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Lok Sabha Elections: 1952 से लेकर 2024 तक 72 साल की कहानी

History of General Elections
इमेज : सारंग क्षीरसागर
History of General Elections: करीब 144 करोड़ की आबादी वाले विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र भारत में हर 5 साल में एक बार लोकसभा चुनाव होते हैं। भारत का पहला लोकसभा चुनाव जिसे आम चुनाव (General Elections) भी कहते हैं साल 1952 में हुआ था। भारत में पिछले 72 सालों से लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। कई सरकारें आईं और सत्‍ताएं बदलीं। इस बीच देश भी बदला। अब 2024 में 18वीं लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है।

कई धर्म, संप्रदाय, भाषाएं और मान्‍यताओं वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत देश में चुनाव भी लोकतांत्रिक तरीके से होते हैं। जब सत्‍ताएं बदलती हैं तो सत्‍ताओं के हिसाब से देश की सूरत और सीरत भी बदलती रही हैं। जाहिर है पिछले 72 साल में देश, काल और परिस्‍थिति के लिहाज से लोकसभा चुनाव भी पूरी तरह से बदल गया है। इस बदलाव में राजनीति के तौर तरीकों से लेकर नेता, पार्टियों, चुनावी मुद्दे, चुनाव प्रक्रिया, प्रचार-प्रसार, नियम-कायदे, राजनीतिक विजन, नारे और यहां तक कि मतदाताओं की सोच तक में बदलाव आया है।

आजादी की लड़ाई के लिए बनाई गई देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस वर्तमान में अपने अस्‍तित्‍व के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है। वहीं सत्‍तारूढ़ भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में कॉर्पोरेट कंपनी की तरह परफॉर्म करती एक सिस्‍टम की तरह नजर आती है। बीजेपी इस बार आत्‍मविश्‍वास से लबरेज है और लोकसभा 2024 में 400 सीटें पार करने का दावा कर रही है।
History of general election

जानते हैं आखिर इतने सालों में भारत में लोकसभा चुनावों में किस तरह के और कौन-कौन से बदलाव आए हैं

सोशल मीडिया पर लड़ा जा रहा चुनाव : इन दिनों चुनावों की सबसे अहम बात उनके प्रचार प्रसार के तरीके में आए बदलाव हैं। एक जमाना था कि जब हर गली और मोहल्‍ले में झंडे, पोस्‍टर, बैनर और दीवारों पर राजनीतिक नारों के छापे नजर आते थे। इतना ही नहीं राजनीतिक रैलियों, वोट के लिए नेताओं के एनाउंसमेंट, घर-घर जाकर वोट मांगना, मतदाताओं के पैर छूना, आशीर्वाद लेना और नेताओं की सभाओं का शोर जमकर सुनाई आता था। चुनाव प्रचार प्रसार की सामग्री के लिए एक एक सीट पर हजारों लोग काम करते थे। झंडे पोस्‍टर बैनर से लेकर लाउडस्‍पीकर और नारे बनाने वालों के पास काम की काम था। लेकिन वक्‍त बदलने के साथ गली-मोहल्‍ले का सारा चुनावी शोर सोशल मीडिया पर शिफ्ट हो गया है। अब फेसबुक से लेकर एक्‍स (ट्विटर) और इंस्‍टाग्राम से लेकर यूट्यूब पर चुनाव का प्रचार प्रसार होता है।

खत्‍म हुए राजनीतिक चर्चाओं के ठिए : राजनीतिक पार्टियां अपनी सारी बयानबाजी, एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्‍यारोप और अपनी पार्टियों की उपलब्धि व अपने खिलाफ उम्‍मीदवारों की खामियां सिर्फ सोशल मीडिया में पोस्‍ट, शेयर और वायरल कर रहे हैं। अब सारी चुनावी चर्चाएं भी चाय, सिगरेट के ठियों और कॉफी हाउस से सिमटकर सोशल मीडिया में आ गई हैं। जो भी बहस चर्चा करना है वो इंटरनेट पर सोशल मीडिया के मार्फत हो रही है।

AI और Deep Fake का सहारा : 2024 के लोकसभा चुनाव में तो इस मामले में एक कदम आगे निकलकर अब एआई, डीप फेक और चैट जीपीटी जैसी आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि उम्‍मीदवार के पक्ष और उसके खिलाफ की सारी अवधाराणाएं और नैरेटिव सोशल मीडिया से ही तय हो रहे हैं।

