पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख, मार्शल ला प्रशासक और राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक को इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने सेना, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों और तानाशाही का एक ऐसा खतरनाक मिश्रण तैयार किया था कि इसके बाद से पाकिस्तान न केवल कट्टरपंथी ताकतों वरन, सुन्नी कट्टरपंथियों, मुल्ला मौलवियों की ऐशगाह बन गया था। तुर्की के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति रेसीप ताइप एर्दोगन भी एक इस्लामवादी, लोकप्रिय नेता हैं जो कि अपने देश में इस्लामी विचारधारा को लोगों के जीवन से ठीक उसी तरह से जोड़ना चाहते हैं जैसे कि पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में इस्लाम का असर लोगों के जीवन पर साफ-साफ दिखाई देता है।
हालांकि मुस्तका अता तुर्क एक पूर्व सैन्य अधिकारी थे लेकिन वे लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के कट्टर हिमायती थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता भी चट्टान की तरह मजबूत थी। उनके विचारों को आज 'कमालवाद' के नाम से जाना जाता है और तुर्की की सेना को इन विचारों का रक्षक माना जाता रहा है। सेना ने तुर्की को अराजकता और इस्लामीकरण से बचाने के लिए देश की चार सरकारों को उखाड़ फेंका था। प्रत्येक संकट के समय तुर्की की सेना ने देश को लोकतंत्र के रास्ते पर आगे बढ़ाया है।
शायद इसीलिए धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और प्रगतिशील युवा नेताओं को यंग टर्क या युवा तर्क कहा जाता है। एक समय पर कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर जैसे युवातुर्क नेता थे जो कि सिद्धांतों के लिए, आदर्श के लिए परिणामों की चिंता नहीं करते थे। लेकिन जिस तरह पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक ने देश को सुन्नी कट्टरतावाद की गोद में सौंप दिया था, ठीक उसी तरह रेसीप ताइप एर्दोगन और उनकी पार्टी एकेपी को अब तक नरमपंथी इस्लामी दल माना जाता रहा है लेकिन एर्दोगन के विरोधियों को लगता है कि वे देश की धर्मनिरपेक्षता को समाप्त करने की कोशिशें कर रहे हैं।
वास्तव में, उन्हें ऐसा नेता माना जाता है जो कि अपने हाथों में अधिक से अधिक ताकत इकट्ठा करते जा रहे हैं। उन्होंने तुर्की की प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी और संविधान में ऐसे सुधार किए हैं जिससे अतातुर्क के परम्परागत विचारों को समाप्त किया जा रहा है। ट्विटर और सोशल मीडिया के कटु आलोचक एर्दोगन ने इसे 'हत्यारे का चाकू' बताया था, लेकिन सेना के एक धड़े के विद्रोह के बाद उन्होंने लोगों को ट्विटर, फेसटाइम वीडियो से ही संबोधित किया था। इनके सहारे एक अज्ञात ठिकाने से उन्होंने लोगों को सड़कों पर बाहर आकर एकजुट होने का आह्वान किया था।
राष्ट्रपति के विरोधियों का मानना है कि यह विद्रोह या बगावत एर्दोगान का ही ड्रामा है जिसकी आड़ में उन्होंने जनता के बीच सहानुभूति बटोर ली। इससे वे अपने हाथों में अधिकाधिक ताकत एकत्र कर सकते हैं और अपने विरोधियों को ठिकाने लगा सकते हैं। उनके विरोधियों में राजनीतिक दलों के नेता, शिक्षक, सेना अधिकारी, न्यायाधीश, पत्रकार और वे सभी लोग हैं जोकि उनके विचारों का विरोध करते हैं। तख्तापलट की कोशिश में जहां हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया है, धरपकड़ की जा रही है और एर्दोगन समर्थकों द्वारा इन्हें फांसी दिए जाने की मांग की जा रही है, वह साबित करती है कि एर्दोगन भी सद्दाम हुसैन, बशर अल असाद, मुअम्मर गद्दाफी जैसे तानाशाहों से अलग नहीं हैं।
तुर्की में राष्ट्रपति रेसीप तायप एर्दोगन की एके पार्टी को कट्टरपंथी मुस्लिम समुदाय में व्यापक समर्थन प्राप्त है। विदेशों में उनकी इस बात के लिए आलोचना होती है कि वह अपने विरोधियों को ताकत के बल पर खामोश कर देते हैं। उनके आलोचक तुर्क पत्रकारों के खिलाफ जांच होती है, उनके खिलाफ मुकदमे चलाए जाते हैं जबकि विदेशी पत्रकारों का उत्पीड़न होता है और उन्हें तुर्की से निकाल दिया जाता है। तुर्की एक ओर ईयू में शामिल होने की कोशिश कर रहा है लेकिन वहां मृत्युदंड दिए जाने की मांग की जा रही है। इतना ही नहीं, ईयू के अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति के इशारे पर उन लोगों की सूचियां पहले ही बना ली गई हैं जिन्हें जेलों में डाला जाना है या फिर समाप्त किया जाना है।
कुछ समय पहले ही तुर्की के सबसे बड़े अखबार 'जमान' पर पुलिस ने छापा मारा था, जिसके बाद अखबार के कर्मचारियों को झुकना पड़ा। एर्दोगन की यह ताकत सिर्फ तुर्की की सीमाओं के भीतर ही नहीं चलती बल्कि उनके बॉडीगार्ड्स ने अमेरिका में भी पत्रकारों का उत्पीड़न किया है। उनका अपमान करने के आरोप में एक जर्मन कॉमेडियन के खिलाफ भी जांच चल रही है।