अल्लाह का पहला महीना मुहर्रम
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जावेद आलम इस्लामी यानी हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम है। हिजरी सन् का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस मास में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, यानी हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के कौल (कथन) व अमल (कर्म) से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। ऐसे ही हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बार मुहर्रम का जिक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा। इसे जिन चार पवित्र महीनों में रखा गया है, उनमें से दो महीने मुहर्रम से पहले आते हैं। यह दो मास हैं जीकादा व जिलहिज्ज। एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। |
इस्लामी यानी हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम है। हिजरी सन् का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। |
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इत्तिफाक की बात है कि आज मुहर्रम का यह पहलू आमजन की नजरों से ओझल है, और इस माह में अल्लाह की इबादत करने, खासतौर से रोजे रखने के बजाय ऐसे कर्म किएजाते हैं, जिनकी कोई बुनियाद नहीं है, जबकि पैगंबरे-इस्लाम (सल्ल.) ने इस माह में खूब रोजे रखे और अपने साथियों का ध्यान भी इस तरफ आकर्षित किया। इस बारे में कई प्रामाणिक हदीसें मौजूद हैं। मुहर्रम की 9 तारीख को जाने वाली इबादतों का भी बड़ा सवाब बताया गया है। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के साथी इब्ने अब्बास के मुताबिक हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख का रोजा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ हो जाते हैं तथा मुहर्रम के एक रोजे का सवाब (फल) 30 रोजों के बराबर मिलता है। गोया यह कि मुहर्रम के महीने में खूब रोजे रखे जाने चाहिए। यह रोजे अनिवार्य यानी जरूरी नहीं हैं, लेकिन मुहर्रम के रोजों का बहुत सवाब है। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के करीबी रहे इब्ने अब्बास की बात इस बाबद खासतौर से याद की जाती है। उनके अनुसार जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) मदीना तशरीफ लाए तो देखा कि यहूदी इस दिन (आशूरे वाले दिन) रोजा रखते हैं। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने उनसे पूछा कि तुम लोग आज कारोजा क्यों रखते हो? यहूदियों ने जवाब दिया कि यह वह प्रतिष्ठित दिन है, जिस दिन हजरत मूसा तथा उनके अनुयायियों को अल्लाह ने बचाया तथा फिरऔन और उसके लश्कर को डुबोया था। तब से मूसा अल्लाह का शुक्र अदा करने के लिए इस दिन का रोजा रखते थे। यह सुनकर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने फरमाया कि हम मूसा के तुम से ज्यादा करीब हैं। तब से इस दिन का रोजा हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने न खुद रखा बल्कि अपने साथियों को भी आशूरे के दिन रोजा रखने के लिए प्रेरित करते रहे। साथ ही यह भी किया कि आशूरे के साथ अरफे यानी 9 मुहर्रम का रोजा रखे जाने का हुक्म भी दिया। वैसे आशूरे के दिन से कई बातें जोड़ी जाती हैं, लेकिन धार्मिक विद्वान इन बातों को स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में निरस्त करते हैं।
अलबत्ता यह जरूर कहा जाता है कि इस दिन अल्लाह के नबी हजरत नूह (अ.) की किश्ती को किनारा मिला था। इसके साथ ही आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। आज आशूरा मात्र इसी कांड से जोड़कर देखा जाता है। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकोंसे लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की।करबला की जंगकरबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा। 10
अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को समाप्त हुई। इसमें एक तरफ 72 (शिया मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) और दूसरी तरफ 40,000 की सेना थी। हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीदी फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी।हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिबहजरत अली और पैगंबर हजरत मुहम्मद की बेटी फातिमा (रजि.) के पुत्र। जन्म : 8 जनवरी 626 ईस्वी (मदीना, सऊदी अरब) 3 शाबान 4 हिजरी शहादत : 10 अक्टूबर 680 ई. (करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी।