असम में तैयार एनआरसी की सूची से बाहर होने वाले नामों को देखते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कानूनविदों का कहना है कि महिलाओं की खराब स्थिति के कारण भारी सामाजिक संकट पैदा हो जाएगा।
असम में जावेदा बेगम के मामले ने इस अंदेशे को और मजबूत कर दिया है। उस महिला ने अपनी और अपने पति की नागरिकता साबित करने लिए 15 दस्तावेज पेश किए थे। बावजूद इसके विदेशी न्यायाधिकरण में वह अपनी नागरिकता साबित करने में नाकाम रहीं।
इस फैसले को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती देने पर अदालत ने भी न्याधिकरण के फैसले को बहाल रखा। हाईकोर्ट ने बीते सप्ताह अपने फैसले में कहा कि बैंक खातों का ब्योरा, पैन कार्ड और भूमि राजस्व रसीद जैसे दस्तावेजों का इस्तेमाल नागरिकता साबित करने के लिए नहीं किया जा सकता है। जावेदा को न्यायाधिकरण ने वर्ष 2018 में विदेशी घोषित कर दिया था।
असम की मिसाल
तमाम मानवाधाकिर कार्यकर्ताओं और कानून विशेषज्ञों का कहना है कि अगर पूरे देश में असम की तर्ज पर एनआरसी लागू करने की कवायद हुई तो इसका महिलाओं पर सबसे बुरा असर होगा। असम में जिन लाखों लोगों को संदिग्ध वोटरों की श्रेणी में रखा गया है उनमें आधी से ज्यादा महिलाएं हैं।
आखिर ऐसा क्यों हैं? इसका जवाब सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपराओं में छिपा है। दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज में पहले महिलाओं की शादी बहुत कम उम्र में ही कर जाती दी जाती थी। इस वजह से उनके पास स्कूली प्रमाणपत्र नहीं है। इसके अलावा उनके नाम जमीन, खेत या दूसरी संपत्ति के कागजात भी नहीं हैं। इन तमाम दस्तावेजों पर पुरुषों के ही नाम हैं।
बीते साल राज्य में तैयार एनआरसी की सूची से जिन 19 लाख लोगों को बाहर रखा गया था, उनमें शामिल महिलाएं अपनी नागरिकता के समर्थन में दस्तावेज पेश करने के लिए जूझ रही हैं। वुमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन (डब्ल्यूएसएस) की एक टीम ने हाल में राज्य के विभिन्न इलाकों का दौरा करने के बाद भी यह बात कही थी।
डब्ल्यूएसएस की संयोजक निशा बिश्वास बताती हैं कि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के नाम संपत्ति के दस्तावेज होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती, नतीजतन उनके पास नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी विरासत संबंधी कोई दस्तावेज नहीं है।
वे कहती हैं कि एनआरसी से महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। एनआरसी ने महिलाओं की संप्रभुता और आजादी को एक बार फिर कटघरे में खड़ा कर दिया है। ससुराल की बजाय उनको अपने मायके से विरासत संबंधी दस्तावेज लाने होंगे। लेकिन वहां भी उनको मायूसी ही हाथ लग रही है।
असम के ग्वालपाड़ा जिले में कैंप बाजार के शरणार्थी शिविर में रहने वाले राजेंद्र हाजोंग कहते हैं कि मेरी पत्नी का नाम एनआरसी की सूची में नहीं है। उनकी विरासत के कागजात उनके मायके से आने थे। लेकिन अब वहां कोई जीवित ही नहीं है। ये लोग तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने के बाद वर्ष 1966 से ही वहां रह रहे हैं। वे बताते हैं कि इलाके की ज्यादातर परिवारों की महिलाओं के नाम सूची से बाहर हैं।
कानूनी विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह स्थिति सिर्फ असम की ही नहीं है। केंद्र सरकार पूरे देश में एनआरसी लागू करने का दावा कर रही है। हर जगह महिलाओं को कमोबेश इसी हालात से गुजरना होगा। यह संकट अल्पसंख्यकों ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक तबके के लिए भी समान ही है।
गुवाहाटी हाईकोर्ट के एडवोकेट ओ. लश्कर कहते हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया खासकर समाज के हाशिए पर रहने वाले तबके की महिलाओं के लिए काफी भेदभावपूर्ण है। ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले ही हो जाती है। मतदाता सूची में तो उनके नाम पति के नाम से जोड़ दिए जाते हैं। लेकिन पढ़ाई-लिखाई ज्यादा नहीं होने की वजह से उनके पास स्कूली प्रमाणपत्र नहीं होता। ऐसे में उनके लिए पैतृक विरासत को साबित करना लगभग असंभव है।
लश्कर अपनी दलीलों के समर्थन में असम की जावेदा बेगम के मामले की मिसाल देते हैं। गुवाहाटी हाईकोर्ट के ही एक और वकील मुस्तफा खादम हुसैन ऐसे कई मामलों की पैरवी कर चुके हैं। वे कहते हैं कि समाज और परिवार में पहले से ही हाशिए पर रही महिलाओं को एनआरसी की एकतरफा कार्रवाई के जरिए नागरिकताविहीन बनाया जा रहा है।
महिलाओं की दिक्कतें
कोलकाता के पार्क सर्कस मैदान को इन दिनों यहां का शाहीन बाग कहा जा रहा है। यहां नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले एक संगठन की संयोजक अस्मत जमीन कहती हैं कि इससे बड़े पैमाने पर सामाजिक संकट पैदा होगा। लाखों परिवार बिखर जाएंगे। एक महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता संगीता गांगुली सवाल करती हैं कि पूरी संपत्ति घर के पुरुषों के नाम पर होने की स्थिति में आखिर एक महिला अपने आवास और नागरिकता के दस्तावेजी सबूत कहां से लाएगी?
