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Written By ND

उठने के लिए गिरने वाले

उठने के लिए गिरने वाले -
- बिस्मिल्ला

भारत ने अभी तक अभिनय का ऑस्कर नहीं जीता है और इसकी कीमत चुकानी प़ड़ रही है फुटबॉल को। फुटबॉल की दुनिया में हमारा नाम नहीं है तो वजह यही है कि हमें एक्टिंग नहीं आती है। गोल और हार-जीत तो अपनी जगह हैं, खास बात है एक्टिंग।

फिल्म में अगर एक्टिंग नहीं आती हो तो भी आज जितेंद्र या विश्वजीत या ऐसे ही सफल सितारे तो बन सकते हैं, लेकिन फुटबॉल में बगैर एक्टिंग के न तो आपको फाउल मिलेंगे और न ही गोल। फुटबॉल खेलना न भी आता हो तो चल जाता है, अगर आपकी एक्टिंग जबर्दस्त हो। थो़ड़ा खेल और भरपूर एक्टिंग के बगैर आप हमेशा सौ देशों की लिस्ट से भी बाहर ही रहोगे।

हमारे यहाँ तो धक्का मार दें, टंगड़ी अड़ा दें, कपड़े खींच लें... यानी किसी को आगे ब़ढ़ने से रोकने के लिए जरूरी आवश्यक सरंजाम जुटा लें, मगर मजाल है कि हमारे फुटबॉल खिला़ड़ी गिरना तो छो़डि़ए, ल़ड़ख़ड़ा भी जाएँ तो...। वो इसी में हेठी समझते हैं कि किसी ने धक्का दिया और आप लगे गुलाटें खाने। अंगद का पैर है, हिलाकर तो देखो! टूट जाएगा मगर हटेगा नहीं। अरे कोई भरपूर लात-मय-जूते के मार दे तो हम सहलाएँ तक नहीं...। उसे खुश होने का मौका ही क्यों दें! घर जाकर भले ही खटिया पर हफ्ते भर हाय-हाय कर लें, लेकिन मारने वाले को खुश तो नहीं होने दें।
  भारत ने अभी तक अभिनय का ऑस्कर नहीं जीता है और इसकी कीमत चुकानी प़ड़ रही है फुटबॉल को। फुटबॉल की दुनिया में हमारा नाम नहीं है तो वजह यही है कि हमें एक्टिंग नहीं आती है। गोल और हार-जीत तो अपनी जगह हैं, खास बात है एक्टिंग।      


अब देखिए इन मिट्टी के माधौ को...! हट्टे-कट्टे हैं और पूरे समय गिर पड़ने को ही उधार रहते हैं। ऐसा लगता है जैसा पेंदा ही नहीं है। हाथ लगा नहीं कि लु़ढ़के! इतने ब़िढ़या कपड़े पहनते हैं, क्या जमीन पर गिरने के लिए। हमारे यहाँ तो लट भी सिर की जगह छो़ड़ दे तो सारा ध्यान फुटबॉल से हटकर जुल्फों में उलझ जाए। और जब तक जेब से कंघी निकालकर लट को ठिकाने न लगा दें... चैन नहीं लें। गोल-वोल तो होते रहते हैं, जुल्फ बिग़ड़ जाए तो पूरा इम्प्रेशन जाता रहता है। खिलाड़ी होने से ही काम नहीं चलता है, लगना भी चाहिए।

हमारे कॉलेज के योगू भिया तो मैदान में ऐसे उतरते थे जैसे हीरो किसी शूटिंग में जा रहा हो। रूमाल तो दोनों जेब में रखते थे। कहते हैं, उनकी दो प्रेमिकाएँ थीं, जो मैच देखने आती भी थीं। अपने गोल की तरफ आते हुए नीला तो सामने वाले की तरफ जाते हुए गुलाबी रूमाल निकालकर यह बताते रहते थे कि मेरा दिल तो तुम्हारे साथ है। मजबूरी है कि यहाँ झक मार रहा हूँ। वैसे ही मिर्ची उस्ताद भी थे फुटबॉलर, जो गेंद पर पैर रखकर न सिर्फ मुँह साफ करते थे... बालों की झालर भी ठीक कर लिया करते थे। पूरी टीम ठप प़ड़ी रहती थी उतनी देर! तब चकट खिलाड़ी तो होते ही नहीं थे-रोनाल्डो की तरह।

इसलिए मुझे तो यही लगता है कि जब तक हमें ढंग से गिरने-प़ड़ने की एक्टिंग नहीं आती, हम विश्व फुटबॉल में जगह नहीं बना सकते। खिलाडि़यों की जिद है कि उठने के लिए गिरना प़ड़े तो लानत है ऐसे कप पर! अकड़ है तो जिंदगी है। कप के बगैर जी सकते हैं, अकड़ के बगैर कैसे जीएँगे।