IT CELL का काम बढ़ा : देश की तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों के आईटी सेल हैं। जहां बड़ी संख्‍या में सोशल मीडिया एक्‍सपर्ट, रिसर्च करने वाले, राजनीतिक विश्‍लेषक और फैक्‍ट चैकर्स काम कर रहे हैं।

चुनाव में कैंपेन कंपनियों की भूमिका : चुनावों की रणनीति के लिए आज हर पार्टी के पास उनकी कैंपेन कंपनियां या कैंपेन मैनेजर और चुनावी रणनीतिकार है। पीएम मोदी से लेकर कांग्रेस के राहुल गांधी तक भारतीय और विदेशी कैंपेन मैनेजरों का सहारा लेते हैं। प्रशांत किशोर भारत में एक ऐसा ही नाम है जो चुनावी रणनीतिकार के रूप में उभरकर आया।

EVM से रिप्‍लेस हुए बैलेट बॉक्‍स : चुनावों में तकनीकी तौर इसकी प्रकिया में काफी बदलाव आया है। चुनावी प्रक्रिया में सबसे बड़ा बदलाव 1990 के आखिरी दशक में देखने को मिला। इसमें ही इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) की शुरुआत हुई। उससे पहले बैलेट पेपर से वोटिंग होती थी। तब मतपेटियों की लूट से लेकर बूथ कैप्चरिंग के जरिए ठप्पामार वोटिंग तक, हर बार चुनावों में चुनावी प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने वाली खबरें सामने आती थी। साल 2004 में पहली बार EVM ने बैलेट पेपर को पूरी तरह से रिप्‍लेस कर दिया। इसी साल लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में पूरी तरह ईवीएम (EVM) मशीन के जरिये वोट डाले गए।
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वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट (VVPAT) : ईवीएम के साथ-साथ वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट (VVPAT) का साधन भी आया। वीवीपैट से मतदाता को पता चल जाता है कि उसने किस उम्मीदवार को वोट दिया है। इससे ईवीएम हैकिंग जैसी खबरों पर विराम लगा। हालांकि, अब भी कई तरह की धांधलियों की शिकायत चुनाव आयोग को मिलती है और चुनाव आयोग चुनावी प्रक्रिया में सुधार के लिए लगातार प्रयास कर रहा है।

68 से 7 चरणों तक पहुंचा चुनाव : पहले लोकसभा चुनाव में हर एक उम्मीदवार को मतदान केंद्र पर अपने नाम और चुनाव चिह्न के साथ एक अलग रंगीन मतपेटी दी गई थी। इसका मकसद यह था अनपढ़ लोग भी अपनी पंसद के उम्मीदवार को आसानी से वोट दे सकें। देश का पहला लोकसभा चुनाव 68 चरणों में सपंन्‍न हुआ था। जबकि पिछली बार साल 2019 में हुआ लोकसभा चुनाव 7 चरणों और 50 दिन के अंदर ही समाप्त हो गया।

21 से 18 हुई मतदान की उम्र : भारत में जब चुनाव होना शुरू हुए, तो उस समय मतदान आयु 18 वर्ष नहीं हुआ करती थी। बल्कि उस समय मतदान के लिए 21 वर्ष की आयु हुआ करती थी। लेकिन 1989 में 61वें संविधान संशोधन के तहत मतदान करने के लिए आयु सीमा 18 वर्ष कर दी गई थी। जो युवा 1 अप्रैल 2024 को 18 साल के हो गए हैं, वे इस चुनाव में वोट कर सकेंगे।

11 अक्टूबर 2013 में NOTA की एंट्री : भारत निर्वाचन आयोग ने 11 अक्टूबर 2013 से ईवीएम और मतपत्रों में नोटा का विकल्प उपलब्ध कराना शुरू किया था। नोटा का विकल्प मतपत्रों और ईवीएम के अंतिम पैनल में होता है। 2013 में पहली बार नोटा का इस्तेमाल छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में किया गया था। इसका अर्थ होता है None of the above यानी मतदाता किसी भी उम्‍मीदवार को वोट नहीं देना चाहता है।
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1993 के चुनाव में Voter ID की शुरुआत : वोटर आईडी कार्ड मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन (TN Seshan) के कार्यकाल के दौरान पहली बार 1993 में पेश किया गया था। यह चुनाव में फोटो पहचान पत्र के तौर पर आज भी इस्‍तेमाल होता है। 1993 के पहले के चुनावों में वोटर आईडी कार्ड नहीं था।

