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बाल गीत : गुड़िया के क्या कहने

बाल गीत : गुड़िया के क्या कहने - Poem on Gudia
कमर में करधन नाक में बाली,
हाथ में कंगन पहने हैं।
अहा! अहा! री गुड़िया रानी,
तेरे अब क्या कहने हैं।
 
तीन साल की उमर सलोनी,
फुदक-फुदक कर चलती है।
नहीं संभल पाती, दादी की,
गोद में जाकर गिरती है।
दादी को भी मजे-मजे से,
उसके नखरे सहने है।
 
दादाजी ने रबर पेंसिल,
कॉपी एक दिला दी है।
लेकिन यह क्या गुड़िया ने तो,
क्या दुर्दशा बना दी है।
पन्ने फाड़-फाड़ कॉपी के,
झंडे रोज फहरने हैं।
 
गुड्डा-गुड़ियों के संग गुड़िया,
रोज तमाशा करती है।
नाक खीचती कभी, किसी के,
दोनों कान पकड़ती है।
इसी तरह से रोज खिलोने,
तोड़-ताड़ कर धरने है।
 
नटखट प्यारी बातों से वह,
मन सबका हर लेती है।
उधम करते-करते ही वह  
घर वश में कर लेती है|
हंसती है तो लगता जैसे,
झर-झर झरते झरने हैं। 

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