Story of Dictator Joseph Stalin: इस लेख के पहले भाग में हमने देखा कि भूतपूर्व सोवियत संघ का तनाशाह योसेफ़ स्टालिन, अधिकतर मॉस्को से 15 किलोमीटर दूर के एक उपवन में बने, दाचा कहलाने वाले एक भव्य मकान में रहा करता था। 1 मार्च 1953 के दिन उसे वहां लकवा मार गया। कम्युनिस्ट पार्टी के उसके कथित चारों विश्वासपात्रों बेरिया, मालेंको, बुल्गानिन और ख्रुश्चेव वाले चौगुटे ने लेकिन उसके लिए डॉक्टर बुलाना उचित नहीं समझा।
उन्होंने कहा...
स्टालिन को सोने दें, मकान के जिस हॉल में स्टालिन सोफ़े पर पड़ा हुआ था, उस में जाने से पहले मालेंको ने अपने जूते उतार दिए, ताकि जूतों से कोई आवाज़ न हो।
वह बेरिया के साथ उस सोफ़े के पास गया, जिस पर बेहोश स्टालिन को लिटाया गया था। बेरिया ने पहरेदारों से कहा कि वे स्टालिन को सोने दें, हालांकि सभी जानते थे कि स्टालिन सो नहीं रहा था। किसी ने नहीं कहा कि कोई डॉक्टर बुलाया जाए। मन-ही- मन वे शायद यही मान रहे थे कि अच्छा ही होगा, यदि स्टालिन इस दुनिया से चला जाएगा। इन चार लोगों का चौगुटा कुछ ही देर बाद कुंत्सेवो से चला गया।
अगले दिन, 2 मार्च को स्टालिन की हालत और अधिक ख़राब होती दिखी। उसके पहरेदारों ने एक बार फिर बेरिया को फ़ोन किया। इस बार बेरिया ने तीन डॉक्टरों को कुंत्सेवो जाने के लिए कहा। स्टालिन को लकवा मारे तब तक 30 घंटे हो चुके थे। बेरिया का चौगुटा जानता था कि स्टालिन जीवन-मरण के बीच झूल रहा है। पर, चौगुटा यह भी जानता था कि स्टालिन कितना शक्की है। शक के चलते ही अपने निजी डॉक्टर को कुछ ही समय पहले उसने गिरफ्तार करवा दिया था।
गर्दन पर जोंकें रख कर इलाजः डॉक्टर आए। पर डर के मारे उनके हाथ इस बुरी तरह कांप रहे थे कि स्टालिन के हृदय की धड़कन को जानने के लिए वे उसकी कमीज़ को ठीक से ऊपर उठा तक नहीं पा रहे थे। रक्तचाप, तापमान और नाड़ी की गति जैसी सारी बातें पूरी बारीकी के साथ लिखकर नोट की गईं, ताकि डॉक्टरों पर यदि कोई आरोप लगता, तो वे जांच का प्रोटोकोल दिखाकर अपना बचाव कर सकते। वे जानते थे कि वे कुछ ख़ास कर नहीं सकते। उनके प्रोटोकोल के अनुसार, अंत में उन्होंने स्टालिन की गर्दन पर ख़ून चूसने वाली पांच जोंकें लगा कर उसका इलाज करने का प्रयास किया। प्राचीन रूस में कुछ बीमारियों के प्रसंग में जोंक से खून चुसवाना भी एक उपचार विधि हुआ करती थी।
लकवा मारने के तीसरे दिन डॉक्टर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि स्टालिन को बचाया नहीं जा सकता। इसे जानते ही बेरिया, मालेंको, बुल्गानिन और ख्रुश्चेव वाले चौगुटे ने देश की जनता को स्टालिन का हाल बताने का निर्णय किया। 4 मार्च, 1953 को रेडियो और कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र 'प्राव्दा' के द्वारा आम जनता को भी स्टालिन के हाल का पता चला। 'प्राव्दा' ने अपने मुखपृष्ठ पर ख़बर दी कि 2 मार्च की रात मॉस्को के अपने आवास में स्टालिन को लकवा मार गया। वे बेहोश हो गए। बोलने की क्षमता नहीं रही। हृदयगति और श्वसनक्रिया भी बाधित हुई है। देश के सबसे उत्कृष्ट डॉक्टर उनका इलाज़ कर रहे हैं।
ख़बर में कई झूठ छिपे थेः 'प्राव्दा' की इस ख़बर में कई झूठ छिपे थे। स्टालिन, मॉस्को में क्रेमलिन वाले अपने आावास में नहीं, कुंत्सेवो के अपने भव्य गोपनीय मकान में था। देश के सबसे उत्कृष्ट डॉक्टर उसका इलाज़ नहीं कर रहे थे; उन्हें तो स्टालिन ने ही, गुप्तचर सेवा 'केजीबी' के प्रमुख बेरिया की जेलों में बनी भूमिगत यातना-कोठरियों में बंद करवा दिया था। यहां तक कि उसका अपना निजी डॉक्टर भी ऐसी ही किसी कोठरी में बंद था और अपने भाग्य को कोस रहा था।
