• Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. धर्म-दर्शन
  3. जैन धर्म
  4. Samvatsari Day
Written By

क्षमा और मैत्री का संदेश देता पर्व : मिच्छामी दुक्कड़म

क्षमा और मैत्री का संदेश देता पर्व : मिच्छामी दुक्कड़म। Samvatsari Day - Samvatsari Day
- हरखचंद जैन
 
प्रति वर्ष की भांति आत्म जागरण का महापर्व पर्युषण समाप्त हो गए हैं। यह पर्व क्षमा और मैत्री का संदेश लेकर आ रहा है। खोलें हम अपने मन के दरवाजे और प्रवेश करने दें अपने भीतर क्षमा और मैत्री की ज्योति किरणों को। तिथि क्रम से तो हम पर्युषण महापर्व की दस्तक सुनना प्रारंभ कर देते हैं, किन्तु ध्यान में रखना यह है कि भावना-क्रम से हम अपने अंतर्मन को कितना तैयार करते हैं?
 
व्रत, उपवास, सामायिक, प्रवचन, स्वाध्याय के लिए हम अपने को तैयार कर लेते हैं, किन्तु अंतर्मन में घुली हुई गांठें खोलने के लिए तथा सब पर समता, मैत्री की धारा बहाने के लिए अपने को कितना तैयार करते हैं। हमें अपने को कुछ इस तरह तैयार करना है कि हमारे कदम वीतरागता की ओर बढ़ सकें।
 
भगवान महावीर पुरुषार्थवादी हैं। वे जीवन का परम लक्ष्य किसी अन्य विराट सत्ता में विलीन होना नहीं मानते, बल्कि अपनी मूल सत्ता को ही सिद्ध, बुद्ध और मुक्त करने की प्रक्रिया निरुपित करते हैं। समग्र जीवन सत्ता के साथ भावनात्मक तादात्म्य, उसका साधन है, अहं मुक्ति का उपादान मात्र इसके पार कुछ भी नहीं है। अतः उन्होंने अपनी ग्रन्थियों का मोचन करने पर बल दिया।
 
उद्धार तो स्वयं का स्वयं से करना है और यह तभी होगा जब कि हम संयम और तप द्वारा आत्म-परिष्कार करें। क्षमा उसी साधना का अंग है। इसे भगवान महावीर ने सर्वोपरि महत्व दिया। संवत्सरी के पूर्व और उस दिन होने वाले सारे तप और जप की अंतिम निष्पत्ति क्षमा को पाना ही है। क्षमापना के अभाव में तब तक का सारा किया कराया निरर्थक है।
 
धर्म साधना की प्रक्रिया में क्षमा का महत्व स्थापन भगवान महावीर की एक महान देन है। उन्होंने सूत्र दिया, सब जीव मुझे क्षमा करें। मैं, सबको क्षमा करता हूं। मेरी सर्व जीवों से मैत्री है। किसी से बैर नहीं। यह सूत्र ध्वनित करता है कि क्षमा स्वयं अपने में ही साध्य नहीं है। उसका साध्य है मैत्री और मैत्री का साध्य है समता और निर्वाण। क्षमा और मैत्री मात्र सामाजिक गुण नहीं हैं, वे साधना की ही एक प्रक्रिया को रूपायित करते हैं, जिसका प्रारंभ ग्रन्थि विमोचन होता है तथा अन्त में मुक्ति। क्रोध चार कसायों में एक है। वह वैराणुबद्ध करता है। क्रोध के पीछे मान खड़ा है, लोभ खड़ा है, माया भी खड़ी है, चारों परस्पर सम्बद्ध हैं।
 
क्षमा और मैत्री-क्रोध, मान, माया और लोभ की ग्रन्थि मोचन करने का राजपथ है। फिर ग्रन्थि हमारी अपनी ही हैं। दूसरा कोई हमें बांधने वाला भी नहीं है, अतः खोलने वाला भी नहीं है। यह ग्रन्थि कषायों के कारण होती है तथा क्षमा और मैत्री से ही कषायों को जीता जा सकता है।
 
बिलकुल यही बात प्रभु ईसा मसीह ने अपने प्रख्यात गिरी-प्रवचन में कही है- उन्होंने कहा अगर तुम प्रभु की पूजा के लिए थाल सजाकर मंदिर जा रहे हो और रास्ते में तुम्हें याद आ जाए कि तुम्हारे प्रति किसी के मन में कोई ग्रन्थि है, तो लौटो, सर्वप्रथम उसके पास जाकर उससे क्षमा याचना करो। उस ग्रन्थि को समूल नष्ट करो, उसके बाद जाकर पूजा करो। अगर तुम मनुष्यों के साथ शांति स्थापित नहीं कर सकते तो प्रभु के साथ शांति और समन्वय कैसे कर पाओगे।
 
एक ओर भगवान श्रीकृष्ण और ईसा मसीह की समर्पण एवं प्रेममयी साधना, दूसरी ओर भगवान महावीर की क्षमा और मैत्रीमयी साधना-दोनों अपने आप में स्वतंत्र मार्ग हैं। ऋजु चित्त से जिस पर भी चला जो, वह मंजिल तक पहुंचती ही है, क्योंकि उस बिन्दु पर जाकर दोनों एक हो जाती हैं।

सभी से 'मिच्छामी दुक्कड़म' 
ये भी पढ़ें
हिन्दी दिवस पर विशेष : हिन्दी का मान