समय सीमा पर विधि विशेषज्ञ एकमत नहीं
संविधानविदों और विधि विशेषज्ञों का मानना है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सरकार गठन की क्या समय सीमा होनी चाहिए, इसे लेकर संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप और वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ का मानना है कि सरकार नहीं बनने की स्थिति में प्रधानमंत्री बतौर कार्यवाहक कब तक पद पर बने रह सकते हैं, इसकी संविधान में कोई समय सीमा नहीं बताई गई है।वहीं उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति केएन सैकिया और पूर्व विधिमंत्री शांतिभूषण की राय है कि लोकसभा के दो सत्रों के बीच अंतराल संबंधी उच्चतम न्यायालय की व्याख्या की व्यवहार्यता का आकलन सरकार नहीं बनने की स्थिति उत्पन्न होने के बाद ही किया जा सकता है।गौरतलब है कि दो जून 2004 को गठित 14वीं लोकसभा का आखिरी सत्र गत 26 फरवरी को संपन्न हुआ था।सुभाष कश्यप ने कहा कि सदन के दो सत्रों के बीच अंतराल के बारे में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की व्याख्या कुछ इस तरह की थी कि एक लोकसभा के दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा का अंतराल नहीं होना चाहिए।इस तरह मेरे विचार से यह व्याख्या 14वीं लोकसभा के दो सत्रों के बीच तो लागू होती है, लेकिन संभवत: 15वीं लोकसभा के शुरुआती सत्र के मामले में नहीं लागू होती।कश्यप ने कहा कि निवर्तमान सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद नई सरकार का गठन कितने समय के बीच होना चाहिए इसे लेकर संविधान में कोई निश्चित समय सीमा नहीं दी गई है। उन्होंने कहा कि संविधान में यह भी नहीं कहा गया है कि सरकार नहीं बनने की स्थिति में निवर्तमान प्रधानमंत्री कितने समय तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं।ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि अगर संविधान में नई सरकार बनने को लेकर समय सीमा का उल्लेख नहीं है और अगर उच्चतम न्यायालय की दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का समय नहीं रखने की व्याख्या यहाँ लागू नहीं होती तो नई सरकार नहीं बनने पर क्या हालात पैदा हो सकते हैं।इस पर कश्यप कहते हैं कि सबसे पहले राष्ट्रपति की ओर से सर्वाधिक बड़े दल या गठबंधन को न्योता दिया जाएगा। उस दल के इनकार पर दूसरे सबसे बड़े दल या गठबंधन और फिर तीसरे दल या गठबंधन को मौका दिया जा सकता है। तीनों ही स्थिति में अगर सरकार न बने तो फिर नए चुनावों की घोषणा हो सकती है।न्यायमूर्ति केएन सैकिया ने कहा कि न्यायालय की व्याख्या अपनी जगह महत्वपूर्ण है, पर सरकार नहीं बनने की स्थिति में क्या रास्ता अपनाना बेहतर होगा इस पर अभी कुछ भी कहना काल्पनिक है। हमें इसके लिए इंतजार करना होगा।उन्होंने कहा कि यह भी सही है कि उच्चतम न्यायालय की व्याख्या की अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन इसकी व्यवहार्यता कितनी है इसका आकलन सरकार नहीं बनने जैसी स्थिति उत्पन्न होने के बाद ही किया जा सकता है।न्यायमूर्ति सैकिया ने कहा कि यह ज्यादा मायने रखेगा कि ऐसी किसी स्थिति में राष्ट्रपति किस तरह अपने विवेक का इस्तेमाल कर फैसले करती हैं। वैसे भी सरकार का गठन किस स्थिति में कैसे और कब होना चाहिए, अब तक इस बारे में देश की किसी भी अदालत ने कोई अंतिम निर्णायक हल पेश नहीं किया है। यह मुद्दा विधायिका से ज्यादा जुड़ा है।उन्होंने कहा निजी तौर पर कहूँ तो पहली नजर में यह मामला विधायिका और राष्ट्रपति के बीच का है। इसके बाद ही सदन के दो सत्रों के बीच समय के अंतराल की उच्चतम न्यायालय की व्याख्या लागू होती है।वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ ने कहा कि संविधान में सिर्फ लोकसभा के लिए ही नहीं, बल्कि विधानसभाओं के बारे में भी कहा गया है कि सदन के दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। विधानसभाओं में तो एक या दो दिन का सत्र बुलाकर खानापूर्ति कर दी जाती है लेकिन लोकसभा के मामले में ऐसा करना थोड़ा मुश्किल है।