।