स्टालिन की तरह ही 'केजीबी' प्रमुख बेरिया भी भूतपूर्व सोवियत संघ के जॉर्जिया गणराज्य का निवासी था। दोनों 1926 में एक-दूसरे से परिचित हुए थे। बेरिया उस समय जॉर्जिया की गुप्तचर सेवा का प्रमुख हुआ करता था। स्टालिन ने उसे जॉर्जिया की कम्युनिस्ट पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। बेरिया भी, स्टालिन की तरह ही एक परम दुष्ट, अति निर्मम और घोर महत्वाकांक्षी चरित्र वाला व्यक्ति था। मृत्यु-शैया पर पड़े स्टालिन के सूर्यास्त में उसे अपने लिए एक सुनहरे भविष्य का सूर्योदय दिखने लगा।
बेटी दुखी थी, बेटा नशे में धुतः 2 मार्च 1953 से स्टालिन की बेटी स्वेतलाना और बेटा वसीली भी कुंत्सेवो में अपने बीमार पिता के पास थे। स्वेतलाना दुखी थी, भाई नशे में धुत था। चीख-चिल्ला रहा था, 'सूअर के बच्चों, तुमने मेरे पिता को मार डाला।' वसीली सोवियत वायुसेना में जनरल रैंक का एक अफ़सर था। नंबरी पियक्कड़ था। स्टालिन इसे जानता था। एक समय आया, जब वसीली पर से स्टालिन ने अपना वरदहस्त हटा लिया। उसे अपने परिवार से अधिक बेरिया जैसे लोग पसंद थे।
स्टालिन ने 1945 में बेरिया को अपना डिप्टी बना दिया। इसी कारण स्टालिन के अलावा बेरिया भी उस सोवियत प्रतिनिधि मंडल में शामिल था, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद विजेता शक्तियों के 1945 में जर्मनी के पोट्सडाम शहर में हुए शिखर सम्मेलन में भाग लिया था। 17 जुलाई से 2 अगस्त 1945 तक चले इसी शिखर सम्मेलन में जर्मनी का विभाजन हुआ था। जर्मनी के, और राजधानी बर्लिन के भी, चार-चार टुकड़े किए गए थे।
पोट्सडाम शिखर सम्मेलनः इसी शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने स्टालिन को अपने पास परमाणु बम होने की जानकारी दी थी। स्टालिन के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बेरिया के जासूसों ने पहले ही पता लगा लिया था। बेरिया ही सोवियत परमाणु बम परियोजना का सर्वोच्च निरीक्षक था। उसने हज़ारों सोवियत वैज्ञानिक और इंजीनियर ही इस काम में नहीं लगा दिए, उस समय के जर्मन V-2 (फ़र्गेल्टुंग/प्रतिशोध) रॉकेट की सारी तकनीकी जानकारी जुटाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। रॉकेट तकनीक के तीन हज़ार से अधिक जर्मन वैज्ञानिक और इंजीनियर बंदी बनाकर रूस ले जाए गए। 29 अगस्त 1949 के दिन सोवियत संघ ने अपने पहले परमाणु बम का सफल परीक्षण भी कर लिया।
स्टालिन के गिने-चुने विश्वासपात्रों में बेरिया भी एक ज़रूर था, पर इस तानाशाह के शक्की स्वभाव से पूरी तरह सुरक्षित वह भी नहीं था। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के 1952 में हुए अधिवेशन में बेरिया ने भी देखा कि स्टालिऩ ने अपने कुछ नए मनचाहे लोगों को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व मंडल में जगह दी है। बेरिया डर रहा था कि उसकी कहीं छुट्टी न हो जाए। पार्टी अधिवेशन के 6 ही महीने बाद, अमर्त्य समझे जा रहे स्टालिन को मृत्यु-शैया पर देख कर बेरिया की बांछें खिल गईं। वह स्टालिन का उत्तराधिकारी बनने के सपने देखने लगा।
