चुनाव ड्यूटी : एक लघु शोध
मनोज लिमये फिर आ गए चुनाव। गब्बरसिंग के आने से जैसे गाँव वाले घबरा जाते थे, वैसे ही चुनाव तिथियों की घोषणा से कर्मचारी सिहर उठते हैं। चुनाव निपटाना एक कला है तथा इसे कराने वाला कर्मचारी है इसमें दक्ष कलाकार। चुनाव तिथियों की घोषणा से कर्मचारी चौकन्ना हो जाता है, शासकीय क्रियाकलापों की पदचाप उसे अपने इर्द-गिर्द सुनाई देने लगती है तथा पानीपत के युद्ध की तरह वह स्वयं की मानसिक तैयारियों में जुट जाता है। चुनाव का महत्व कर्मचारी के जीवन में इसलिए भी अधिक है, क्योंकि जिस प्रकार शाश्वत जीवन के साथ निश्चित मृत्यु जुड़ी है, उसी प्रकार चुनाव ड्यूटी के लिए मना करने से निलंबन जुड़ा है। यह "निलंबन" शब्द कर्मचारी की चुनाव संपन्न करवाने की सबसे बड़ी अभिप्रेरणा भी है। पानी के बिना जीवन हो सकता है, परंतु निलंबन के बिना चुनाव नहीं हो सकता है। चुनाव में ड्यूटी लगने से लेकर वहाँ से मुक्ति तक की दास्तान किसी भी फॉर्मूला रेस के रोमांच से कम नहीं होती! कई बार तो ऐसा लगता है कि सर्कस में मौत के कुएँ में मोटरसाइकल चलाना आसान है, पर इसे संपन्न कराना कठिन। चुनाव की वास्तविक तैयारी इसे करवाने संबंधी प्रशिक्षणों के साथ प्रारंभ हो जाती है। जिस कर्मचारी का नाम प्रशिक्षण हेतु आ जाता है, वह चुनाव के चक्कर में फँस गया, ऐसा माना जाता है। प्रशिक्षण का शंख बजा और युद्ध शुरू। प्रशिक्षण में कर्मचारियों को चुनावी प्रक्रिया एवं इसकी महान (?) परंपरा से अवगत कराया जाता है। महाविद्यालयों के असहाय प्रोफेसर जब नौकरशाहों की भाषा में चुनावी प्रक्रिया समझाते हैं तो वैसे ही दिखते हैं जैसा बिना दाँत वाला शेर या बिना जहर का साँप दिखता होगा। ये सरकारी भाषा बोलते हैं, नियम बताते हैं, पर उनकी ये पीड़ा कि "वो क्यों बताएँ" अस्पष्ट रूप से स्पष्ट नजर आ जाती है। कर्मचारियों का झुंड डिस्कवरी चैनल पर अक्सर दिखने वाले हिरणों के जत्थे के माफिक प्रशिक्षण कक्षों में पहुँचकर चुनावी ज्ञान का रसास्वादन करता है। कुछ पेशेवर कर्मचारी चुनाव ड्यूटी को पिकनिक समझते हैं तथा इन प्रशिक्षणों को गंभीरता से न लेते हुए गुटखा, सिगरेट जैसी महत्वपूर्ण क्रियाओं में लिप्त रहते हैं। प्रशिक्षण कर्मचारी में चुनावी ज्ञान की हवा भरता है तथा कर्मचारी स्वयं को शस्त्रों से लैस समझने लगता है। प्रशिक्षण में बताई गई तमाम सैद्धांतिक बातों की कमजोर दीवारें ताश के पत्तों के समान उस समय भरभराकर गिरती हैं, जब वह चुनाव संबंधी सामग्री प्राप्ति के नियत स्थान पर पहुँचता है। चुनाव सामग्री की प्राप्ति कर्मचारी को शेर के मुँह से मांस का टुकड़ा छीनने जैसी भयावह नजर आती है। चुनाव संपन्न करवाने हेतु मतदान केंद्रवार चार लोगों का दल गठित होता है। इस दल का प्रधान पीठासीन अधिकारी नाम से जाना एवं