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श्रीकृष्ण : हर रूप में अनूठे

- राजशेखर व्यास

Janmashtami 2010 | श्रीकृष्ण : हर रूप में अनूठे
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प्रकृति के सर्वाधिक निकट भी कृष्ण हैं। बाँस की बाँसुरी उनके अधर पर सुशोभित है। पेड़,कदंब, वन, झुरमुट का अनन्य प्रेमी! कृष्ण मानव मनोविज्ञान के भी पंडित हैं। मानव मन के कुशल अध्येता। कर्ण को मारना है, कर्ण मरेगा नहीं। योद्धा है। पहले कुंती को भेजा, जाओ- आज उसे वह गुप्त भेद बता दो कि तुम्ही उसकी माँ हो। तब अपने भाई अर्जुन को कैसे मारेगा?

जब कुंती भी हारकर कर्ण के तर्क से थककर लौट आई, तो पता लगाया, कर्ण का सारथी कौन है? पता लगा 'शल्य-मामा'। तब एक और मनोविज्ञान रचा। रात पुनः युधिष्ठिर को शल्य के पास भेजा। यह कहलाने को कि और तो सब ठीक है मामा! आप कर्ण का रथ चलाएँ, कुछ अच्छा नहीं लगा। आप जैसा महान रथ संवाहक क्षत्रिय सारथी! उस 'सूत-पुत्र' का रथ चलाए, कुछ शोभा नहीं देता।

शल्य के 'अहंकार' को सहलाना भर कर्ण के लिए बहेद भारी पड़ गया। सुबह रणभूमि में जहाँ एक ओर हारे-थके निराश अर्जुन को कृष्ण प्रेरणा दे रहे हैं, मार अर्जुन,! मार अर्जुन! कहकर पीठ थपथपा रहे हैं- प्रोत्साहन दे रहे हैं। वहीं कर्ण के रथ पर 'बैठा शल्य' उसे निरन्तर हतोत्साहित कर अपनी कुंठा, और भड़ास निकाल रहा है- तू क्या लड़ेगा, सूत-पुत्र? तु क्या लड़ेगा, सूत-पुत्र? जीवन में हमेशा कर्ण के रथ पर बैठे शल्य की तरह ही तो हमें लोग मिलते हैं, तू क्या करेगा? तू क्या करेगा। कौन कृष्ण-सा सखा है? जो कहे मार अर्जुन मार। कौन कृष्ण सा मित्र है, प्रेरक है?

वास्तव में मनुष्य का आधा साहस व वीरता तो हतोत्साह ही खत्म कर देता है। उसके हतोत्साहक मित्र! कृष्ण का मनोविज्ञान बड़ी बारीक चीज है, बहुत सूक्ष्म है। मन से निर्बल करना भी जानते हैं, और तब भी जब कर्ण, अर्जुन से परास्त नहीं हो रहा है। उसके रथ का पहिया टूट गया है, तो निहत्था, कर्ण जब युद्धभूमि में रथ का पहिया ठीक कर रहा है, तब कृष्ण उकसाते हैं, अर्जुन को-'मार अर्जुन मार।'

अवाक्‌ कर्ण ही नहीं, अर्जुन भी है। कृष्ण निहत्थे पर वार करने को कह रहे हैं? दुःखद आश्चर्य का विषय है? निहत्थे पर वार तो धर्मयुद्ध के विरूद्ध है, नियम विरूद्ध है। किन्तु, कृष्ण के पास तर्क का अचूक ब्रह्मास्त्र है- कर्ण भले ही योद्धा है, महान है, पराक्रमी है, किन्तु वह सदैव अधर्म के साथ है- इसलिए अधर्मी है, जब भरी सभा में एक निःसहाय नारी का चीरहरण हो रहा था, तब उसका धर्म कहाँ था? जब सात-सात महा-पराक्रमी योद्धाओं ने मिलकर अभिमन्यु जैसे निहत्थे बालक को मारा, तब इसका धर्म कहाँ था? मृत्यु मस्तक पर आई तो इसे धर्म याद आया, 'मार अर्जुन मार।' इसका कोई धर्म नहीं। यह अधर्म के साथ, अन्यायी के साथ है, अतः स्वयं अधर्मी है।

