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Written By WD

बाबू भए भगवान

व्यंग्य

बाबू भए भगवान -
अतुल केकरे
ND
इस दिवाली पर मैं व्यापारी मित्र के घर लक्ष्मी पूजन के अवसर पर मौजूद था। उन्होंने लक्ष्मी पूजन के पश्चात बाबू महाआरती का पाठ किया :

'बाबू तेरी लीला अपरंपार
मेरी नैया लगाओ पार
तुमसे है डरती सरकार
तुमसे ही चलती सरकार
अब न करो इंकार
मुझ पर करो उपकार
भेंट यह करो स्वीकार
देखो लाया नोटों का हार
अब तो दो दीदार
तुम हो मेरे परवर दीगार
मेरी नैया लगाओ पार।'
यह एक अटपटा अनुभव था। मुझे आरती सुनने के पश्चात बड़ा क्रोध आया। हैरत भी हुई कि एक बाबू भला भगवान का दर्जा कैसे प्राप्त कर सकता है! मित्र ने तर्क दिया कि लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी पूजन करते हैं लेकिन असल में लक्ष्मी के द्वार बाबू ही खोलता है। यह आरती व्यापारियों के लिए अति लाभकारी है, जिनका पाला रोजाना बाबुओं से पड़ता है। यह आरती खासतौर पर चंद्रिका बाबू के लिए तैयार की है। चंद्रिका बाबू सारे बाबुओं का निचोड़ है, कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

चंद्रिका बाबू कर्मचारी यूनियन में पदाधिकारी भी हैं। उनमें नेताओं के सारे गुण विद्यमान हैं सिवा इसके कि नेता एक पल के लिए कुर्सी छोड़ना नहीं चाहता और चंद्रिका बाबू कुर्सी पर टिकते नहीं हैं। उनकी शाही सवारी तकरीबन साढ़े ग्यारह बजे ऑफिस पहुँचती है। आसन ग्रहण करने के बजाए चाय पीने निकल जाते हैं, दो-चार कर्मचारियों को साथ ले जाते हैं।

सरकारी कर्मचारियों को इनकम टैक्स में स्टैंडर्ड डिडक्शन की भाँति कार्य अवधि में शुरू के आधे घंटे की छूट प्रदत्त है। आधा घंटा कर्मचारी आदतन झटक लेता है। इससे अधिक देरी होने पर रामबाण की तरह अचूक बहाने हाजिर हैं, मसलन किसी की डेथ हो गई, तीसरे में जाना है, उठावने में शरीक होना है। ट्रेन लेट थी, बस छूट गई, गाड़ी पंक्चर हो गई, अचानक मेहमान आ धमके, तबीयत बिगड़ गई वगैरह-वगैरह। इतना अधिकारी की बोलती बंद करने के लिए काफी है। चंद्रिका बाबू इस मामले में खुशनसीब हैं, उन्हें देरी से आने पर किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ती। पचीसों अफसर आकर चले गए। किसी ने भी उनकी शान में खलल डालने की गुस्ताखी नहीं की।

बाबूगिरी का लोहा, सरकार भी मानती है। सरकार के आला अफसर उनके आगे नतमस्तक हैं और जनता साष्टांग दंडवत। किसी सरकारी दफ्तर के दिनभर के कामकाज का अवलोकन करें तो कार्य की शुरुआत सुबह की चाय के पश्चात होती है। एकाध घंटे बाद पेट में चूहे कूदने लगते हैं। कहने को मध्यांतर अर्थात लंच ब्रेक आधे घंटे का होता है, लेकिन कर्मचारी डेढ़ घंटे की अँगरेजी फिल्म पूरी करके ही ऑफिस लौटता है। आते ही चाय की तलब शुरू होती है। यह एक संक्रमण की बीमारी है। अपने साथ चार अन्य को चपेट में ले लेती है। पाँच बजे नहीं कि घर की याद सताने लगती है। नजरें घड़ी के काँटों पर जैसे जम जाती हैं।

गुटका तंबाकू की भाँति जालिम होता है। तंबाकू धीरे-धीरे शरीर को चट करती है, गुटका पीकदान के बहाने दफ्तर के बहुमूल्य समय को हजम करता है। अन्य कारकों पर गौर फरमाएँ जो सरकारी कामकाज को प्रभावित करते हैं। त्योहार हम सबको बहुत प्रिय हैं। जिंदगी में खुशियाँ बिखेरते हैं। जीवन में उमंग और उत्साह के रंग भरते हैं। समाज को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। लेकिन सरकारी कामकाज की दृष्टि से वे खलनायक साबित होते हैं।

इसमें दिवाली पहली पायदान पर है। दिवाली आने के एक सप्ताह के पहले बाजार में रौनक छाने लगती है लेकिन दफ्तरों की चमक फीकी पड़ने लगती है। कर्मचारियों की संख्या जो घटने लगती है। दिवाली के आसपास कर्फ्यू जैसा सन्नाटा छा जाता है। दिवाली संपन्न होने के बाद भी स्थिति में शीघ्र सुधार नहीं होता। खुमारी उतरते-उतरते देव दिवाली आ जाती है। उत्सव के नशे में सुरा और भाँग दोनों का लुत्फ समावेशित होता है।

सुरा की भाँति नशा तेजी से चढ़ता है और भाँग की तरह धीरे-धीरे उतरता है। सरकारी दफ्तर में कर्मचारियों की उपस्थिति शेयर बाजार के सेंसेक्स के भाँति संवेदनशील होती है। शहर में जरा-सी नकारात्मक हलचल से कर्मचारी संख्या सूचकांक में तेजी से गिरावट दर्ज होती है। शहर बंद की घोषणा से उपस्थिति आधी रह जाती है। जब कभी बसों की हड़ताल होती है, निजी वाहनों से आने वाले भी बंद बसों पर सवार हो जाते हैं। मौसम की मार से भी दफ्तर महफूज नहीं। जरा-सी इंद्रदेव की मेहरबानी से सड़कों पर बाढ़ की स्थिति निर्मित हो जाती है और दफ्तरों में कर्मचारियों का सूखा पड़ जाता है।

सरकारी कर्मचारी आलसीपन और नाकारापन के लिए जाने जाते हैं, लेकिन ऐसे मेहनती एवं गुणी कर्मचारी भी विभाग में मौजूद हैं जिनके निजी व्यवसाय हैं। अति व्यस्त होने के बावजूद ये सरकारी ड्यूटी के लिए थोड़ा समय निकाल लेते हैं। छठा वेतन आयोग भी कर्मचारियों को प्रेरित करने में नाकाम साबित हुआ है। अलसाए कर्मचारियों में काम की अलख जगाने में ग्राहक द्वारा दी जाने वाली छोटी-सी भेंट सहायक सिद्ध होती है।

भारी-भरकम पैकेज के बजाए छोटा पेक अधिक प्रोत्साहित करता है। भेंट संस्कृति सरकारी तंत्र का अहम हिस्सा है जो उसकी क्षमता को बढ़ाता है। सरकारी दफ्तर एक मंदिर है, जहाँ कलयुग के भगवान विराजते हैं जो बगैर दान-दक्षिणा के प्रसन्न नहीं होते। चढ़ावा भले ही कानून संगत नहीं होता, लेकिन तर्कसंगत होता है और व्यावहारिक भी। चढ़ावा काम पूरा होने की गारंटी है। जब भक्त की मुराद पूरी हो रही हो तो भला वह कैसे प्रभु को नाराज कर सकता है? आज के परिप्रेक्ष्य में बाबू आरती सार्थक प्रतीत होती है।