सातवें तीर्थंकर : भगवान सुपार्श्वनाथ
भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्म और तप
जैन पुराणों के अनुसार जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। तीर्थंकर अर्हंतों में से ही होते हैं। सभी तीर्थंकरों ने साधारण मनुष्य के रूप में जन्म लिया और अपनी इंद्रिय और आत्मा पर विजय प्राप्त करके वे तीर्थंकर बने। इसी कड़ी में भगवान सुपार्श्वनाथ सातवें तीर्थंकर हैं। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता वाराणसी के शासक थे। उनका नाम सुप्रतिष्ठ तथा पटरानी का नाम पृथ्वीषेणा था। कहा जाता है कि जब सुपार्श्वनाथ का तेज पृथ्वीषेणा के गर्भ में प्रविष्ट हुआ, तो स्वयं देवराज इंद्र ने रत्न वर्षा करके वाराणसीवासियों को इसकी जानकारी दी थी।महारानी पृथ्वीषेणा ने ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में सुपार्श्वनाथ को जन्म दिया। इस दौरान एक असाधारण बात हुई। उनके गर्भ के उत्तरोत्तर काल में भी महारानी का उदर विकसित नहीं हुआ, वरन् यथावत सामान्य ही बना रहा। सुपार्श्वनाथ ने अपनी माता के पार्श्व (कोख) को सामान्य और सुंदर बनाए रखा, अत: उनका नाम सुपार्श्वनाथ रखा गया। उनका शरीर हरे वर्ण का और शुभ चिह्न स्वस्तिक था।राजसी वैभव-विलासिता में उनका बचपन व्यतीत होने पर जब सुपार्श्वनाथ ने युवावस्था में कदम रखा तो महाराजा सुप्रतिष्ठ ने उनका विवाह किया और कुछ ही समय बाद उनका राज्याभिषेक कर स्वयं मुनि-दीक्षा ले ली।इसके पश्चात सुपार्श्वनाथ सैकड़ों वर्षों तक न्यायपूर्वक प्रजा का लालन-पालन करते रहे। राजसी वैभव के बीच भी उनकी वृत्ति संयमित थी।
इसी प्रकार दिन बीतते गए और एक दिन वे महल में टहल रहे थे, तभी उनकी दृष्टि वृक्षों से गिरते पत्तों और वहां पड़े मुरझाए फूलों पर पड़ी। उन्हें तत्क्षण ही जीवन की नश्वरता का बोध गया। वे सोचने लगे कि उन्होंने व्यर्थ ही इतने वर्ष सांसारिक सुखों की भेंट चढ़ा दिए। उसी क्षण उन्होंने राजपाट का भार अपने पुत्र को सौंपकर ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी तिथि को वाराणसी में ही मुनि-दीक्षा ली और वन-वन भ्रमण कर कठोर तप करने लगे। दीक्षा प्राप्ति के दो दिन बाद खीर से प्रथम पारणा किया। उनके यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम शांता देवी था।इस तरह नौ वर्ष की तपश्चर्या के पश्चात फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन वाराणसी में ही शिरीष वृक्ष उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। वे तीर्थंकर बनकर तीनों लोकों में पूजे जाने लगे। जीवन के शेष काल में उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ देशों में घूम-घूम कर धर्मोपदेश दिया एवं जीवों का कल्याण किया। उन्होंने हमेशा सत्य का समर्थन किया और अनर्थ हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का सदेश दिया। उन्हें सम्मेदशिखरजी पर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन निर्वाण प्राप्त हुआ।चिह्न- नंद्यावर्त, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता।भगवान सुपार्श्वनाथ का अर्घ्य आठों साज गुण गाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय।दया निधि हो, जय जगबन्धु दया निधि हो।तुम पद पूजौं मन वच काय, देव सुपारस शिवपुर राय।दया निधि हो, जय जगबन्धु दया निधि हो।