उत्तरधिकारी बनने की जोड़-तोड़ः इतना तय था कि स्टालिन के मनचाहे चौगुटे में से ही कोई उसका उत्तराधिकारी बनेगा— लेकिन कौन? बाज़ी कौन मारेगा? चौगुटे ने आपस में तय किया उन में से दो-दो लोग, हर रात अदल-बदल कर, बेहोश स्टालिन के पास रहेंगे। एक तरह से पहरा देने के इस निर्णय के पीछे मंशा यही थी कि इस तरह उन्हें दूसरे लोगों को दूर रखने और आपस में गठजोड़ करने का सुअवसर मिलेगा। स्टालिन उनके लिए वस्तुतः मर चुका था। चार लोगों का चौगुटा, दो-दो लोगों के दो गुटों में बंट गया। गुप्तचर सेवा का प्रमुख होने के कारण बेरिया अपने लिए गुप्तचरी से जुड़े लाभ उठाने के अवसर देख रहा था, जबकि चौगुटे के दूसरे दो सदस्य भी उसके इरादों की काट निकालने के प्रति पूरी तरह सजग थे।
और तब आया 5 मार्च 1953 का दिन। कम्युनिस्ट दुनिया का सबसे शक्तिशाली शासक अपने बिस्तर पर निःशक्त और निश्चेत पड़ा था। डॉक्टरों ने उसकी पुनः जांच-परख की। विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के आंकड़े आदि नोट किए। ख़ून चूसने के लिए उस के शरीर पर नई जोंकें लगायीं। 5 मार्च के उसी दिन, पौ फटने से पहले, निकोलाई बुल्गानिन और निकिता ख्रुश्चेव कुंत्सेवो पहुंचे। ख्रुश्चेव नहीं चाहते थे कि बेरिया, स्टालिन का उत्तराधिकारी बने।
ख्रुश्चेव ने मौका देखाः ख्रुश्चेव एक यूक्रेनी थे और स्वयं इस पद के इच्छुक थे। स्टालिन से वे सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के 1925 में हुए अधिवेशन में परिचित हो चुके थे। समय के साथ ऊपर उठते हुए वे 1934 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव और उसकी केंद्रीय समिति के सदस्य बने। पांच वर्ष बाद, 1939 में उन्हें पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्वमंडल 'पोलित ब्यूरो' की सदस्यता भी मिल गई।
स्टालिन के लिए ख्रुश्चेव एक आदर्श आज्ञापालक सेवक के समान थे। किंतु ख्रुश्चेव मन ही मन उसे कोसते-धिक्कारते थे। कुंत्सेवो में स्टालिन की रात्रिकालीन दावतों में, उसके कहने पर, ख्रुश्चेव को अक्सर एक बड़ी-सी मेज़ पर चढ़ कर यूक्रेनी डांस नाचने पड़ते थे। स्टालिन के मनोरंजन के लिए नाचना ख्रुश्चेव को बहुत अपमानजनक लगता था। पर किसी विरोध या अवज्ञा का मतलब जान की बाज़ी लगाना होता। इसलिए ख्रुश्चेव अपमान का कड़वा घूंट पी कर चुप रह जाते थे।
ख्रुश्चेव बने नए नेताः 5 मार्च 1953 की शाम स्टालिन की पसंद वाले चौगुटे के चारों सदस्य क्रेमलिन में जमा हुए। वे बेहोश स्टालिन को उसके पद से हटाना और सबसे महत्वपूर्ण पदों को आपस में बांटना चाहते थे। यह बैठक क्रेमलिन के उस कमरे में हुई, जिसमें स्टालिन बैठा करता था। लेकिन स्टालिन की कुर्सी पर बैठने की हिम्मत किसी ने नहीं की। बैठक में सहमति बनी कि चारों का एक साझा गुट देश को नेतृत्व देगा। ख्रुश्चेव कम्युनिस्ट पार्टी के महाचिव होंगे। मालेंको प्रधानमंत्री बनेंगे। बुल्गानिन रक्षामंत्री होंगे। बेरिया को गृह मंत्रालय मिलेगा और साथ ही गुप्तचरसेवा और पुलिस का सारा ताना-बाना भी।
रात 9 बजे ये सभी लोग कुंत्सेवो की दिशा में चल पड़े। क्रेमलिन में अपनी बैठक के क़रीब एक घंटे बाद वे एक बार फिर मृत्युशैया पर पड़े स्टालिन के पास थे। स्टालिन की बेटी स्वेतलाना पहले से ही वहां थी। कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ बड़े पदाधिकारी भी वहां पहुंचे हुए थे। सभी मौन थे। स्टालिन की अंतिम सांस का इंतज़ार कर रहे थे। तभी, स्टालिन की आंखें अचानक खुल गयीं। बेटी स्वेतलाना ने बाद में लिखा, 'वह एक भयावह दृश्य था। आधा उन्माद भरा, आधा क्रोध भरा।'