3 हजार सिनेमाघरों दिखाई फिल्‍म, सिखाया कैसे करना है वोटिंग?
मतदाता हुआ जागरूक :
एक वक्‍त ऐसा था कि लोगों को मतदान करना नहीं आता था, वोट कैसे डालना है और कहां पर डालना है। इसकी जानकारी लोगों को नहीं हुआ करती थी। इस लिहाज से मतदाताओं को वोट डालना सिखाने के लिए चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया को लेकर एक फिल्म बनाई। इस फिल्‍म को 3 हजार से ज्यादा सिनेमाघरों में मुफ्त दिखाया जाता था। इसके साथ ही ऑल इंडिया रेडियो पर भी बहुत सारे कार्यक्रम आयोजित किए गए। जिसमें लोगों को चुनाव प्रक्रिया के बारे में चुनाव के बारे में बताया जाता था। अखबारों में भी लेख और विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम किया गया।

समय के साथ कैसे बदले मुद्दे?
राजनीति में गौमाता की एंट्री :
भारतीय राजनीति में गाय एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रही है। गाय आज भी गौमाता बनकर राजनीतिक बयानबाजियों का हिस्‍सा है। राजनीतिक पार्टियों ने इसे जमकर भुनाया है। भारत में चांद, नदी और पेड़ों की तरह गाय की भी पूजा होती है। लेकिन जब से गाय राजनीतिक मुद्दा बनी है, कुछ लोगों के लिए वो आंख की किरकिरी बन गई। दरअसल, राजनीतिक मुद्दों ने भारतीय समाज को बहुत हद तक बदलने की कोशिश की है। कुछ का सोचना है कि गाय की वजह से हिन्दू और मुस्लिम के बीच द्वेष पैदा हुआ। एक तरफ गाय एक वर्ग के लिए गौमाता और श्रद्धा का विषय है तो दूसरी तरफ सिर्फ पशु।

कांग्रेस के बैल जोड़ी और गाय बछड़ा : कृषि प्रधान देश भारत में गाय और खेती हमेशा से संवेदनशील मुद्दे रहे हैं। खेती के साथ ही गाय का भारत की अर्थव्‍यवस्‍था में अहम योगदान रहा है। इसलिए शुरू से ही कृषि और गाय भारत के चुनाव में मुद्दे रहे हैं। कांग्रेस का चुनाव चिन्‍ह बैल जोड़ी, फिर गाय बछड़ा और बाद में हाथ का पंजा आया। जनता पार्टी का चुनाव चिह्न भी 'हलधर किसान' था।

विकास का मुद्दा : भारत के चुनावों में विकास भी एक अहम मुद्दा रहा है। विकास के तहत सड़क बनाना, गरीबी हटाना और रोजगार देना शामिल रहा है। आज भी नरेंद्र मोदी की सरकार सबका साथ, सबका विकास का नारा देते हैं।

भाजपा को भारी पड़ा शाइनिंग इंडिया : भाजपा ने 2004 में अटल बिहारी की सरकार में शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था। लेकिन यह पूरी तरह से फेल हो गया और भाजपा पर यह भारी पड़ा।

भ्रष्‍टाचार और घोटालों की राजनीति : भारत की राजनीति और चुनावों में भ्रष्‍टाचार और घोटालों का शोर कभी कम नहीं हुआ। तकरीबन हर चुनाव में यह मुद्दा उठा। हालांकि हर सरकार में घोटाले हुए और हर पार्टी ने इसे एक दूसरे के खिलाफ मुद्दा बनाया। इनमें बोफर्स घोटाला- 64 करोड़, एच.डी. डब्ल्यू सबमरीन- 32 करोड़, स्टाक मार्केट घोटाला- 4100 करोड़,  एयरबस घोटाला- 120 करोड़, चारा घोटाला- 950 करोड़, दूरसंचार घोटाला-1200 करोड़, यूरिया घोटाला- 133 करोड़, सी.आर.बी- 1030 करोड़, कोयला घोटाला 11 लाख करोड़, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला- 1.76 लाख करोड़, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला- 70 हजार करोड़, अब्‍दुल करीम तेलगी घोटाला- 20 हजार करोड़, सत्यम घोटाला- 14 हजार करोड़ और हवाला कांड- 18 मिलियन डॉलर का रिश्वत कांड शामिल है। बोफर्स घोटाले के आरोपों के चलते 1989 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई, जबकि 1984 का चुनाव उसने रिकॉर्ड सीटों के साथ जीता था।

