HIGHLIGHTS
• राहु और केतु, चंद्रमा की कहानी।
• चंद्रग्रहण की पौराणिक कथा क्या है।
• इस दिन पूजन नहीं किया है और ना ही भगवान के दर्शन।
chandragrahan katha : धार्मिक शास्त्रों के अनुसार चंद्र ग्रहण पूर्णिमा के दिन होता है। और चंद्र ग्रहण के दिन किसी भी देवी-देवताओं के दर्शन करना अशुभ माना जाता है। इस दिन मंदिरों के पट बंद रहते हैं तथा किसी भी तरह की पूजा का विधान नहीं किया जाता है।
चंद्र ग्रहण को लेकर यह पौराणिक कथा है। आइए जानते हैं यहां-
पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब देवों और दानवों के साथ अमृत पान के लिए विवाद हुआ तो इसको सुलझाने के लिए मोहिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। जब भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों को अलग-अलग बिठा दिया। लेकिन असुर छल से देवताओं की लाइन में आकर बैठ गए और अमृत पान कर लिया। देवों की लाइन में बैठे चंद्रमा और सूर्य ने राहु को ऐसा करते हुए देख लिया।
इस बात की जानकारी उन्होंने भगवान विष्णु को दी, जिसके बाद भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन राहु ने अमृत पान किया हुआ था, जिसके कारण उसकी मृत्यु नहीं हुई और उसके सिर वाला भाग राहु और धड़ वाला भाग केतु के नाम से जाना गया। इसी कारण राहु और केतु सूर्य और चंद्रमा को अपना शत्रु मानते हैं और पूर्णिमा के दिन चंद्रमा को ग्रस लेते हैं। इसलिए चंद्र ग्रहण होता है।
खगोलविज्ञान में चंद्र ग्रहण : खगोलशास्त्र के अनुसार जब पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के बीच में आती है तो चंद्र ग्रहण होता है। जब सूर्य व चंद्रमा के बीच में पृथ्वी इस प्रकार से आ जाए जिससे चंद्रमा का पूरा या आंशिक भाग ढंक जाए और सूर्य की किरणें चंद्रमा तक ना पहुंचे। ऐसी स्थिति में चंद्र ग्रहण होता है। स्कंद पुराण के अवंति खंड के अनुसार उज्जैन राहु और केतु की जन्म भूमि है। सूर्य और चंद्रमा को ग्रहण का दंश देने वाले ये दोनों छाया ग्रह उज्जैन में ही जन्मे थे।
अवंति खंड की कथा के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत का वितरण महाकाल वन में हुआ था। भगवान विष्णु ने यहीं पर मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत पान कराया था। इस दौरान एक राक्षस ने देवताओं का रूप धारण कर अमृत पान कर लिया था। तब भगवान विष्णु ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया था। अमृत पान के कारण उसके शरीर के दोनों भाग जीवित रहे और राहु और केतु के रूप में पहचाने गए।
राहु और केतु को ज्योतिष में छाया ग्रह कहा जाता है। ये दोनों ग्रह एक ही राक्षस के शरीर से जन्मे हैं। राक्षस के सिर वाला भाग राहु कहलाता है, जबकि धड़ वाला भाग केतु। कुछ ज्योतिष इन्हें रहस्यवादी ग्रह मानते हैं। यदि किसी की कुंडली में राहु और केतु गलत स्थान पर हों तो उसके जीवन में भू-चाल ला देते हैं। ये इतने प्रभावशाली हैं कि सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण भी इनके कारण ही लगता है।
राहु-केतु के अस्तित्व की कहानी : दैत्यों की पंक्ति में स्वर्भानु नाम का दैत्य भी बैठा हुआ था। उसे आभास हुआ कि मोहिनी रूप को दिखाकर दैत्यों को छला जा रहा है। ऐसे में वह देवताओं का रूप धारण कर चुपके से सूर्य और चंद्र देव के पास आकर बैठ गया, जैसे ही उसे अमृत पान को मिला सूर्य और चंद्र देवता ने उसे पहचान लिया और मोहिनी रूप धारण किए भगवान विष्णु को अवगत कराया। इससे पहले ही स्वर्भानु अमृत को अपने कंठ से नीचे उतारता भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, क्योंकि उसके मुख ने अमृत चख लिया था इसलिए उसका सिर अमर हो गया।
यह कथा बताती है कि ब्रह्मा जी ने सिर को एक सर्प के शरीर से जोड़ दिया यह शरीर ही राहु कहलाया और उसके धड़ को सर्प के सिर के जोड़ दिया जो केतु कहलाया। पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य और चंद्र देवता द्वारा स्वर्भानु की पोल खोले जाने के कारण राहु इन दोनों देवों का बैरी हो गए। और इस तरह राहु और केतु, सूर्य-चंद्रमा को अपना शत्रु मानते हैं।
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