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Written By ND

नर्मदा मैया के तट पर

नर्मदा मैया के तट पर -
- अजातशत्र
ND
मरने के सिवा अब उसके पास कोई काम नहीं था। सब कुछ तो कर चुका था। जिंदा था ठीक। खुशी से जिंदा रहे। और फिर चल ही बसा, तो थोड़े हेरफेर से ऐसा ही होना था। आज नहीं तो कल। कल नहीं तो परसों। पर जाना पक्का था। थोड़ा बहुत रो रुआ लें। बाकी कुछ घंटे बाद चिता की आग सारे निशान मिटा देगी

अजब दृश्य था। हंडिया से इंदौर आते समय नर्मदा के पुल का जहाँ अंत होता है न, उसी के दाँयी तरफ ऐन सामने एक साधु बाबा की कुटिया है। वहाँ बाहर खड़ा वह दुबला-पतला साधु जो एक साथ चिड़चिड़ा, विरक्त और हलाकान नजर आता था, किसी को डाँट रहा था।

'जिसको देखो, मार देता है। पोर्‌या-पारी पर झपटता है। आसपास किसी को ठहरने नहीं देता। अरे नरक मिलेगा नरक। इत्ता इतराए मत, साले। न जाने कौन से पाप किया तो यह योनि मिली। अगला जीवन सुधार! दुष्ट नीच।''

- बाबा जिसे डाँट रहा था, वह एक साँड था। अच्छा खासा टंच साँड। नुकीले सींग। भव्य खुंडेर। और सूरत शकल से गुस्सैल।

अब आप अचरज कीजिए कि वह बाबा से थोड़ी दूर खड़ा हुआ, गर्दन झुकाए लज्जित खड़ा था। एकदम शांत।
एकदम दशेमान, जैसे कोई स्कूल का शरारती बच्चा, पकड़े जाने पर, चुपचाप खड़ा हो जाए, और गुरुजी के सामने माथा न उठा पा रहा हो। ऐसा लग रहा था, जैसे बाप नेघर के छोटे बच्चे को, बरसते पानी में बाहर निकाल दिया हो और वह झोपड़ी से बाहर टिककर मन ही मन ग्लानि के साथ खड़ा हो।

- यह घटना दस-बारह साल पहले की है। पर वह दृश्य मैं कभी भूल नहीं पाया। साँड उस समय सचमुच मानव का बच्चा लग रहा था। सचमुच। कैसे आपके सामने तस्वीर खींचकर रख दूँ कि उसके चेहरे पर उस वक्त मैंने जानवर के नहीं, इंसान के ही लक्षण देखे थे। आज भी मोटर नर्मदा तट पर गुजरती है तो बिना भूले मैं उस तरफ देख ही लेता हूँ।

- खूब था वह बाबा। और खूब था वह सांड।

और वही नर्मदा आज फिर। मैं एक खाली पड़े तखत पर बैठा हूँ जो किसी पूजा-पाठ करने वाले और नहा-धोकर निकलने वाले 'सरधालुओं' का टीका-कुंकुम करने वाले लोकल पुरोहित का रहा होगा। ठेले पर स्टोव रखकर चाय बनाने वाले एक गरीबनुमा इंसान को चाय बनाने का ऑर्डर दे दिया है। तखत पर बैठा-बैठा पाँव हिला रहा हूँ और नर्मदा से ज्यादा उस पार खड़ी बस्ती को देख रहा हूँ।

तभी कुछ शोर सा हुआ। उस दिशा में नजर गई तो देखा, सड़क के उतार पर, कुछ लोग एक अर्थी को लेकर, नदी की तरफ चले आ रहे थे। शोर अब तक 'रामनाम सत्य है' के स्पष्ट उच्चार में बदल चुका था।

मैं चाय पीता रहा और अर्थी सहित, उसे लाने वालों को देखता रहा। अर्थी से शव का खुला हुआ मुँह (जैसे उसी रास्ते प्राण निकले हों) साफ नजर आ रहा था। अंदाज लगाया, सत्तर-अस्सी साल का बूढ़ा रहा होगा। उसके साथ चलने वाले छोटे-मोटे व्यापारी मालूम पड़ रहे थे

करीब-करीब वैसे जैसे कस्बों में किराने की दुकानों पर, खल्ली, कांकड़ा की दुकानों पर, नाड़ा-डोरा बेचने वलों की दुकानों पर नजर आते हैं। सभी अधिकतर रोजमर्रा के पैजामे-कमीज में, कुछ धोती-कुर्ते पर। सबके सब मैले-कुचैले, और दुकान से उठकर आए जैसे। कपड़ों पर हल्दी या तेल के दाग

साथ में चार-छः नवजवान आँखों पर गॉगल्स धरे चल रहे थे, जबकि दिन ठंड के थे। आगे- बूढ़े का बेटा गिलास में दूध और हंडी लेकर... कुछ ज्यादा ही आगे... चल चला जा रहा था। उमर रही होगी पचास-पचपन के आसपास। अब उसके भी बड़े-बड़े बेटे-बेटियाँ होंगे, इसलिए वह खास शोकमग्न नहीं लगा रहा था

कुल मिलाकर दु:खी था। मगर उतना ही, जितना पकी उमर के इंसान के मरने पर हुआ जाता है, यह सोचते हुए कि मरने के सिवा अब उसके पास कोई काम नहीं था। सब कुछ तो कर चुका था। जिंदा था ठीक। खुशी से जिंदा रहे। और फिर चल ही बसा, तो थोड़े हेरफेर से ऐसा ही होना था। आज नहीं तो कल। कल नहीं तो परसों। पर जाना पक्का था।
थोड़ा बहुत रो रुआ लें। बाकी कुछ घंटे बाद चिता की आग सारे निशान मिटा देगी।


वे मेरे बहुत करीब लगे हुए रोड से जो चंद्राकार में मुड़ता हुआ, नदी से एकरंग हो जाता था, जाते रहे। उनके पीछे इक्का-दुक्का भी आते रहे। झटपट और आराम के बीच की चाल से, जिसमें 'खास जल्दी नहीं' वाला पुट झलक रहा था। कुछ जोर-जोर से, इधर-उधर की बात कर रहे थे। कुछ बीड़ी-सिगरेट पी रहे थे। एकाध बीच में ही रुक गया था और खीसे में आराम से माचिस टटोलने के बाद उसे निकालकर बीड़ी जला रहा था। कुछ ऐसे भी थे, जो कोई बात धीरे से कहकर, धीरे-धीरे हँस रहे थे और उस क्रिया में पाँव ढीले पड़ जाते तो अनजाने याद आ जाने पर तेज भी चलने लगते। लोग मेरे बगल से गुजरते गए और मुड़े हुए रास्ते पर ओझल होते गए। अब अर्थी नहीं दिखाई पड़ रही थी। पर 'राम नाम सत्य है' लयबद्ध, ठंडा उच्चार फिजाँ में गूँजे जा रहा था।