जब स्टालिन ने अंतिम सांस लीः 5 मार्च 1953 की उस रात, 9 बज कर 50 मिनट पर, मनव इतिहास के हिटलर जैसे ही उसके समकालीन रहे दूसरे यमराज, स्टालिन का प्राणपखेरू उड़ गया। पूरे सोवियत संघ में तीन दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। अगले दिन 6 मार्च को 'प्राव्दा' ने अपने मुखपृष्ठ पर उसके मरने की ख़बर दी। यह भी बताया कि नई सरकार में कौन किस पद पर है। जनता की श्रद्धांजलि के लिए स्टालिन का शव मॉस्को के ट्रेड यूनियन भवन में रखा गया।
इसी भवन में स्टालिऩ के आदेश पर एक-से-एक जानलेवा झूठे मुकदमे चलाए जाते थे। तीन दशकों तक चली स्टालिन की व्यक्तिपूजा ने जनता की मति इस तरह मार दी थी कि उसके अत्याचारों को लोग मानो भूल गए। लाखों लोग उसे देखने और श्रद्धांजलि देने के लिए ट्रेड यूनियन भवन पर टूट पड़े। भीड़ को नियंत्रित करना असंभव हो गया। पैरों तले कुचल जाने से सैकड़ों लोग मर गए।
चौगुटे के बीच दरारें: स्टालिन की पसंद वाले चौगुटे के बीच दरारें भी जल्द ही उभरने लगीं। सभी को बेरिया से डर लग रहा था। 9 मार्च को स्टालिन का ताबूत लेनिन के मकबरे में ले जाया गया। ताबूत के आगे वाले हिस्से में उससे सट कर बाईं तरफ बेरिया चल रहा था। उस समय की परंपरा के अनुसार इस का अर्थ यही था कि बेरिया ही अगला उत्तराधिकारी होगा। मकबरे के साथ वाली दीवार के ऊपर बने छज्जे पर से सबसे पहले ख्रुश्चेव ने जनता को संबोधित किया। बेरिया ने किंतु उनसे भी अधिक लंबा भाषण दिया।
स्टालिन के शव को भी लंबे समय तक संरक्षित करने वाले प्रलेपों से उपचारित करने के बाद, उसके ताबूत को भी जनता के दर्शन के लिए, लेनिन के ताबूत के पास ही रखने की घोषणा की गई। स्टालिन की मृत्यु के बाद पर्दे के पीछे सत्ता हथियाने की जोड़-तोड़ शुरू हो गई। इस जोड़-तोड़ में ख्रुश्चेव एक कुशल खिलाड़ी सिद्ध हुए। बेरिया बहुत काइंया होते हुए भी ख्रुश्चेव की सोच-समझ का सही आकलन नहीं कर पाया, मात खा गया।
बेरिया का भी काम तमामः 1953 के जून महीने के अंत में बेरिया को एक बैठक के लिए क्रेमलिन में जाना था। उसे नहीं पता था कि उसके पापों का घड़ा भर गया है। उसे बैठक के दौरान ही गिरफ़्तार कर लिया गया। उसके सारे पद छीन लिए गए। उस पर ग़द्दार और ब्रिटेन का जासूस होने का आरोप लगाया गया। स्टालिन की मृत्यु के 9 महीने बाद, गोली मार कर बेरिया का भी काम तमाम कर दिया गया।
भारत-मित्र निकिता ख्रुश्चेव अब सोवियत संघ के एकछत्र नए नेता थे। स्टालिन की मृत्यु के तीन साल बाद, 1956 में उन्होंने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के 20वें अधिवेशन में उसके वीभत्स अत्याचारों और घिनौने पापों का भंडाफोड़ किया। कहा कि स्टालिन एक बहुत बड़ा जनसंहारक था। बंद दरवाज़ों के पीछे 5 घंटे तक चले अपने भाषण में ख्रुश्चेव ने स्टालिन को लाखों-करोड़ों सोवियत नागरिकों की मौत के लिए दोषी ठहराया।
स्टालिन के शव का ताबूत तब भी, 8 वर्षों तक लेनिन वाले मकबरे में, लेनिन के ठीक बगल में रखा रहा। लोग स्टालिन के काले कारनामों को जब अच्छी तरह जान गए या उसे भूल गए, तब 1961 में एक दिन उस के शव को ताबूत सहित पहले ग़ायब कर दिया गया। बाद में मास्को के लाल चौक के पास वाली, क्रेमलिन की दीवार से सटी, विशिष्ट लोगों की क़ब्रों की पांत में स्टालिन को भी दफ़ना दिया गया। क़ब्र पर पत्थर की बनी उसकी एक आवक्ष मूर्ति आज भी खड़ी है।
'स्टालिन' नाम वाला दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति मिलेगा। भारत में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और उनके आत्मज इसके अपवाद हैं।