कृष्णा : सिर्फ प्रेम का प्रतीक
श्रीकृष्ण बनाम श्रीराम : क्या सही है तुलना
ज्योत्सना भोंडवे श्रीकृष्ण को इस युग में सबसे ज्यादा लोकप्रिय देवता माना जाता है। कई रूपों में पूजे जाने वाले कृष्ण को समाज के हर वर्ग के श्रद्धालुओं में सबसे ज्यादा स्वीकार्यता मिली। कृष्ण अकेले ऐसे देवता भी माने जा सकते हैं जो देश के अलग-अलग हिस्सों में पूरे वर्ष भर अपने-अपने तरीके से पूजे जाते हैं। कृष्ण का हर रूप पूजनीय है। इसके बावजूद यह सवाल हमेशा जीवित रहा है कि आज के युग में कृष्ण का कौनसा रूप सबसे अधिक प्रेरणादायी है? जीवन के हर क्षेत्र में हमेशा एक कृष्ण की जरूरत क्यों महसूस की जाती हैं? इन सारे सवालों का एक ही जवाब हैं कृष्ण के प्रति अडिग विश्वास, जो हर युग में शाश्वत परम आनंद रहा है। कृष्ण ने अपनी सूझबूझ और शक्ति का प्रदर्शन हर युग और समयकाल में मजबूती से किया। कृष्ण ने विद्रोह भी किया, क्रांति भी की और अपने लक्ष्य की खातिर पूरी प्रक्रिया को ही बदल दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीलाधर कृष्ण की तुलना कभी नहीं हो सकती। हिंदुस्तानी पौराणिक कथाओं के मुताबिक कृष्ण का अवतार राम के सौ साल बाद हुआ था। इन सौ सालों में समाज की हर स्तर पर अवनति हुई। कृष्ण को राम की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्यों का मुकाबला करना पड़ा था। राम जहाँ अपनी दार्शनिक सोच और उसे लागू करने में एकदम स्पष्ट और पारदर्शी रहे। जबकि, कृष्ण को अपने समयकाल में दार्शनिक सिद्धांतों में व्यावहारिक बदलाव करना पड़ा था। क्योंकि, उनके सामने विराट और जटिल समस्याएँ खड़ी थीं। उन्होंने हमेशा 'सभी की सम्पूर्ण भलाई' का विचार किया। तभी तो उनकी सारी चतुराइयों को नीतियाँ और छल को अन्याय के खिलाफ विवेकपूर्ण युक्तियाँ माना गया। यदि कृष्ण राम की तरह सीधी पारदर्शी राह पर चलते तो अपने लक्ष्य में शायद कभी कामयाब नहीं हो पाते! यही वजह रही कि कृष्ण का नेतृत्व सामूहिक, संगठित और आक्रामक था। जीवन के पूर्वार्द्ध में भी उनका नेतृत्व स्वयं कार्य करने वाला रहा। पांडवों के नेतृत्व के दौरान सलाहकार बनकर उन्होंने सिद्ध किया था कि सत्य की स्थापना हमेशा सत्य के मार्ग पर चलकर नहीं हो सकती। उनका संदेश साफ था कि मजबूत जड़ें जमाए दुष्टों से निपटने के लिए अपने प्रबंध कौशल की ताकत दिखाना होगी और इन्हें बदलना ही होगा।आज के कारपोरेट नजरिये से देखें तो कृष्ण ने अपने अधिकार अपनी साख से हासिल किए, मालिक की कुर्सी पर बैठकर नहीं! यह साख उनके कर्तव्य, भक्ति और ज्ञान की संयुक्त प्रतिभा का ही नतीजा थी। महाभारत के युद्ध में ज्ञानयोगी कृष्ण ने जीत का श्रेय अर्जुन और भीम को ही नहीं दिया, वरन् विनम्रता के साथ महाभारत से जुड़ी प्रत्येक महिला को उसकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहायता के लिए दिया। इसमें उनका संदेश निहित था कि यदि मूल्यों की पुनर्स्थापना कर सुधार की कोई बड़ी और महत्वपूर्ण योजना बनाना हो तो जरूरी हैं कि छोटी से छोटी बात पर ध्यान दिया जाए। कृष्ण की दिलचस्पी हमेशा ही समस्या के समाधान की रही, उसका श्रेय लेने में नहीं। यही वजह हैं कि सदियाँ गुजर जाने के बाद आज भी महाभारत में पाँडवों की जीत का श्रेय कृष्ण को ही दिया जाता है।कृष्ण कर्म को स्वधर्म कहते थे। क्योंकि,कर्म या कर्तव्य इंसानियत के तीन तत्वों को बढ़ाने में हैं स्वाधीनता, पक्षपातहीनता और विश्वबंधुत्व। कृष्ण ने अपने कर्मयोग में इन तीनों मूलभूत तत्वों को शामिल किया। वे स्वयं कर्मयोगी थे, इसीलिए उन्होंने स्वतंत्र, पक्षपात रहित और विश्वबंधुत्व का प्रदर्शन किया। वे व्यक्ति को पिता, पति, पुत्र और मित्र के तौर पर अपने स्वधर्म पालन करने पर महत्व देते थे। सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति को छूट देता है कि वह परमात्मा के अपने प्रतीक का चयन कर ले। जो व्यक्ति अपने माता या पिता में इस परम परमेश्वर को देखता है, वह भी श्रद्धालु है इस तरह कृष्ण ने भक्ति के सिद्धांत में जो छूट दी वह असीमित है। कृष्ण का प्रेम योगी का प्रेम था, जो एक अतिमानव होता है। जो स्वयं अपनी ऊर्जा पैदाकर उसका इस्तेमाल विश्व कल्याण के लिए करता है। कृष्ण जैसे योगी के पास प्रेम रूपी एक और देन थी, वह था स्पर्श करने वाला प्रेम! मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी सबसे प्रेम करते थे, जो विश्व कल्याण और निरपराध था। लेकिन, उसमें वह आकर्षण नहीं था जो कृष्ण के प्रेम में था। हजारों साल बाद आज भी उनका प्रेम उतना ही चुंबकीय है। प्रेम का दूसरा पहलू घृणा होता है जो कृष्ण में नहीं था। उनका दर्शन बेहद सरल रहा, उनके बर्ताव में कभी घृणा नजर नहीं आती वरन् अधिकांश मामलों में तो उन्होंने दुष्टों को बदलने का भी मौका दिया। व्यक्ति के दुर्गुणों को देखने का उनका नजरिया अलग ही रहा। कृष्ण की कूटनीति "घृणा कभी नहीं"रही।कृष्ण ने अपने निःस्वार्थ प्रेम से सारी दुनिया को जीता। वे निःस्वार्थ प्रेम इसीलिए करते थे, क्योंकि बदले में उन्हें प्रेम की कामना कभी नहीं रही। उन्हें कुछ खोने का भय नहीं था, क्योंकि खोने के लिए उनके पास कुछ था ही नहीं। उन्होंने अपने प्रेम के आनंद में, सनातन प्रेम की चौखट में सभी को शामिल किया। गीता में कृष्ण ने सबसे सहज और पवित्र भक्ति को 'सर्वव्यापी के प्रति प्रेम' कहा हैं। उनका प्रेम काव्य की भाषा में सदा प्रेम करने के योग्य था।