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Written By Author अनवर जमाल अशरफ

नाकाम बगावत के बाद किधर जाएगा तुर्की

नाकाम बगावत के बाद किधर जाएगा तुर्की - Turkey
पाकिस्तान, मिस्र और खुद तुर्की फौजों ने कई बार बताया है कि उनके पास कितनी बड़ी ताकत है, जो लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर सत्ता पर चढ़ बैठती हैं। लेकिन इस बार तुर्की में राष्ट्रपति और आम तुर्क नागरिकों ने फौज की साजिश को नाकाम कर दिया। रात भर चली बगावत की कोशिश ध्वस्त हो गई और तुर्क राष्ट्रपति रज्जब तैयब एर्दवान बड़े हीरो बनकर उभरे। तो क्या, बगावत नाकाम होने का मतलब तुर्की में लोकतंत्र की जीत है। शायद नहीं।
 
जब राजधानी अंकारा के आसमान पर सैनिक विमानों का कब्जा होने लगा और इस्तांबुल की सड़कों पर टैंक निकल आए तो लगा तुर्की का वही हश्र होने जा रहा है, जो तीन साल पहले मिस्र का हुआ था। तब मिस्र के सैनिक कमांडर अब्दुल फतह अल सिसी ने चुने हुए राष्ट्रपति मुहम्मद मुर्सी का तख्ता पलट दिया था और खुद राष्ट्रपति बन बैठे थे।
 
मुर्सी अब जेल में हैं और मौत की सजा पा चुके हैं। लेकिन तुर्क राष्ट्रपति ने नाटकीय ढंग से अपने आईफोन फेस टॉक और सीएनएन की मदद से राष्ट्र के नाम संदेश जारी कर दिया और जनता से सड़कों पर उतरने की अपील कर दी। जनता उतर आई। बगावत की प्लानिंग करने वालों ने टेलीविजन स्टेशनों को तो घेर लिया, लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया से मात खा गए। यह राष्ट्रपति एर्दवान के लिए जीवनरक्षक साबित हुआ।
 
कट्टरपंथ की तरफ : मिस्र और तुर्की के हालात में बहुत फर्क नहीं हैं। मिस्र में जनता ने कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड के मुर्सी को चुनकर राष्ट्रपति बनाया था और तुर्की में भी कट्टरपंथी एके पार्टी के एर्दवान राष्ट्रपति हैं। वह 13 साल से देश की सत्ता पर काबिज हैं- पहले प्रधानमंत्री के तौर पर और फिर राष्ट्रपति बनकर। इस दौरान धर्मनिरपेक्ष तुर्की धीरे-धीरे कट्टरपंथ की ओर झुकता जा रहा है। यह बहुत अजीब बात है कि 2013 के मिस्री तख्ता पलट को पश्चिमी देशों का साथ मिला था, जबकि तुर्की में तख्ता पलट के प्रयास को 'लोकतंत्र पर हमला' बताया गया।
 
इस दोमुंहेपन की वजह तुर्की की सामरिक और भौगोलिक अहमियत है। तुर्की की सीमा तीन संकट भरे देशों- इराक, ईरान और सीरिया से मिलती है और वह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पश्चिमी देशों का प्रमुख साथी है। तुर्की ताकतवर देशों के सैनिक संगठन नाटो का इकलौता मुस्लिम सदस्य देश है और आतंकवादी संगठन आइसिस (ISIS) के खिलाफ युद्ध में प्रमुख भूमिका निभा रहा है।
 
तुर्की ने अमेरिका को अपने सैनिक ठिकाने मुहैया कराए हैं, जहां से आइसिस पर हमला किया जाता है। तुर्की खुद भी ऐसे हमलों में शामिल होता है। ऐसे वक्त में जब आइसिस यूरोप में सिर उठा रहा है, यूरोप और उसके साथी अस्थिर तुर्की नहीं चाहेंगे। एर्दवान ने पिछले 13 साल में अगर देश में कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया है, तो आर्थिक तौर पर तुर्क लोगों का जीवन भी बेहतर किया है। उन्होंने रोजगार के मौकों से लेकर पर्यटन और विमानन में अंतरराष्ट्रीय कामयाबी हासिल की है। यह एक बड़ी वजह है कि उन्हें चाहने वालों की संख्या तुर्की में लगातार बढ़ी है।
 
विरोध बर्दाश्त नहीं : इसके साथ ही उन्होंने तुर्क सेना की ताकत भी कम की है। कमाल अतातुर्क के समय से तुर्क सेना धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए लड़ती रही है और जब जब उसे अहसास हुआ है कि तुर्क सत्ता धर्मनिरपेक्षता से समझौता कर रही है, उसने तख्ता पलट कर दिया है। तीन लगातार कामयाब तख्ता पलट के बाद यह पहली नाकाम कोशिश रही।
 
एर्दवान के कार्यकाल में तुर्की ने लोकतांत्रिक मूल्यों से भी समझौता किया है। वह अपने विरोधियों को नहीं टिकने देने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं। उनसे विरोध का मतलब सीधा टकराव लेना है। मीडिया में उनके खिलाफ रिपोर्टिंग के बाद दो वरिष्ठ तुर्क पत्रकारों पर मुकदमा चल रहा है, जबकि उनके खिलाफ 'आपत्तिजनक' कार्यक्रम करने पर उन्होंने एक जर्मन पत्रकार के खिलाफ भी केस ठोंक रखा है। यूरोप जिस वक्त राष्ट्रवाद का विरोध कर रहा है, तुर्की में राष्ट्रवाद की मानसिकता बढ़ी है। भले ही इन मुद्दों पर यूरोपीय देश चीन और ईरान जैसे देशों को आड़े हाथ लेते हैं, लेकिन तुर्की की इन कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
 
एर्दवान के निरंकुश शासन के दौरान विरोधी पार्टियों को भी नुकसान उठाना पड़ा है। मुर्सी ने जब मिस्र में विपक्ष के खिलाफ सख्त कदम उठाए थे, तो पूरी दुनिया (पश्चिमी मुल्क) के विरोध स्वर उठे थे लेकिन तुर्की के लिए यह कदम भी माफ है। एर्दवान के विरोधी और उदारवादी नेता फतहुल्लाह गुलेन को भी उनकी नाराजगी झेलनी पड़ रही है। तुर्की में गुलेन को पसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके समर्थक गुलेन मूवमेंट चलाते हैं। यह आंदोलन एक उदारवादी समाज की वकालत करता है।
 
गुलेन 2013 तक एर्दवान के सहयोगी थे लेकिन उसके बाद दोनों में अनबन हो गई। उन्हें भागकर अमेरिका जाना पड़ा और एर्दवान इस तख्ता पलट की कोशिश को भी गुलेन से जोड़कर बता रहे हैं। तुर्की में गुलेन को आतंकवादी सूची में शामिल कर दिया गया है और वह अमेरिका से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रहा है। तख्ता पलट की कोशिश के बाद यह मांग और तेज हो सकती है। हालांकि गुलेन का कहना है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन करते हैं और उन्होंने बगावत की आग नहीं लगाई है।
 
किधर जाएगा तुर्की : तख्ता पलट की कोशिश के बाद सैनिकों के साथ साथ हजारों जजों की बर्खास्तगी और सैकड़ों की गिरफ्तारी लोकतांत्रिक कदम तो सही नहीं ठहराए जा सकते। इससे एर्दवान की ताकत बढ़ेगी, वह ज्यादा लोकप्रिय होंगे। विपक्षी पार्टियों ने बगावत के खिलाफ जिस तरह एर्दवान का समर्थन किया है, उसका फायदा वह देश को एकजुट करने में कर सकते हैं। कुर्दों और तुर्कों की खाई पाट सकते हैं। लेकिन इस ताकत का इस्तेमाल वह अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने और हर उठती आवाज को दबाने के लिए भी कर सकते हैं। अगर उन्होंने ऐसा किया, तो तुर्की और लोकतंत्र में दूरी और बढ़ जाएगी।
 
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