राजस्थान की राजधानी जयपुर में बीते साल दिसंबर में आयोजित नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वुमेन की 21वीं कांग्रेस में भी तमाम वक्ताओं ने आम राय से एनआरसी को महिलाविरोधी करार दिया था।
असम में एनआरसी से बाहर रहीं महिलाओं को दोबारा दस्तावेज पेश करने और सुनवाई के लिए हाजिर होने में भी भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं ऐसी हैं, जो अब तक घरों से बाहर नहीं निकली हैं। लेकिन इनको सुनवाई के लिए अपने गांव-घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है।
असम में बहुत कम परिवार ऐसे हैं जिनके सभी सदस्यों के नाम एनआरसी में शामिल हैं। कई मामलों में इन महिलाओं को महज इसलिए एनआरसी की अंतिम सूची में जगह नहीं मिल सकी कि उन्होंने शादी के बाद अपनी उपाधि बदल ली थी। मिसाल के तौर पर अल्पसंख्यकों में शादी के बाद किसी भी महिला के नाम से जुड़ा खातून हटकर बेगम हो जाता है। लेकिन इस वजह से उनको एनआरसी से बाहर कर दिया गया है। नामों की स्पेलिंग में एकाध अक्षर इधर से उधर हो जाने की वजह से हजारों महिलाएं सूची में शामिल नहीं हो सकी हैं।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसमें उन महिलाओं की कोई गलती नहीं है। ग्रामीण इलाकों की महिलाएं अपना नाम स्थानीय भाषा में बताती हैं। अंग्रेजी में लिखते समय स्पेलिंग इधर-उधर होने की वजह से उनको बाहर कर दिया गया है। एनआरसी में राज्य के बाहर की ऐसी एक भी महिला का नाम शामिल नहीं है, जो असम के निवासी से शादी के बाद राज्य में आकर बसी हों। अकेली या विधवा माताओं की हालत तो और भी दयनीय है। महिलाओं के साथ ही छोटे बच्चे भी एअनआरसी से प्रभावित हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल अपने एक आदेश में कहा था कि 3 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे किसी बच्चे के माता-पिता में से किसी का नाम भी अगर संदिग्ध वोटरों की सूची में हो और उनके खिलाफ विदेशी न्यायाधिकरण में मामला लंबित हो तो उस बच्चे का नाम एनआरसी में शामिल नहीं किया जा सकेगा।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सवाल है कि आखिर इन बच्चों का भविष्य क्या होगा? एनआरसी से बाहर रहे लोगों पर ही अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी है। सामाजिक संगठनों की दलील है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। निशा बिश्वास सवाल करती हैं कि आखिर कोई सरकार अपने लोगों को कानूनी पेचीदगियों में उलझने के लिए कैसे छोड़ सकती है?
असम विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया कहते हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया में कई खामियां हैं। ज्यादातर महिलाओं के पास नागरिकता संबंधी दस्तावेज नहीं हैं। असम में 1985 से पहले जन्म और मृत्यु का पंजीकरण अनिवार्य नहीं था। कम उम्र में शादी हो जाने की वजह से मारवाड़ी तबके की कई महिलाओं के नाम भी सूची में शामिल नहीं हो सके हैं।
-रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता