व्यंग्य रचना : सुविधा शुल्क
पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
वैसे तो गांवों की दीवारें सूनी ही रहती हैं किंतु दो वक्त इनमें ऐसा रंग चढ़ता है कि देखते ही बनता है। एक जब चुनावी मौसम आता है तो इनमें रंग छलक पड़ते हैं। कहीं नीले रंग में बना हाथी नज़र आएगा तो कहीं तिरंगे में पंजा रंगा दिख जाएगा। कहीं साइकिल अपना रंग जमाती है तो कहीं कमल खुशबू नहीं रंग बिखेरेगा। चुनावी माहौल में दीवारें कैनवास सी प्रतीत होती हैं। चुनावी बहारें दीवारों को 5 साल बाद मयस्सर होती हैं लेकिन एक मौका ऐसा भी है जो इन्हें हर वर्ष प्राप्त होता है,जब इन पर बहारें छाती हैं तो इनकी खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं। वह है जून के अंतिम एवं जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य की अवधि। जब दीवारों की कायाकल्प हो जाती है। जी हां,यह वह वक्त होता है जब शिक्षा क्षेत्र में रंगों का मौसम आता है।
जिस प्रकार वर्षा ऋतु में जगह-जगह कुकुरमुत्ते अपने दीदार देने लगते हैं। ठीक उसी तरह इस कालावधि में गली-मोहल्लोँ में नर्सरियों का प्रकटीकरण होता है। शिक्षित बेरोजगारों की इतनी बहुतायत है कि एक दो हजार में बी.एड.,एम.एड, अथवा मास्टर डिग्रीधारी अध्यापक-अध्यापिकाएं आसानी से मिल जाते हैं।