धर्म का राजनीतिकरण : राजनीति में धर्म का इस्‍तेमाल इस कदर हुआ है कि अब तिलक लगाना, जनेऊ पहनना या किसी मंदिर में पूजा करने या नहीं करना मुद्दा बन जाता है। धर्म का इतना ज्‍यादा राजनीतिकरण हुआ है कि इसकी वजह से कई नेताओं को अपने लोगों को रिझाने के लिए आज खुद को हिंदू साबित करना पड़ता है। धर्म अब एक निजी मामला न होकर चुनावी रणनीति का हिस्‍सा हो गया है। चुनाव आते ही कई पार्टियों के नेता माहौल और रुझान के हिसाब से मंदिरों में माथा टेकते हैं या भगवा धारण करते हैं। कोई वोट बैंक के लिए इफ्तार पार्टी में जाता है तो राजनीतिक विवाद हो जाता है या कोई विवाद पैदा करने के लिए नवरात्रि में मछली खाने के वीडियो वायरल कर देता है। लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा के चुनाव हर बार राजनीति में कोई न कोई पार्टी धर्म का छौंक डालती है, उसका फायदा उठाने की कोशिश करती है। आज भी लोकसभा चुनावों में धर्म का मुद्दा हावी है।

ये जाति है कि जाती नहीं : यह भारतीय राजनीति ही है जिसमें हिंदू, मुस्‍लिम, सिख, इसाई, आपस में हैं भाई-भाई जैसे नारे दिए। जबकि इसके पहले तमाम क्षेत्रीय, भाषाई, वेशभूषा, धार्मिक और सामाजिक विविधताओं वाला यह देश अपनी स्‍वप्रेरणा से ही मिलजुलकर एकता के साथ रहता आया है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने फायदा उठाने के लिए इस विविधता को जो कि एक ताकत भी है, मुद्दा बना दिया। अब आलम है कि धर्म, संप्रदाय तो दूर की बात अब तो जातियों के आधार पर बंटवारे होने लगे हैं। आज जाति के आधार पर नौकरी में आरक्षण के लिए तमाम राज्‍यों से आंदोलन उठते हैं।

महंगाई- बेरोजगारी मुद्दे हैं लेकिन : यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की आजादी के बाद पहले चुनाव से लेकर बाद के कई चुनावों तक भारत में महंगाई और बेरोजगारी मुद्दा रहा है। आज भी देश में कई लोग सोचते हैं कि महंगाई है और बेरोजगारी का ग्राफ भी ऊंचा है, लेकिन नए दौर के चुनावी शोर में कोई इनकी बात करता नजर नहीं आ रहा है। अब चुनावी सभाओं में, राजनीतिक रैलियों में देश में बढती बेरोजगारी और महंगाई की चर्चा नहीं होती। सभी पार्टियों के नेता अब सिर्फ एक दूसरे पर राजनीतिक बयानबाजी और आरोप प्रत्‍यारोप करते हैं। यानी 2024 के आम चुनाव आते आते देश के गंभीर और आधारभूत मुद्दे गायब होते जा रहे हैं।
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लोकसभा चुनावों में नारों की महिमा
कैसे बदले चुनावी नारे :
चुनावों में राजनीतिक नारों का खासा महत्‍व है। कई बार तो नारों ने हार- जीत के समीकरण ही बदल दिए। इंदिरा गांधी के जमाने से लेकर नरेंद्र मोदी तक नारों में बहुत बदलाव आया है। इंदिरा गांधी के समय विपक्ष ने नारा दिया था इंदिरा हटाओ देश बचाओ। जबकि आज मोदी सरकार में सबका साथ, सबका विकास नारा चल रहा है। इसके बाद अबकी बार मोदी सरकार नारा भी हिट हुआ।