वह धर्म जो अधर्म को प्रश्रय दे वह भी धर्म नहीं अधर्म है। तर्कों के साथ-साथ कृष्ण, अर्जुन के मर्म पर भी चोट कर रहे हैं। अभिमन्यु और द्रौपदी उसकी कमजोरी हैं, कृष्ण खूब जानते हैं, इसीलिये उसकी याद दिलाकर कृष्ण उसके मन पर भी वार करते हैं। कृष्ण के दर्शन को समझने के लिए राजनीतिक, कूटनीतिज्ञ-चातुर्यता का ही नहीं सूक्ष्म मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का भी अध्ययन आवश्यक है। वह एक योद्धा, पराक्रमी जननायक और बेहद प्यारा मनुष्य है। माँ का प्यारा, प्रेमिका का प्यारा, सबका दुलारा। प्रखर तेजस्वी रक्षक, तो परम कोमल-कमनीय प्रेमी-छलिया भी।

भारतीय साहित्य में कृष्ण एक अद्भूत और विलक्षण चरित्र हैं- उसके चरित्र के दो रूप हैं, उसकी दो माँ हैं-देवकी और यशोदा। मगर माँ के रूप में यशोदा ही अधिक जानी जाती है। मुझे हजारों लोग ऐसे मिले जो देवकी का बेटा कृष्ण नहीं पहचानते। हमारी संस्कृति में माँ तो बस यशोदा है और पुत्र बस केवल कृष्ण। उसके दो पिता हैं 'नंद' और 'वासुदेव'। दो नगर हैं मथुरा और द्वारका, जिसमें भी वह 'द्वारकाधीश' रूप में ही जाना जाता है। मथुरापति तो वो रूप नहीं, स्वयं 'नंद', वासुदेव के आगे जीते हुए हारे से हैं।

कृष्ण की दो प्रेमिकाएँ हैं- राधा-कृष्णा, दो पत्नियाँ या कहिए अनेक। प्रेमिकाओं का प्रश्न जरा उलझा है, तुलना ही नहीं हो सकती। रूक्मणी या सत्यभामा की, राधा या रूक्मणी की, राधा या द्रौपदी की आप चाहे तो मीरा तक उसे ले जाएँ पर प्रेमिका शब्द का अर्थ संकुचित न करें। सखा-सखी, कष्ट और संघर्ष तनाव और पीड़ा के सहभागी बने। यात्रा पथ पर मैं और तू विलीन हो जाएँ। इसलिए प्रायः मेरा मन कह उठता है-

'मैं नहीं जानता ईश्वर होता या नहीं होता'' ?
'मैं नहीं मानता ईश्वर होता या नहीं होता!
पर जब भी अन्याय, अत्याचार या शोषण के ख़िलाफ़
कोई योद्धा, रथ का टूटा हुआ पहिया उठा लेता है,
मुझे बस उसी क्षण उसमें ईश्वर नजर आता है।'

यहाँ यह याद रखना भी जरुरी है कि 'कृष्ण' किसी राज्याश्रित गुरु 'द्रोणाचार्य' का शिष्य नहीं था वह क्रान्तिदृष्टा स्वाभिमानी 'सान्दीपनि' का शिष्य था जिनका कोई भी शिष्य कृष्ण, बलराम या सुदामा कभी युधिष्ठिर-दुर्योधन की तरह सता की सिंहासन की लड़ाई नहीं लड़ता। क्रान्ति का शंखउद्घोष करता है। युद्ध लड़ता है, विजय मिलती है, मगर स्वयं सिंहासन पर न बैठ किसी और को सौंप कर, बैठाकर एक सच्चे क्रान्तिकारी की तरह आगे-चल पड़ता है किसी अगले निर्णायक युद्ध के लिए!