माना जाता है। इसे प्राचीनकाल से पीठासीन ही कहा जाता है। पीठासीन का प्राथमिक दायित्व सामग्री प्राप्ति करने का है तथा वह साम, दाम, दंड, भेद जैसी क्रियाओं से गुजरकर सामग्री प्राप्त करता भी है। इस मामले में फिल्मों के टिकट भीड़ में घुसकर खिड़की से प्राप्त करने वाले ऊर्जावान युवा बेहतर पीठासीन सिद्ध होते हैं। सामग्री प्राप्ति के साथ ही मतदान केंद्र की जानकारी भी मिल जाती है तथा पूरा दल उक्त मतदान केन्द्र की सरसरी जानकारी को प्राप्त करने हेतु अपना सर्वस्व झोंकने को तैयार दिखाई देता है। मतदान केंद्र पर दल को छोड़ दिया जाता है तथा यहीं से आरंभ होता है मुख्य संघर्ष। मतदान केंद्र पर मतदान निर्बाध रूप से हो सके, इस हेतु दल को भिश्ती, बावर्ची आदि सभी प्रकार के स्वांग करने होते हैं। पीठासीन अधिकारी की स्थिति सामग्री प्राप्ति के बाद से ही लड़की के पिता की तरह हो जाती है। वह केंद्र पर आने वाले प्रत्येक मतदाता, एजेंट, कर्मचारी से विनम्रता से बात करने लगता है। उस एक दिन के लिए ईवीएम मशीन लड़की, पीठासीन अधिकारी उसका पिता तथा दल के अन्य सदस्य सगे-संबंधी नजर आने लगते हैं। मतदान के नियत दिन रिसेप्शन में आने वाले लोगों की तरह मतदाता आते हैं तथा अपने मत का प्रयोग करके जाते हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान दल के तमाम सदस्य लड़की वालों की तरह सिर झुकाकर कार्य करते हैं। अंतिम उद्देश्य यही होता है कि निर्विघ्न क्रिया संपन्न हो सके। मतदान समाप्ति की घोषणा पीठासीन अधिकारी के चेहरे की आभा बढ़ा देती है। मतदान खत्म होने के बाद की कागजी कार्रवाई कर्मचारियों को उनकी हिन्दी की कम समझ का एहसास करा देती है। देवनागरी के कठिन शब्दों की पगडंडी पर चढ़ते-उतरते रेस के पार पहुँचते हैं। |
पीठासीन अधिकारी की स्थिति सामग्री प्राप्ति के बाद से ही लड़की के पिता की तरह हो जाती है। वह केंद्र पर आने वाले प्रत्येक मतदाता, एजेंट, कर्मचारी से विनम्रता से बात करने लगता है। उस एक दिन के लिए ईवीएम मशीन लड़की, पीठासीन अधिकारी उसका पिता ..... |
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अब सिर्फ सामग्री जमा करना है और मुक्ति का मार्ग सामने है, पर यह लोकतंत्र है भई, सामग्री जमा करने की क्रिया के सामने अन्य सभी क्रियाएँ अनायास आसान नजर आने लगती हैं। दल के साथ अटैच पुलिसकर्मी बेताल की तरह जल्दी जाने की जिद पर अड़ जाता है तथा दिनभर का थका-हारा दल सामग्री लौटाते समय बेहद बेबस नजर आता है। सामग्री लेने वाले कर्मचारी जाति के ही लोग जमा करने वालों का अपमान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। खैर, अपनी-अपनी योग्यता अनुसार सभी दल सामान जमा करते हैं तथा यह सरकार कम से कम पाँच साल चले, इसकी दुआ करते हुए अपने घर की ओर चल देते हैं।