हर-हर मोदी, घर- घर मोदी : 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ का नारा दिया था, जिसने देश में मोदी लहर को हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

अच्छे दिन आने वाले हैं : इसी साल नरेन्द्र मोदी का दिया अच्छे दिन का नारा भी लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा। नारा था ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। इसी के बाद भाजपा देश में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली पहली गैर कांग्रेसी पार्टी बनी।

हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है : 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे के बलबूते पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी। उस समय उनकी 'सोशल इंजीनियरिंग' की काफी चर्चा हुई थी।

कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ : 2004 में लोकसभा चुनावों के दौरान यूपीए गठबंधन में कांग्रेस का मुख्य नारा था 'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ'। उम्मीद थी कि एनडीए सत्ता में वापसी करेगी, लेकिन इसी नारे के साथ कांग्रेस ने 218 सीटों पर जीत हासिल कर के भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे को मात दे दी।

इंदिरा हटाओ, देश बचाओ : आपातकाल के बाद विपक्षियों ने कांग्रेस पर जिस नारे से हमला किया, वो था ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’। इसी तरह गरीबी हटाओ, वाह रे नेहरू तेरी मौज, घर में हमला बाहर फौज। कांग्रेस ने राजीव गांधी के समर्थन में नारा दिया था... न जात पर, न पात पर, इंदिरा जी की बात, मुहर लगेगी हाथ पर।

अबकी बारी अटल बिहारी : 1998 में हुए 12वें लोकसभा चुनावों में भाजपा भावनाओं और आस्था से जुड़े मुद्दे पर लड़ी। दो नारे दिए ‘राम, रोटी और स्थिरता’ और दूसरा नारा था ‘सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी’। इन नारों का असर यह हुआ कि 12वें चुनावों में भाजपा को कुल 182 सीटों पर जीत मिली।

2026 में बढ़कर 753 हो जाएंगी लोकसभा सीटें
देश में परिसीमन से लोकसभा सीटों (Lok Sabha Seats) की संख्‍या में इजाफा हो सकता है। साल 2026 में भारत की अनुमानित जनसंख्‍या 1 अरब 50 करोड़ जाएगी और परिसीमन के बाद सीटों की संख्‍या बढ़कर 753 होने का अनुमान है। 2026 की अनुमानित जनसंख्या को अगर 543 सीटों के हिसाब से देखें, तो अभी 26 लाख वोटरों की एक लोकसभा है, जो साल 2001 में 18 लाख की थी। साल 2001 से 2026 की जनसंख्या में 38.5 प्रतिशत का परिवर्तन होगा। अगर इस परिवर्तन को सीटों में जोड़े तो कुल 210 सीटें बढ़ेगी यानि की 2026 में 543+210 को जोड़ दे, तो वो बढ़कर 753 सीट हो जाएगी। बता दें कि साल 1977 से अभी तक लोकसभा सीटों में परिवर्तन नहीं हुआ है। आखिरी बार परिसीमन 1977 में हुआ था।

भारत में कब-कब हुए लोकसभा चुनाव?
2024 में होने वाला लोकसभा का यह चुनाव 18वीं लोकसभा के लिए हो रहा है। लोकसभा का पहला चुनाव 1951-52 में हुआ था। ये है पूरी सूची।
1951-52 : जवाहर लाल नेहरू
1957 : जवाहर लाल नेहरू
1962 : जवाहरलाल नेहरू (1964 में मृत्यु) और लाल बहादुर शास्त्री (1964-1966)
1967 : इंदिरा गांधी
1971 : इंदिरा गांधी
1977 : मोरारजी देसाई (जनता पार्टी)
1980 : इंदिरा गांधी (कांग्रेस)
1984 : राजीव गांधी (कांग्रेस)
1989 : वीपी सिंह (जनता दल)
1991 : पीवी नरसिम्हा राव (कांग्रेस)
1996 : अटल बिहारी वाजपेयी (भाजपा)
1998 : अटल बिहारी वाजपेयी (भाजपा)
1999 : अटल बिहारी वाजपेयी (भाजपा)
2004 : मनमोहन सिंह (कांग्रेस)
2009 : मनमोहन सिंह (कांग्रेस)
2014 : नरेंद्र मोदी (भाजपा)
2019 : नरेंद्र मोदी (भाजपा)
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